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'हिंदुत्व' का इतिहास बंगाल से शुरू होता है, सावरकर तो बाद में आए

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 16 सितम्बर, 2021 03:44 PM
  • 16 सितम्बर, 2021 03:04 PM
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भारत में 'हिंदुत्व' (Hindutva) की विचारधारा को वीर सावरकर (Veer Savarkar) से जोड़ा जाता रहा है. सावरकर के नाम पर देश के तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों द्वारा अलग-अलग तरह के तथ्य और तर्क गढ़े जाते रहे हैं. आजादी से पहले के भारत में मुस्लिम लीग (Muslim League) की स्थापना के 6 साल बाद 1915 में वीर सावरकर ने हिंदू महासभा के नाम से एक राष्ट्रवादी संगठन की स्थापना की थी.

भारत में 'हिंदुत्व' (Hindutva) की विचारधारा को वीर सावरकर (Veer Savarkar) से जोड़ा जाता रहा है. सावरकर के नाम पर देश के तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों द्वारा अलग-अलग तरह के तथ्य और तर्क गढ़े जाते रहे हैं. आजादी से पहले के भारत में मुस्लिम लीग (Muslim League) की स्थापना के 6 साल बाद 1915 में वीर सावरकर ने हिंदू महासभा के नाम से एक राष्ट्रवादी संगठन की स्थापना की थी. वीर सावरकर को हिंदुत्व की विचारधारा का जनक कहा जाता है. लेकिन, देश के इतिहास से जुड़े पन्नों में झांकने पर तस्वीर पूरी तरह से बदली हुई नजर आती है. इतिहास के पन्नों में हिंदुत्व की विचारधारा की जड़ें बंगाल (Bengal) से जुड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं. इन जड़ों पर बारीक नजर डालने पर पता चलता है कि सावरकर के होश संभालने से पहले ही बंगाल ने हिंदुत्व की विरासत को सहेजने का प्रण ले लिया था. हिंदुत्व, भारत माता, वंदे मातरम जैसे शब्दों को पश्चिम बंगाल की धरती पर ही मूर्त रूप दिया गया था. कहना गलत नहीं होगा कि सावरकर तो बाद में आए, हिंदुत्व का इतिहास पश्चिम बंगाल से शुरू होता है.

वैसे, पूरी दुनिया में अगर कोई ये दावा करे कि उसे इतिहास (History) का पूरा ज्ञान है, तो शायद उसका ये दावा गलत ही होगा. दरअसल, इतिहास एक ऐसा जटिल विषय है, जिसे कभी खत्म नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, इतिहास केवल एक देश, एक समूह, एक वर्ग, एक जाति, एक धर्म या ऐसे ही अन्य चीजों का नहीं होता है. इतिहास के विषय में एक शब्द भी अपने आप में एक पूरा इतिहास छिपाए होता है. कहना गलत नहीं होगा कि इतिहास की जटिलता को देखते हुए ही बहुत कम लोग इसे अपने करियर के तौर पर चुनना पसंद करते हैं. खैर, इतिहास शब्द पर चर्चा से वापस हिंदुत्व पर आते हैं.

बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में मुस्लिम सत्ता के खिलाफ एक...

भारत में 'हिंदुत्व' (Hindutva) की विचारधारा को वीर सावरकर (Veer Savarkar) से जोड़ा जाता रहा है. सावरकर के नाम पर देश के तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों द्वारा अलग-अलग तरह के तथ्य और तर्क गढ़े जाते रहे हैं. आजादी से पहले के भारत में मुस्लिम लीग (Muslim League) की स्थापना के 6 साल बाद 1915 में वीर सावरकर ने हिंदू महासभा के नाम से एक राष्ट्रवादी संगठन की स्थापना की थी. वीर सावरकर को हिंदुत्व की विचारधारा का जनक कहा जाता है. लेकिन, देश के इतिहास से जुड़े पन्नों में झांकने पर तस्वीर पूरी तरह से बदली हुई नजर आती है. इतिहास के पन्नों में हिंदुत्व की विचारधारा की जड़ें बंगाल (Bengal) से जुड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं. इन जड़ों पर बारीक नजर डालने पर पता चलता है कि सावरकर के होश संभालने से पहले ही बंगाल ने हिंदुत्व की विरासत को सहेजने का प्रण ले लिया था. हिंदुत्व, भारत माता, वंदे मातरम जैसे शब्दों को पश्चिम बंगाल की धरती पर ही मूर्त रूप दिया गया था. कहना गलत नहीं होगा कि सावरकर तो बाद में आए, हिंदुत्व का इतिहास पश्चिम बंगाल से शुरू होता है.

वैसे, पूरी दुनिया में अगर कोई ये दावा करे कि उसे इतिहास (History) का पूरा ज्ञान है, तो शायद उसका ये दावा गलत ही होगा. दरअसल, इतिहास एक ऐसा जटिल विषय है, जिसे कभी खत्म नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, इतिहास केवल एक देश, एक समूह, एक वर्ग, एक जाति, एक धर्म या ऐसे ही अन्य चीजों का नहीं होता है. इतिहास के विषय में एक शब्द भी अपने आप में एक पूरा इतिहास छिपाए होता है. कहना गलत नहीं होगा कि इतिहास की जटिलता को देखते हुए ही बहुत कम लोग इसे अपने करियर के तौर पर चुनना पसंद करते हैं. खैर, इतिहास शब्द पर चर्चा से वापस हिंदुत्व पर आते हैं.

बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ में मुस्लिम सत्ता के खिलाफ एक हिंदू शासक और संन्यासियों द्व्रारा युद्ध छेड़ने की कहानी लिखी.

शुरुआत भारतीय पुनर्जागरण से

एक शब्‍द में कहें तो हिंदुओं के सामाजिक सुधार को लेकर अठारहवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध से जो समुद्र-मंथन शुरू हुआ, उत्‍तरार्ध में चलकर उसी से हिंदुत्व का जन्‍म हुआ. कहानी शुरू होती है बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग के पश्चिमी शिक्षा और संस्‍कृति के संपर्क में आने से. और शुरू होता है हिंदू समाज में व्‍याप्त कुरीतियों को दूर करने का महाभियान. जिसे इतिहास भारतीय पुनर्जागरण या हिंदू पुनर्जागरण का नाम भी देता है. इस अभियान के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक कहे जाने वाले राजा राममोहन राय (Ram Mohan Roy) 1828 में ब्रह्म समाज की स्‍थापना करते हैं. अंधविश्‍वास, जातिवाद और सतीप्रथा जैसी रवायतों पर सख्‍त ऐतराज शुरू होता है. महिला शिक्षा और विधवा विवाह के लिए वकालत शुरू होती है. लेकिन, इसी के साथ-साथ मूर्ति पूजा, धर्म ग्रंथों और अवतारों का विरोध भी शुरू होता है. अब तक जो हिंदू समाज विविध मान्‍यताओं, और रीति-रिवाजों का पालन करता चला आ रहा था, उसे एक धारा की ओर मोड़ने की कोशिश हुई. इसी कालखंड में बंगाल के प्रसिद्ध टैगौर परिवार के देवेंद्रनाथ टैगोर (रवींद्रनाथ टैगोर के पिता) भी 1942 में ब्रह्म समाज से जुड़ गए. उनके ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद कई राज्यों में इसकी शाखाएं फैली थीं.

'भारत माता' से शुरू हुआ राष्‍ट्रवाद, फिर हिंदू राष्‍ट्रवाद

पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति और शिक्षा का बढ़ता प्रभाव बंगाल के हिंदुओं को हीनभावना से भरने लगा. हिंदू सभ्‍यता और संस्‍कारों पर लगातार उठते सवालों ने 'हिंदुत्व' की रक्षा की विचारधारा का सूत्रपात राष्‍ट्रवाद से शुरू हुआ. सबसे पहले भारत वर्ष को एक 'मां' की संज्ञा मिली. 1860 में उन्नीसवां पुराण नामक की एक बंगाली पुस्तक में भारत को पहली बार माता के रूप में स्थापित किया गया. देवेंद्रनाथ टैगोर ने 1867 में हिंदू मेला का आयोजन किया. इस मेले के उद्घाटन कार्यक्रम की शुरूआत भारत माता के गीत से हुई थी. वहीं, 1870 के दशक में बंकिम चंद्र चटर्जी (Bankim Chandra Chatterjee) ने 'वंदे मातरम' गीत लिखकर लोगों में राष्ट्र प्रेम की भावना को और मजबूत किया. उनका उपन्यास आनंद मठ में एंटी-मुस्लि‍म विचारों के चलते चर्चित हुआ. 1882 में बंकिम चंद्र चटर्जी ने राष्ट्र धर्म की भावना को ऊपर रखते हुए मुस्लिम शासकों (Muslim) के इतिहास को मानने से इनकार कर दिया था. बंगदर्शन में प्रकाशित इस लिखे में बंकिम चंद्र लिखते हैं, 'मेरे विचार से अंग्रेजी की किसी किताब में बंगाल का सही इतिहास नहीं लिखा है. इन किताबों में इधर-उधर की बातों हैं, जिसमें मुस्लिम शासकों के जन्म, मृत्यु और उनकी पारिवारि‍क कलह के अलावा कुछ नहीं है. 'बंगाल का बादशाह' या 'बंगाल का सुबेदार' जैसी निरर्थक उपाधियों वाले इन मुस्लिम शासकोंं के जिक्र को बंगाल का इतिहास नहीं माना जा सकता. इनका बंगाल के इतिहास से कोई लेना-देना ही नहीं है. जो बंगाली इसे बंगाल के इतिहास के रूप में स्वीकार करता है, मैं उसे बंगाली नहीं मानता. मुस्लिम शासकों के इस वर्णन को बिना सवाल के जस का तस अपना लेने वाले कथित बुद्ध‍िजीवी, जो हिंदुओं से नफरत करते हैं, उन्‍हें मैं बंगाली नहीं मानता.' 

इसी लेख में बंकिम चंद्र ने बंगालियों का आह्वान किया कि वे पीढ़ी दर पीढी सुनाई जानी वाली कहानियों में बंगाल का अतीत ढूंढे. जिसे विश्‍वसनीय माना जाए. यहां बंगाली से बंकिम चंद्र का आशय बंगाली हिंदुओं से था. 

हिंदू राष्‍ट्रवाद, हिंदुत्‍व और बंग-भंग

1892 में चंद्रनाथ बसु की किताब- 'हिंदुत्व', प्रकाशित हुई. हिंदुत्व शब्‍द का संभावित सबसे पहला प्रचलित उपयोग इसी किताब में हुआ. यह किताब हिंदुओं को जागृत करने के उद्देश्‍य से लिखी गई थी. हिंदू जागरण के अभियान की शुरुआत तो विलायती शिक्षा और संस्‍कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे उसने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हिंदू राष्ट्रवाद की शक्‍ल ले ली. उसकी मूल भावना ये थी कि हिंदू कमतर नहीं हैं, और उन्‍हें दबाया नहीं जा सकता. और इस तरह से बंगाल में हिंदुओं के ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू हुआ. जिसमें ब्रिटिश हुकूमत ने मु‍स्लिम ध्रुवीकरण की संभावना टटोली. और आगे चलकर 1905 में बंगाल का हिंदू-मुस्लि‍म आबादी के लिहाज से विभाजन कर दिया. बंगाल में हिंदुत्व के नाम पर लोगों को इकट्ठा करने वाले लोगों की संख्या बहुत बढ़ गई थी. इस दौरान बने संगठनों में मुस्लिमों के एंट्री पर बैन था. जून 1909 के दौरान भारतीय चिकित्सा सेवा के अधिकारी यूएन मुखर्जी द्वारा लिखे गए 'हिंदू: ए डाइंग रेस' पत्रों की एक पूरी श्रृंखला एक समाचार पत्र में छपी. इन पत्रों में बताया गया था कि कैसे मुस्लिम शासकों के देशों पर कब्जा करने से वहां के नागरिकों पर खतरा बढ़ा. मुखर्जी ने अपने पत्रों में हिंदुओं को इस खतरे से आगाह करते हुए इससे बचने के लिए प्रभावी कदम उठाने की बात कही थी. 

माना जाता है कि हिंदुत्व शब्द का प्रतिपादन वीर सावरकर ने एक किताब के माध्यम से किया था.

और फिर बाद में आए सावरकर...

तो अब आइए, रुख करते हैं विनायक दामोदर सावरकर का. वर्तमान राजनीतिक विर्मश में जिन्‍हें 'हिंदुत्व' का जनक कहा जाता है. ये ख्‍याल रहे कि जब 1892 में चंद्रनाथ बसु की किताब हिंदुत्व प्रकाशित हुई थी, तब सावरकर नौ वर्ष के थे. और शायद नासिक में कहीं खेल-कूद रहे होंगे. माना जाता है कि हिंदुत्व शब्द का प्रतिपादन वीर सावरकर ने एक किताब के माध्यम से किया था. जबकि 1909 में सावरकर ने कई ब्रिटिश लाइब्रेरी में साक्ष्य जुटाकर 1857 के पहले स्‍वतंत्रता संग्राम पर किताब लिखी. जिसके छपने पर अंग्रेजों ने बैन लगा दिया. अब तक 1857 संग्राम को सैन्य विरोध के रूप में ही जाहिर किया गया था, जबकि सावरकर ने इसे भारतीय नजरिये से लिखा. किताब में स्वतंत्रता संग्राम सेना‍नियों के शौर्य, उत्‍साह का उल्‍लेख था, साथ ही उनको मिले धोखे का भी. यदि आस्था के लिहाज से देखें तो सावरकर नास्तिक थे. लेकिन, सामुदायिक रूप से वे हिंदुओं की एकता के पक्षधर थे. जो कि जातिवाद से परे हो. उनकी गतिविधि‍यां और संगठनात्‍मक अभियान पहले ब्रिटिश राज के विरोध से शुरू होते हैं, जो आगे चलकर इस्लामिक कट्टरपंथ के विरुद्ध केंद्रित हो जाते हैं. उनके विचारों को राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर काफी मान्‍यता मिली है. यही वजह है कि आज हिंदुत्व को सावरकर से जोड़कर विपक्षी दल सत्ताधारी पार्टी बीजेपी का विरोध करती है.    

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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