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असम से उत्तराखंड तक कांग्रेस में बगावती वेव, राहुल गांधी की वैक्सीन फेल!

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 23 दिसम्बर, 2021 09:24 PM
  • 23 दिसम्बर, 2021 09:21 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) हिंदुत्व की बहस के बूते फिर से कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश में भूल रहे हैं कि एक एक करके सभी राज्यों में पार्टी (Congress in States) आकाश की जगह पाताल का रुख कर चुकी है - और हरीश रावत (Harish Rawat) के लेटेस्ट अलर्ट में भी यही मैसेज है.

राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कांग्रेस को 2024 के आम चुनाव के हिसाब से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. जयपुर से अमेठी तक हिंदुत्व पर उनके भाषण में तेवर तो ऐसा ही नजर आ रहा है - लेकिन हालत ये हो रही है कि मोदी-शाह, संघ और बीजेपी को टारगेट करने के चक्कर में वो भूल जा रहे हैं कि कांग्रेस राज्यों में धीरे धीरे खत्म होने की राह पर बढ़ती जा रही है.

ले देकर उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा की तूफानी सक्रियता कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण हो सकती है. राज्यों में कांग्रेस की स्थिति के लिए अपवाद भी हो सकती है. ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस का नाम लेने वाला कहीं बचा रहेगा तो वो यूपी ही बचेगा. वरना, राहुल गांधी तो जंग के मैदान में ऐसे योद्धा के तौर पर लड़ाई लड़ रहे हैं जो दुश्मन पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है, लेकिन भूल जा रहा है कि उसका अपना इलाका ही हाथ से फिसलता जा रहा है.

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (Harish Rawat) के लेटेस्ट अलर्ट में भी राहुल गांधी के लिए यही मैसेज है. हिंदुत्व को हथियार बना कर बीजेपी को काउंटर करने की कोशिश में लगे राहुल गांधी को हरीश रावत ने भी बीजेपी की ही कॉपी करने की सलाह दी है, लेकिन अलग तरीके से. हरीश रावत का सुझाव है कि राष्ट्रीय स्तर पर जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस को पहले राज्यों में बीजेपी को हराना होगा.

ट्विटर पर तो हरीश रावत ने गोलमोल तरीके से अपनी भड़ास निकालने की कोशिश की है, लेकिन एक अन्य मौके पर बीजेपी उदाहरण दिया है. हरीश रावत का कहना है कि जैसे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साथ अपने क्षेत्रीय और स्थानीय नेताओं को मजबूत किया, कांग्रेस को भी वही रास्ता अख्तियार करना चाहिये. हरीश रावत कहते हैं, 'हमें भी यही तकनीक अपनानी होगी, जिससे राहुल गांधी 2024 में प्रधानमंत्री बन सकें.'

गुस्से में इंसान अक्सर सही और गलत में फर्क करना भूल जाता है. हो सकता है हरीश रावत की सलाहियत भी राहुल गांधी को ऐसी ही लगे, लेकिन राज्यों में एक...

राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कांग्रेस को 2024 के आम चुनाव के हिसाब से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. जयपुर से अमेठी तक हिंदुत्व पर उनके भाषण में तेवर तो ऐसा ही नजर आ रहा है - लेकिन हालत ये हो रही है कि मोदी-शाह, संघ और बीजेपी को टारगेट करने के चक्कर में वो भूल जा रहे हैं कि कांग्रेस राज्यों में धीरे धीरे खत्म होने की राह पर बढ़ती जा रही है.

ले देकर उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा की तूफानी सक्रियता कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण हो सकती है. राज्यों में कांग्रेस की स्थिति के लिए अपवाद भी हो सकती है. ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस का नाम लेने वाला कहीं बचा रहेगा तो वो यूपी ही बचेगा. वरना, राहुल गांधी तो जंग के मैदान में ऐसे योद्धा के तौर पर लड़ाई लड़ रहे हैं जो दुश्मन पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है, लेकिन भूल जा रहा है कि उसका अपना इलाका ही हाथ से फिसलता जा रहा है.

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (Harish Rawat) के लेटेस्ट अलर्ट में भी राहुल गांधी के लिए यही मैसेज है. हिंदुत्व को हथियार बना कर बीजेपी को काउंटर करने की कोशिश में लगे राहुल गांधी को हरीश रावत ने भी बीजेपी की ही कॉपी करने की सलाह दी है, लेकिन अलग तरीके से. हरीश रावत का सुझाव है कि राष्ट्रीय स्तर पर जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस को पहले राज्यों में बीजेपी को हराना होगा.

ट्विटर पर तो हरीश रावत ने गोलमोल तरीके से अपनी भड़ास निकालने की कोशिश की है, लेकिन एक अन्य मौके पर बीजेपी उदाहरण दिया है. हरीश रावत का कहना है कि जैसे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साथ अपने क्षेत्रीय और स्थानीय नेताओं को मजबूत किया, कांग्रेस को भी वही रास्ता अख्तियार करना चाहिये. हरीश रावत कहते हैं, 'हमें भी यही तकनीक अपनानी होगी, जिससे राहुल गांधी 2024 में प्रधानमंत्री बन सकें.'

गुस्से में इंसान अक्सर सही और गलत में फर्क करना भूल जाता है. हो सकता है हरीश रावत की सलाहियत भी राहुल गांधी को ऐसी ही लगे, लेकिन राज्यों में एक के बाद एक जो स्थिति कांग्रेस (Congress in States) की नजर आ रही है, हरीश रावत कहीं से भी गलत नहीं लगते. चूंकि हरीश रावत भी ऐसे मामलों में एक पार्टी बन जाते हैं, लिहाजा उनकी पैरवी कमजोर समझी जा सकती है.

जो सलाह कांग्रेस के लिए हर राज्य में काम की और व्यापक हो सकती है, उसका दायरा उत्तराखंड और हरीश रावत तक सिमट कर रह जाती है. तभी तो हरीश रावत पर पहला जोरदार हमला कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बोला है - और फिर एक ट्वीट कांग्रेस में G-23 के सदस्य मनीष तिवारी की तरफ से भी किया गया है.

कैप्टन और मनीष तिवारी दोनों का ही निशाना मिलता जुलता है. वो राज्यों में कांग्रेस के प्रभारी महासचिवों के रोल पर भी सवाल उठा रहा है - क्या राहुल गांधी को ऐसी बातें समझ में आ रही हैं? और क्या कोई उनके आस पास ऐसा भी है जो ये सब न्यूट्रल होकर समझा सके?

स्थिति तनावपूर्ण भी और कंट्रोल के बाहर भी है

मेघालय जैसी तो नहीं, लेकिन पंजाब और जम्मू-कश्मीर के बाद उत्तराखंड में भी अब कांग्रेस की स्थिति एक जैसी हो चली है. हरीश रावत ने कैप्टन अमरिंदर सिंह और अशोक गहलोत की तरह अपने विरोधी नेता का नाम नहीं लिया है - बस नुमाइंदा बताया है. ये बताना भी काफी है.

उत्तराखंड में ये नुमाइंदा कोई और नहीं कांग्रेस के प्रभारी महासचिव देवेंद्र यादव हैं. देवेंद्र यादव की भी उत्तराखंड में वही भूमिका है जो पंजाब में हरीश रावत की हुआ करती थी. हरीश रावत के प्रभारी रहते कांग्रेस पंजाब में बहुत बड़े संकट से गुजरी और सबसे बड़ा नुकसान भी उठाना पड़ा.

एक दौर में जैसी आग असम कांग्रेस में लगी थी, देश भर में वैसा ही धुआं उठ रहा है - मुश्किल ये है कि राहुल गांधी को नजर आये तब तो!

अब तो पंजाब लोक कांग्रेस के नेता बन चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी तरफ से उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को अपना रोल मॉडल मान लेने की सलाह दे रहे हैं. कह रहे हैं कि अगर कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो तो उनकी तरह वो भी आगे बढ़ सकते हैं - 'जो बोएंगे, वही काटेंगे. आपको भविष्य की कोशिशों के लिए शुभकामनाएं (अगर हैं तो).'

बहरहाल, हरीश रावत के बागी रुख और स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने उनके साथ साथ उत्तराखंड विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रीतम सिंह को कांग्रेस आला कमान ने दिल्ली तलब किया है. दोनों नेताओं के राजनीतिक रिश्ते को वैसे ही समझ सकते हैं जैसा पंजाब में पहले कैप्टन और सिद्धू का रहा या फिर जम्मू कश्मीर में आजाद और गुलाम अहमद मीर का है.

दिल्ली तलब किये जाने का कोई मतलब नहीं रहा: हरीश रावत और प्रीतम सिंह की ही तरह अक्टूबर, 2021 में मेघालय से पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा और प्रदेश कांग्रेस प्रमुख विंसेंट एच पाला को दिल्ली तलब किया गया था. दोनों ही नेताओं की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात भी हुई थी. मुलाकात में दोनों को समझा-बुझा कर वापस भेज दिया गया. गांधी परिवार ने मान लिया कि डांट-डपट के बाद दोनों मान गये और शांत हो जाएंगे - और तब तक ये गलतफहमी बनी रही जब तक कि शिलॉन्ग से ब्रेकिंग न्यूज नहीं आ गयी.

दरअसल, मुकुल संगमा और विन्सेंट एच पाला एक दूसरे को ठीक वैसे ही नहीं बर्दाश्त कर पा रहे थे जैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू - और कालांतर में गुलाम नबी आजाद और जम्मू-कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर.

कुछ दिन बाद ही मेघालय कांग्रेस में अंदरूनी कलह का नतीजा सामने आ गया जब मुकुल संगमा ने ज्यादातर विधायकों के साथ गांधी परिवार की जगह ममता बनर्जी को नेता मान लिया - और बाद में उनको मेघालय में टीएमसी विधानमंडल दल का नेता बना दिया गया.

प्रियंका गांधी वाड्रा के कारण यूपी अपवाद बना हुआ है और बिहार में अभी कन्हैया कुमार को पूरे फॉर्म में उतारा भी नहीं गया कि हलचल शुरू हो गयी. चूंकि बिहार कांग्रेस की कोई अपनी हैसियत नहीं है, लिहाजा उसका सीधा असर पर गठबंधन पर पड़ा और लालू यादव थोड़ी देर के लिए लाल-पीले होने लगे थे.

हर सूबे की एक ही कहानी: पंजाब की ही तरह पहले राजस्थान कांग्रेस और हाल फिलहाल जम्मू-कश्मीर में भी गंभीर स्थिति देखने को मिली है. उत्तराखंड में अभी एक छोटी सी झलक दिखी है दो आने वाले दिनों में पंजाब जैसी स्थिति में तब्दील हो जाने की तरफ ही इशारे कर रही है.

राजस्थान कांग्रेस को तो पेनकिलर दे दिया गया है. 2022 के विधानसभा चुनाव खत्म होने तक सचिन पायलट पश्चिम यूपी में उलझे रहेंगे. छत्तीसगढ़ का मामला होल्ड पर हो गया है क्योंकि भूपेश बघेल राहुल गांधी को बस्तर घूमने का न्योता देकर प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ यूपी की राजनीति में दिलचस्पी दिखाते हुए महत्वपूर्ण मौकों पर हाजिरी भी लगाने लगे हैं. लखीमपुर खीरी के रास्ते में धरना और बनारस में रैली के मंच से प्रियंका गांधी वाड्रा को चेहरा बता देने का असर भी हो सकता है.

मेघालय की ही तरह ममता बनर्जी ने हरियाणा संकट से भी राहुल गांधी को उबार दिया है. कभी राहुल गांधी के ही चहेते रहे अशोक तंवर अब तृणमूल कांग्रेस के नेता बन चुके हैं. 2014 से 2019 तक अशोक तंवर का हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यकाल कैसा रहा सबने देखा ही. झगड़ा भी खत्म तभी हुआ जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हाथ में कांग्रेस का ज्यादातर कंट्रोल मिला.

मध्य प्रदेश में ऐसे ही झगड़े के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था और पंजाब में चुनावों से पहले ही ऐसे इंतजाम कर दिये गये लगते हैं. हाल तो महाराष्ट्र और तेलंगाना का भी कोई खास अलग नहीं है - नाना पटोले को लेकर महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता बिलकुल वैसा ही महसूस करते हैं जैसा तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को लेकर. खास बात ये है कि दोनों ही संघ और बीजेपी बैकग्राउंड वाले ही नेता हैं.

G-23 नेता मनीष तिवारी भी सही कह रहे हैं असल से लेकर उत्तराखंड तक कांग्रेस की कहानी एक जैसी ही लग रही है. हर राज्य में कम से कम एक कांग्रेस नेता हिमंत बिस्वा सरमा जैसा तो है ही, राहुल गांधी वक्त रहते ये चीजें नहीं समझ सके तो धीरे धीरे भाषण की स्क्रिप्ट भी बदलती जाएगी. नौबत ये भी आ सकती है कि एक दिन ऐसा भी आये जब देश भर में हिमंत बिस्वा सरमा जैसे कई पुराने कांग्रेसी बीजेपी के मुख्यमंत्री बन कर सरकार चला रहे हों.

कांग्रेस के प्रभारी महासचिव करते क्या हैं?

कांग्रेस के पंजाब प्रभारी रहते अपनी भूमिका को लेकर हरीश रावत अपने विरोधियों के निशाने पर है - लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस में ऐसे प्रभारियों की असली भूमिका क्या होती है?

रावत अचानक आक्रामक क्यों हो गये: ऐसा लगता है कि हरीश रावत को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष होने के बावजूद अपने पर कतर दिये गये लगते हैं. राहुल गांधी की देहरादून की सभा के पोस्टर से हरीश रावत को गायब कर दिया जाना भी उनको ऐसी ही साजिश का हिस्सा लगती है.

तभी तो हरीश रावत के मीडिया सलाहकार और उत्तराखंड कांग्रेस उपाध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल उत्तराखंड कांग्रेस प्रभारी देवेंद्र यादव को बीजेपी का एजेंट बताने लगे हैं. कहते हैं, हरीश रावत कांग्रेस के सीनियर नेता हैं और उत्तराखंड का कद्दावर चेहरा... देवेंद्र यादव की मौजूदगी में राहुल गांधी की रैली से पोस्टर हटा दिये जाते हैं तो उनकी भूमिका संदेह के घेरे में आ जाती है.

हरीश रावत को लग रहा है कि अगर टिकट बंटवारे में उनकी भूमिका सीमित कर दी गयी तो वो अपने समर्थकों को टिकट नहीं दिला पाएंगे. जब टिकट ही नहीं दिला पाएंगे तो पार्टी पर दबदबा अपनेआप कम हो जाएगा - और आगे चल कर कांग्रेस के चुनाव जीतने की स्थिति में अगर समर्थक ही नहीं रहे तो विधायक दल का नेता बनना भी मुश्किल हो जाएगा. 2002 से 2012 तक हरीश रावत आलाकमान का हस्तक्षेप झेल चुके हैं. एक बार नारायण दत्त तिवारी तो दूसरी बार विजय बहुगुणा को सीएम की कुर्सी पर बिठा दिया गया. अब एक बार फिर ऐसे ही मौके की उम्मीद कर रहे हरीश रावत पहले से ही सतर्क हो गये हैं.

पीसी चाको और हरीश रावत में फर्क है: हरीश रावत की ही तरह कुछ दिन पहले जम्मू-कश्मीर कांग्रेस प्रभारी रजनी पटेल की भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े किये जा रहे थे - और राजस्थान प्रभारी अजय माकन की अशोक गहलोत के आगे बेबसी भी सबने देखी ही है.

दिल्ली कांग्रेस के प्रभारी रहे पीसी चाको की भूमिका तो कुख्यात ही रही है. 2019 के आम चुनाव से पहले जब शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, करीब करीब रोज ही प्रभारी महासचिव पीसी चाको के साथ उनकी तकरार की खबरें आती रहीं. छोटे छोटे फैसलों के लिए शीला दीक्षित को कड़े संघर्ष करने पड़ते थे क्योंकि मौका मिलते ही पीसी चाको दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष के फैसलों पर अपनी कलम चला देते रहे.

अब इससे अजीब बात क्या होगी कि शीला दीक्षित के बेटे और दिल्ली कांग्रेस के नेता संदीप दीक्षित ने पीसी चाको को अपनी मां की मौत के लिए जिम्मेदारी बता डाला था. संदीप दीक्षित का सीधा इल्जाम रहा, 'पीसी चाको ने प्रताड़ित नहीं किया होता तो मां जिंदा होतीं.'

अब जबकि पंजाब में कांग्रेस के नुकसान के लिए निशाने पर हरीश रावत आ चुके है, सवाल है कि क्या वास्तव में उनकी ऐसी ही भूमिका रही होगी?

हरीश रावत को कैप्टन अमरिंदर सिंह की नसीहत उनके हिसाब से सही हो सकती है - और हरीश रावत के हिसाब से वो गलत भी हो सकती है. ऐसे मामलों में अपना अपना पक्ष और नजरिया अलग हो जाता है. कोई तीसरा पक्ष ही सही तस्वीर देख और दिखा सकता है.

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भले ही अपनी भड़ास निकाली हो, लेकिन पंजाब के मामले में हरीश रावत की भूमिका क्या एक मैसेंजर से ज्यादा रही होगी?

अगर राजस्थान से बीते दिनों आयी खबरों के हिसाब से देखें तो मालूम होता है कि अशोक गहलोत उनकी कॉल रिसीव ही नहीं करते थे. सब कुछ जानते समझते हुए भी गांधी परिवार अजय माकन के जरिये ही गहलोत को मैसेज भिजवाता रहा.

जैसे पंजाब की उठापटक के बीच सोनिया गांधी से इतर राहुल और प्रियंका को नये हाई कमान के तौर पर देखा गया है, राज्यों के नेता प्रभारी महासचिवों को भी वैसी ही कमान के तौर पर लेते रहे हैं - और एक तरीके से आलाकमान दबदबा कायम रखने के लिए ये सब करता रहता है, लेकिन ये प्रयोग काफी दिनों से बैकफायर भी करने लगा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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