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भारत मे जितने दल हैं, उनके सबके अपने अपने लोकतंत्र हैं...

    • कौशलेंद्र प्रताप सिंह
    • Updated: 10 नवम्बर, 2022 05:01 PM
  • 10 नवम्बर, 2022 05:01 PM
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जिस सवाल से दुनिया आज यहां पहुंची है, वही सवाल भारत मे आंखों के सामने मरता रहा और हम खामोश होकर देखते रहे. कोरोना की कहर ने भारत की तमाम तरह की सरकारों के रवैय्ये को तार तार कर दिया. पर सरकारों में आस्था रखने वालों ने भी अपनी अपनी सरकारों से सवाल नही किया. यही भारतीय लोकतंत्र की मौत है.

दलों में लोकतंत्र नहीं है, पर देश मे लोकतंत्र महफूज रहे कहने वाले कांग्रेसियों, भाजपाईयों, सपाईयों, बसपाइयों से पूछना चाहता हूं कि तुम सब अपनी वंशावली के प्रति इतनी वफादारी क्यों रखते हो? तुम सब अपनी ज़िंदगी के किसी आंदोलन का नाम बताओ जिससे समाज का भला हुआ हो. आइये भारतीय लोकतंत्र को सरसरी निगाह से देखते हैं. भारत मे जितने भी दल हैं, उनके अपने अपने तरह के लोकतंत्र हैं. जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना नहीं जाता मनोनीत होता है. उस मनोनयन में ममता बनर्जी से लेकर मायावती तक शामिल हैं. कांग्रेस का क्या कहना, वहां तो आंदोलन कोई करता है और मुख्यमंत्री कोई और बनता है. कांग्रेस ने देश को बहुत कुछ दिया तो, पर बहुत कुछ लिया भी. लोकतंत्र में राजतंत्र का सूत्र भी कांग्रेस ने ही प्रतिपादित किया जिसपर देश के सभी दल चल रहे हैं. ऊपर से तुर्रा की पार्टी से परिवार को बाहर करोगे तो पार्टी टूट जाएगी. तुम बुजदिल हो,कायर हो,चापलूस हो, इतिहास से अनभिज्ञ हो, तुम डेमोक्रेट हो ही नहीं सकते. पार्टी जब भी टूटी इसी परिवार ने तोड़ी या परिवार के कहने पर तोड़ी गयी. भाजपा भी अपने को समय के साथ बदलती गई. पहले तो राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलती रही. वर्तमान की भाजपा तो अपने लोगों को लोकतंत्र में अपने-अपने हिसाब से सेट करने में कांग्रेस से भी आगे निकल गयी है.

जिस तरह दलों के कारण लोकतंत्र का गला रोज घोंटा जा रहा है कई मायनों में शर्मनाक है

हर दल को सलाहकार की जगह चापलूस चाहिए और हम चापलूसी कर रहे हैं. उस चापलूसी का नतीजा रहा कि लोकतंत्र की परिभाषा जो लिकंन ने दी थी फ़ॉर द पीपल बाई द पीपल, टू द पीपल .उसे भारत ने बदल दिया. अब भारतीय लोकतंत्र की परिभाषा हो गयी फ़ॉर द लूट,बाई द लुटेरों, टू द लुच्चों-लफंगों...

संसद में समस्या पर बोलने वाले सबसे ज्यादा समस्या पैदा करते...

दलों में लोकतंत्र नहीं है, पर देश मे लोकतंत्र महफूज रहे कहने वाले कांग्रेसियों, भाजपाईयों, सपाईयों, बसपाइयों से पूछना चाहता हूं कि तुम सब अपनी वंशावली के प्रति इतनी वफादारी क्यों रखते हो? तुम सब अपनी ज़िंदगी के किसी आंदोलन का नाम बताओ जिससे समाज का भला हुआ हो. आइये भारतीय लोकतंत्र को सरसरी निगाह से देखते हैं. भारत मे जितने भी दल हैं, उनके अपने अपने तरह के लोकतंत्र हैं. जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना नहीं जाता मनोनीत होता है. उस मनोनयन में ममता बनर्जी से लेकर मायावती तक शामिल हैं. कांग्रेस का क्या कहना, वहां तो आंदोलन कोई करता है और मुख्यमंत्री कोई और बनता है. कांग्रेस ने देश को बहुत कुछ दिया तो, पर बहुत कुछ लिया भी. लोकतंत्र में राजतंत्र का सूत्र भी कांग्रेस ने ही प्रतिपादित किया जिसपर देश के सभी दल चल रहे हैं. ऊपर से तुर्रा की पार्टी से परिवार को बाहर करोगे तो पार्टी टूट जाएगी. तुम बुजदिल हो,कायर हो,चापलूस हो, इतिहास से अनभिज्ञ हो, तुम डेमोक्रेट हो ही नहीं सकते. पार्टी जब भी टूटी इसी परिवार ने तोड़ी या परिवार के कहने पर तोड़ी गयी. भाजपा भी अपने को समय के साथ बदलती गई. पहले तो राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलती रही. वर्तमान की भाजपा तो अपने लोगों को लोकतंत्र में अपने-अपने हिसाब से सेट करने में कांग्रेस से भी आगे निकल गयी है.

जिस तरह दलों के कारण लोकतंत्र का गला रोज घोंटा जा रहा है कई मायनों में शर्मनाक है

हर दल को सलाहकार की जगह चापलूस चाहिए और हम चापलूसी कर रहे हैं. उस चापलूसी का नतीजा रहा कि लोकतंत्र की परिभाषा जो लिकंन ने दी थी फ़ॉर द पीपल बाई द पीपल, टू द पीपल .उसे भारत ने बदल दिया. अब भारतीय लोकतंत्र की परिभाषा हो गयी फ़ॉर द लूट,बाई द लुटेरों, टू द लुच्चों-लफंगों...

संसद में समस्या पर बोलने वाले सबसे ज्यादा समस्या पैदा करते हैं. यही भारतीय लोकतंत्र का सत्य है.अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत में बदलने के लिए नरसिम्हा राव जी ने सांसद निधि नामक योजना का सृजन किया. जिसका जन्म ही लूटने के लिए हुआ था पर उद्देश्य कहने के लिए विकास का था.विकास हुआ पर उनका हुआ जो निधि बांटते थे.यह योजना जब से आई तब से आजतक भ्रष्टाचार के आंकठ में डूबी हुई है. जिसकी कभी ईमानदारी से जांच हुई.

कभी किसी सांसद ने किसी सांसद के खिलाफ निधि में हुए गड़बड़ घोटाले की गंध को सूंघने का साहस किया, कभी कोई सवाल किया?  जिस सवाल से दुनिया आज यहां पहुंची  है. वही सवाल भारत मे आंखों के सामने मरता रहा और हम खामोश होकर देखते रहे. दलों से ज्यादा दोषी तो जनता है. वह देश तो छोड़िए. जो जनता अपने गांव में एक ईमानदार प्रधान नही चुन सकती, वह क्या ईमानदार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और संत्री चुनेगी.

लानत है 130 करोड़ लोगों पर जो लोकतंत्र का गला घुटते हुए देखकर भी बेईमानी में ब्राह्मणवाद, ठाकुरवाद, भुमिहारवाद,दलितवाद, यादववाद कर रहे हैं, करिये. कल कोई न कोई अवश्य हम सभी से सवाल करेगा. कभी कभी अखबारों में पढ़ते होंगे कि फलां गांव में फलां व्यक्ति निर्दल प्रधानी का चुनाव जीत गया. सच तो यह है कि वह नही जीता, उसका अपराध जीता. वह अपराधी है.कहने वालों की कमी पड़ती जा रही है.पर मैं कह रहा हूं कि वह अपराधी है.

गांव का आदमी क्या करें. वह बेचारा बन गया है. बैलेट पेपर मांगेगा तो बंदूक की बुलेट मिलेगी. व्यवस्था ऐसी की पुलिस को रक्षा करनी है सामान्य आदमी की पर करती है अपराधियों की.

गांव तो छोड़िए बनारस के प्रधानमंत्री के क्षेत्र से बृजेश सिंह जैसा आदमी निर्दलएमएलसी बनता है. यह तो सत्य है कि बृजेश सिंह वेद के रचयिता तो है नहीं,है तो अपराधी ही.उस अपराधी के खिलाफ जब भाजपा ही नामंकन नहीं करती तो आम आदमी कहां से सोंचे.

सनद रहे प्रधानमंत्री स्वयं मतदाता होते है. भले उन्होंने मत का प्रयोग नहीं  किया.चल चरित्र,चिंतन और चेहरा का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा. कोरोना की कहर ने भारत की तमाम तरह की सरकारों के रवैय्ये को तार तार कर दिया. पर सरकारों में आस्था रखने वालों ने भी अपनी अपनी सरकारों से सवाल नही किया. यही भारतीय लोकतंत्र की मौत है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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