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फर्क कहां - गोरखपुर महोत्सव में मासूमों की चीख की गूंज है, तो सैफई में दंगों के जख्म

    • आईचौक
    • Updated: 11 जनवरी, 2018 07:24 PM
  • 11 जनवरी, 2018 07:24 PM
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गोरखपुर महोत्सव और सैफई महोत्सव में ऊपर से तो कोई खास फर्क नजर नहीं आता. योगी भी गोरखपुर महोत्सव वैसे ही आयोजित कर रहे हैं जैसे सत्ता में रहते समाजवादी पार्टी सैफई में कराया करती रही.

सैफई की तर्ज पर गोरखपुर महोत्सव की चर्चा ज्यादा है, लेकिन अलीगढ़ महोत्सव पर लोगों का कम ही ध्यान गया है. इसे नाम दिया गया है - अलीगढ़ महोत्सव 2018. इसके चर्चा में न होने की वजह पहली तो ये है कि ये सैफई और गोरखपुर की तरह वीआईपी फेस्टिवल तो है नहीं. दूसरे, ये कोई नया का खास महोत्सव नहीं, बल्कि हर साल होने वाले राजकीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी का बदला हुआ नाम है. बात बस इतनी है कि नये नाम से पहली बार प्रदर्शनी का आयोजन हो रहा है.

गोरखपुर महोत्सव को लेकर यूपी की योगी सरकार विपक्ष के निशाने पर है. विपक्षी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बीआरडी अस्पताल में बच्चों की मौत को मुद्दा बनाकर गोरखपुर महोत्सव के आयोजन पर सवाल उठाया है. इस सरकारी आयोजन का बजट ₹ 35 लाख का है.

किसका महोत्सव, किसके लिए?

योगी सरकार का गोरखपुर महोत्सव भी विपक्ष के निशाने पर वैसे ही है जैसे कभी सैफई महोत्सव रहा. जो लोग तब के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर सवाल उठा रहे थे, वे ही अब उन्हीं अखिलेश के सवालों के घेरे में हैं. कुर्सी पर योगी आदित्यनाथ बैठे हैं लिहाजा निशाने पर भी तो वही होंगे.

बस तू-तू मैं-मैं - और क्या!

देखें तो आयोजन पर सवाल उठाकर अखिलेश यादव ने या तो विपक्षी होने का धर्म निभाया है या फिर बदले का मौका नहीं गंवाया है. सैफई महोत्सव पर भी पैसों की बर्बादी और दंगों के दर्द से कराहते परिवारों की दुहाई देकर विपक्ष शोर मचाता था - और अब गोरखपुर अस्पताल में 64 बच्चों की मौत का मामला उठाया जा रहा है.

सवाल ये है कि दोनों ही महोत्सव आम लोगों के लिए भला क्या मायने रखते हैं? आखिर ये महज सत्ता पक्ष के राजनीतिक रसूख और गुजरे जमाने के राजसी ठाठ की नुमाइश भर ही तो है.

वही नाच वही गाना - फिर बदला...

सैफई की तर्ज पर गोरखपुर महोत्सव की चर्चा ज्यादा है, लेकिन अलीगढ़ महोत्सव पर लोगों का कम ही ध्यान गया है. इसे नाम दिया गया है - अलीगढ़ महोत्सव 2018. इसके चर्चा में न होने की वजह पहली तो ये है कि ये सैफई और गोरखपुर की तरह वीआईपी फेस्टिवल तो है नहीं. दूसरे, ये कोई नया का खास महोत्सव नहीं, बल्कि हर साल होने वाले राजकीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी का बदला हुआ नाम है. बात बस इतनी है कि नये नाम से पहली बार प्रदर्शनी का आयोजन हो रहा है.

गोरखपुर महोत्सव को लेकर यूपी की योगी सरकार विपक्ष के निशाने पर है. विपक्षी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बीआरडी अस्पताल में बच्चों की मौत को मुद्दा बनाकर गोरखपुर महोत्सव के आयोजन पर सवाल उठाया है. इस सरकारी आयोजन का बजट ₹ 35 लाख का है.

किसका महोत्सव, किसके लिए?

योगी सरकार का गोरखपुर महोत्सव भी विपक्ष के निशाने पर वैसे ही है जैसे कभी सैफई महोत्सव रहा. जो लोग तब के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर सवाल उठा रहे थे, वे ही अब उन्हीं अखिलेश के सवालों के घेरे में हैं. कुर्सी पर योगी आदित्यनाथ बैठे हैं लिहाजा निशाने पर भी तो वही होंगे.

बस तू-तू मैं-मैं - और क्या!

देखें तो आयोजन पर सवाल उठाकर अखिलेश यादव ने या तो विपक्षी होने का धर्म निभाया है या फिर बदले का मौका नहीं गंवाया है. सैफई महोत्सव पर भी पैसों की बर्बादी और दंगों के दर्द से कराहते परिवारों की दुहाई देकर विपक्ष शोर मचाता था - और अब गोरखपुर अस्पताल में 64 बच्चों की मौत का मामला उठाया जा रहा है.

सवाल ये है कि दोनों ही महोत्सव आम लोगों के लिए भला क्या मायने रखते हैं? आखिर ये महज सत्ता पक्ष के राजनीतिक रसूख और गुजरे जमाने के राजसी ठाठ की नुमाइश भर ही तो है.

वही नाच वही गाना - फिर बदला क्या है?

अखिलेश यादव जितना जोर देकर अब सवाल उठा रहे हैं वैसा तेवर तो तब भी नहीं दिखा जब बीआरडी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत हुई थी - और पूरी योगी सरकार उसे आखिर तक नकारती रही. अखिलेश यादव ने कहा - 'हम जानना चाहते हैं कि सरकार ने गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौत के बाद से क्या किया है? क्या उसने सुविधाएं मुहैया कराईं?'

बस जगह तो बदली है...

अखिलेश यादव का ये भी आरोप है कि काम के नाम पर गोरखपुर में कुछ भी नहीं हुआ, पूर्व मुख्यमंत्री की शिकायत है - मुख्यमंत्री ने अपने ही इलाके में कुछ नहीं किया और इज्जत घरों की पुताई कराने में बिजी हैं ताकि मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके.

सैफई महोत्सव हर साल दिसंबर में हुआ करता था, लेकिन न तो इस बार हुआ न उससे पहले 2016 में. हालांकि, चुनाव आचार संहिता लागू होने के नाम पर सैफई महोत्सव 2007 और 2013 में भी रद्द हो चुका है. हाल फिलहाल तो महोत्सव न होने की वजह पारिवारिक कलह और सत्ता से बाहर होने के चलते मुलायम सिंह और अखिलेश यादव का दिलचस्पी न लेना है.

अखिलेश यादव भले ही गोरखपुर महोत्सव को लेकर सवाल उठायें, लेकिन इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिये कि मुलायम सिंह का बयान वो नहीं ही भूले होंगे. सितंबर 2013 में मुजफ्फर नगर में दंगे हुए थे और उसी साल दिसंबर में सैफई में खूब नाच गाने हुए. दंगा पीड़ितों का नाम लेकर विपक्ष ने मुलायम और अखिलेश को टारगेट किया और मीडिया ने भी सवाल पूछे.

अब न वो दौर है... अब न वो...

सवालों के जवाब में मुलायम सिंह ने जो कहा वो जख्मों पर सिर्फ नमक नहीं, मिर्च मिलाकर छिड़कने जैसा ही था. तब मुलायम ने कहा था, 'शिविरों में एक भी दंगा पीड़ित नहीं है, सब लोग लौट चुके हैं. अब जो बचे हैं वे कांग्रेस और बीजेपी के लोग हैं, जो सरकार की छवि खराब करना चाहते हैं.'

असल में दंगों के बाद पीड़ितों के लिए कुछ ही दूरी पर कैंप लगाये गये थे और भारी ठंड के चलते वहां रह रहे लोगों का बुरा हाल था. लोगों की हालत को लेकर वही सवाल जब यूपी के तत्कालीन सचिव के सामने उठा तो उन्होंने भी समाजवादी राग ही सुना दिये, बस शब्द अलग थे - 'ठंड से कोई नहीं मरता. ठंड से निमोनिया हो सकता है और कोई निमोनिया से मर सकता है, लेकिन ठंड से कोई नहीं मरता. अगर लोग ठंड से मरते तो साइबेरिया में कोई जिंदा नहीं रहता.'

सैफई और गोरखपुर महोत्सव में एक फर्क ये जरूर माना जा रहा है कि पहला पारिवारिक कार्यक्रम हुआ करता था, जबकि दूसरा सरकारी प्रोग्राम है. सत्ताधारी बीजेपी की ओर से ये समझाने की कोशिश हो रही है कि सैफई से अलग गोरखपुर के कार्यक्रम में भारतीयता, राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भरमार है. गोरखपुर महोत्सव में भी ग्लैमर भरपूर है - बॉलीवुड नाइट से लेकर भोजपुरी नाइट तक. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इसका समापन करने वाले हैं.

अगर खुशी के मौके पर गमजदा होने का मतलब नहीं बनता, तो क्या कोई ये सवाल भी न पूछे कि गोरखपुर में पेमेंट ने होने के कारण ऑक्सीजन कम पड़ जाता है और बच्चों की मौत हो जाती है - और गोरखपुर महोत्सव में सैफई की तरह ही पैसा पानी की तरह बहाया जाता है. आज नहीं कल लोग तो पूछेंगे ही - और जवाबदेहों को जवाब भी देना ही होगा.

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