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कहानी: सदियों पुरानी अयोध्या नामक सांस्कृतिक चेतना क्यों अचेतन हो गई?

    • कौशलेंद्र प्रताप सिंह
    • Updated: 03 नवम्बर, 2022 06:23 PM
  • 03 नवम्बर, 2022 06:21 PM
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जिस शहर में बुर्जुआ से ज्यादा बेरोजगार चलते मिलेंगे. जो कभी नहीं जानते कि यह सड़क सत्य के साथ शुरू होती है. वह सत्य अयोध्या है. सिर्फ़ और सिर्फ अयोध्या.

सड़क के सेवक के वजूद की अज़मत को समेटने के बारे में सोच ही रहा था कि वस्त्र नहीं विचार और फ़टे जूते में सेवक को बोलते हुए सुना. क्या खूब बोल रहे थे. परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों अगर मकसद जमाने को ज़ुल्म से मुक्ति दिलाने के लिए मेरे जूते सड़को पर चलने से नहीं घिसे हैं. वे भारतीय समाज जो जड़ हो गया था, उसमें चेतन हो, चैतन्यता हो, वह चैत्यन्ता को समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचाने  के लिए राह पड़े पत्थरों पर ठोकर मारने से फटा है. सुन ही रहा था कि मन मे सवाल उठा कि इस सेवक का स्वरूप कैसा होगा, उसके अस्तित्व में क्या है, वह कब उगा, कहां तक जाएगा,उस सेवक के प्रकाश से कितना अंधेरा कटा. उस सेवक को जानने और समझने के लिए अयोध्या की सड़कों पर चलना शुरू किया. चलते चलते जमीन में दबे पत्थर मिले. मानो कह रहे हों कि हमारा उद्धार कब होगा. सदियों पुरानी यह सांस्कृतिक चेतना क्यो अचेतन हो गई ?

माना जाता है कि सत्य का मार्ग अगर कहीं है तो वो सिर्फ अयोध्या है

इन तमाम उधेड़बुन में लगा था कि सामने एक चुड़िहारा की दुकान दिखी और उनका साक्षात्कार करने उनकी दुकान पर पहुंचा.जो शक्ल से इंसान थे और धर्म से इस्लाम थे. पेशे से सुंदर कलाईयों पर शीशे की चूड़ियां चढ़ाते थे और उस चूड़ियों से निकली राम की सुंदर संगीत सुनते ही नहीं कहते थे कि राम शास्वत सत्य है. जो सत्ता की दहलीज पर कैद कर लिए गए हैं. उनकी मुक्ति ही इस मुल्क की बेहतरी है.

यही भारत का स्वाभिमान होना चाहिए पर सदियां गुजर गई, वे मजार ही रह गए. मुल्क में तमाम लोग हैं जो उनके नाम पर मन्नते तो मांगते हैं. पर उनकी मुक्ति के लिए किसी से भी मिन्नते नहीं करते.इतना कहते कहते उनके आंखों में आंसुओं का जो सैलाब दिखा वह मां  सरयू के बहाव का विस्तार था. उस बहाव में मैं भी बहने लगा. बहते बहते उनसे पूछा कि रास्ता क्या है?

इस्लाम मे आस्था के वावजूद उन्होंने कहा कि इस बहाव में बहुत भटकाव है. भटक तो कांग्रेस गयी. कांग्रेस के भटकाव पर बहुत कुरेदने का प्रयास किया पर वे बोलने से बचने लगे. बहुत ज़िद किया तो सिर्फ इतना ही कहा कि रामराज्य ही सत्ता की आदर्श अवस्था है. जिसे गांधी लेके चले पर दुःख होता है. जब देखता हूं कि गांधी की कांग्रेस उससे दूर होती चली गयी. अचानक एक गाने की गुनगुनाहट उनके मुख से तानसेन के भाव मे अवतरित हुई. वह बोल थे कि मोर पिया मुझसे बोलत नाही.

हमने उनसे पूछा कि इस गाने से उक्त बातों का क्या संदर्भ है. इस्लामी इंसान ने कहा कि पुरकौन  की सज़ा पीढियां भोग रही है.उस भोग और भटकाव से सिर्फ सेवक ही मुक्ति दिला सकता है.जो हिमालय से ऊंचा है. समुद्र से गहरा है और गंगा से पवित्र है. हमने उनसे पूछा कि आपका सेवक कहां मिलेंगे?कहां रहते हैं?क्या करते हैं?

उन्होंने कहा कि वे रहते है गरीबो के चौराहे पर, मिलेंगे बस अड्डे पर.मैंने कौतूहल बस पूछा कि बाबा गरीबों का घर होता है पर चौराहा तो पहली बार सुना.उन्होंने उत्तर दिया कि उस चौराहे पर जितनी सड़के मिलती है. वहां उनका अंत होता है.उस अंत मे एक नई शुरुआत होती है जो सबको किसी न किसी मंजिल व मुकाम पर पहुंचाती है.

जहां बुर्जुआ से ज्यादा बेरोजगार चलते मिलेंगे जो कभी नहीं जानते कि यह सड़क सत्य के साथ शुरू होती है. वह सत्य अयोध्या है.वह सत्य सर्वव्यापी राम है. सर्वव्यापी राम को हमारा सेवक ही जनता है. जिसके पास वस्त्र नही है पर विचार का सागर है. गरीबों का घर है. पुनः पूछा कि बस अड्डे पर क्यों मिलते हैं?

बाबा ने कहा कि अयोध्या का सेवक आइंस्टीन की गति है. ऊर्जा है. जो बसों में बैठकर अपने को नष्ट कर रही है. मेरा सेवक कहता है कि स्थिर रहो. स्थिरता ही प्रज्ञा है. तुम सब राम के लिए स्थिर हो जाओ. वहां वे सालों से जग रहे हैं. सबको जगा रहे हैं. उस जगाने के क्रम में सत्ता से भी राम की मुक्ति के लिए हस्ताक्षर करवाते हैं. उन्हें सेवक के साथ साथ अयोध्या की सुरक्षा ही नहीं  अयोध्या की संस्कृति है. अयोध्या के आचरण है. जो हम सभी के लिए अनुकरणीय है.न ऊधो का लेना न माधो को देना उनका मन्त्र है. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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