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किसान आंदोलन की नियति पर टिका है भाजपा का राजनीतिक भविष्य

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 05 फरवरी, 2021 06:38 PM
  • 05 फरवरी, 2021 06:38 PM
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किसान आंदोलन कर रहे संगठनों की मांग है कि मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाए और MSP के लिए गारंटी कानून बनाया जाए. मोदी सरकार इस मामले पर झुकती है, तो उसे सीधे तौर पर तीन राज्यों पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में नुकसान उठाना पड़ेगा. वहीं, अगर सरकार अपना रुख नहीं बदलती है, तो भाजपा के लिए स्थितियां पूरी तरह से बदल सकती हैं.

दिल्ली की सीमाओं पर दो महीनों से भी ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन (Farmer Protest) अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है. किसान आंदोलन को कई विदेशी नेता, अभिनेता, कलाकार, एक्टिविस्ट आदि का समर्थन मिल रहा है. हालांकि, इसे काउंटर करने के लिए विदेश मंत्रालय ने बिना मुद्दे को समझे, उस पर टिप्पणी करने से बचने की नसीहत इन लोगों को दी है. कृषि कानूनों के लागू होने के बाद आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी पर ही केंद्रित दिख रहा था. 26 जनवरी को हुई हिंसा और अन्य सिलसिलेवार घटनाक्रमों ने किसान आंदोलन का एपिसेंटर गाजीपुर बॉर्डर को बना दिया. इसके बाद कई राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन की ओर रुख कर लिया. जिसकी वजह से इन किसान आंदोलन का दायरा बढ़ता जा रहा है.

राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने के बाद किसान आंदोलन के अन्य राज्यों में फैलने और प्रभाव बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले देश के करीब 20 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. कुछ ही महीनों में पश्चिम बंगाल समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस पूरे घटनाक्रम के बाद भाजपा के लिए स्थितियां बदल सकती हैं. धीरे-धीरे ही सही लेकिन, किसान आंदोलन का असर भाजपा की राजनीति पर पड़ना तय माना जा रहा है. ऐसे में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. सीधे और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो किसान आंदोलन की नियति पर भाजपा का भविष्य टिका हुआ है.

पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुडुचेरी में कुछ महीनों के अंदर चुनाव होने हैं.

किसान आंदोलन कर रहे संगठनों की मांग है कि मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाए और MSP के लिए गारंटी कानून बनाया जाए. मोदी सरकार इस मामले पर झुकती है, तो उसे सीधे तौर पर...

दिल्ली की सीमाओं पर दो महीनों से भी ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन (Farmer Protest) अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है. किसान आंदोलन को कई विदेशी नेता, अभिनेता, कलाकार, एक्टिविस्ट आदि का समर्थन मिल रहा है. हालांकि, इसे काउंटर करने के लिए विदेश मंत्रालय ने बिना मुद्दे को समझे, उस पर टिप्पणी करने से बचने की नसीहत इन लोगों को दी है. कृषि कानूनों के लागू होने के बाद आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी पर ही केंद्रित दिख रहा था. 26 जनवरी को हुई हिंसा और अन्य सिलसिलेवार घटनाक्रमों ने किसान आंदोलन का एपिसेंटर गाजीपुर बॉर्डर को बना दिया. इसके बाद कई राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन की ओर रुख कर लिया. जिसकी वजह से इन किसान आंदोलन का दायरा बढ़ता जा रहा है.

राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने के बाद किसान आंदोलन के अन्य राज्यों में फैलने और प्रभाव बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले देश के करीब 20 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. कुछ ही महीनों में पश्चिम बंगाल समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस पूरे घटनाक्रम के बाद भाजपा के लिए स्थितियां बदल सकती हैं. धीरे-धीरे ही सही लेकिन, किसान आंदोलन का असर भाजपा की राजनीति पर पड़ना तय माना जा रहा है. ऐसे में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. सीधे और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो किसान आंदोलन की नियति पर भाजपा का भविष्य टिका हुआ है.

पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुडुचेरी में कुछ महीनों के अंदर चुनाव होने हैं.

किसान आंदोलन कर रहे संगठनों की मांग है कि मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाए और MSP के लिए गारंटी कानून बनाया जाए. मोदी सरकार इस मामले पर झुकती है, तो उसे सीधे तौर पर तीन राज्यों पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में नुकसान उठाना पड़ेगा. वहीं, अगर सरकार अपना रुख नहीं बदलती है, तो भाजपा के लिए स्थितियां पूरी तरह से बदल सकती हैं. अगर किसान आंदोलन आगे चलकर देशभर में व्यापक स्तर पर बढ़ता है, तो भाजपा के लिए आने वाले सभी चुनाव मुश्किल हो सकते हैं. भारत में हर साल किसी ना किसी राज्य के विधानसभा चुनाव होते ही हैं. पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुडुचेरी में कुछ महीनों के अंदर चुनाव होने हैं. इन राज्यों में से केवल एक राज्य असम में भाजपा की सरकार है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठबंधन से पिनारई विजयन, तमिलनाडु में एआईएडीएमके के पलानीस्वामी मुख्यमंत्री हैं. पुडुचेरी में कांग्रेस की ओर से वी नारायणसामी सीएम हैं.

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में करिश्मा करने के प्रयास में जुटी भाजपा को किसान आंदोलन की वजह से एक बड़ा झटका मिल सकता है. राज्य में ममता बनर्जी पहले से ही भाजपा को लेकर हमलावर रही हैं. किसान आंदोलन के मद्देनजर ममता बनर्जी ने भाजपा को किसान विरोधी साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन भी बंगाल में किसानों को भाजपा के खिलाफ करने की तैयारियां कर चुका है. बंगाल में अगर भाजपा विरोधी माहौल बन गया, तो पार्टी का बंगाल विजय का सपना अधूरा रह जाएगा. केरल में भाजपा के पास कोई खास जनाधार नहीं है, ऐसे में भाजपा को यहां कुछ खास नुकसान नहीं होगा. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल एक सीट पर ही जीत नसीब हुई थी. असम की बात करें, तो यहां भाजपा के सामने सत्ता में दोबारा लौटने की चुनौती है. कांग्रेस और अन्य पार्टियों के लिए किसान यहां भी एक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं. तमिलनाडु में एआईएडीएमके (AIADMK) के साथ भाजपा का गठबंधन है. राज्य में किसान आंदोलन का कुछ खास प्रभाव फिलहाल नजर नहीं आ रहा है. लेकिन, जयललिता के निधन के बाद यहां चुनावी तस्वीर बदल सकती है. तमिलना़डु में डीएमके इस गठबंधन को कड़ी टक्कर देगा. अगर इस गठबंधन के विरोध में चुनाव नतीजे आते हैं, तो इसे सत्ता विरोधी लहर भी कहा जा सकता है. पुडुचेरी (केंद्रशासित राज्य) में भाजपा का खाता इस बार भी खुलने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं.

किसान आंदोलन यूपी समेत अन्य राज्यों में भाजपा के लिए खतरे की घंटी बन सकता है.

इन राज्यों से इतर 2022 के शुरुआती महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा के चुनाव होंगे. उत्तर प्रदेश को अलग रखा जाए, तो अन्य चार राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से होगा. पंजाब में किसान आंदोलन की वजह से अकाली दल ने भाजपानीत एनडीए का साथ पहले ही छोड़ दिया है. कांग्रेस सरकार के सीएम अमरिंदर सिंह और आम आदमी पार्टी शुरुआत से ही किसानों का समर्थन करती रही हैं. अगर ये कहा जाए कि किसान आंदोलन में मुख्य रूप से पंजाब के किसान जुड़े हैं, तो गलत नहीं होगा. अकाली दल का साथ छूटने के बाद भाजपा पंजाब में अकेली नजर आ रही है. राज्य में उसे नुकसान होना लगभग तय माना जा सकता है. उत्तराखंड में मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस किसानों का खुलकर साथ दे रही है. वहीं, गोवा और मणिपुर में भी कमोबेश यही हाल है. इन राज्यों में किसानों की भूमिका उतनी बड़ी नहीं होगी, लेकिन, भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए इतना ही काफी है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की भूमिका बहुत बड़ी हो सकती है. किसान आंदोलन में प्रमुख रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान शामिल हो रहे हैं. ऐसे में इस क्षेत्र की 44 विधानसभा सीटों पर भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज रही है. जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 20 विधानसभा सीटों पर जीत की चाभी जाट मतदाताओं के हाथ में है. यूपी में एक बड़ी आबादी गांव और किसानी से जुड़ी है. ऐसे में अगर किसान आंदोलन का नतीजा सानों के पक्ष में नहीं आया, तो सूबे की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन देखने की उम्मीद की जा सकती है.

गुजरात में भाजपा की सीटें बीते दो चुनाव में लगातार कम हुई हैं.

2022 के अंतिम महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. यहां भी भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से होना है. 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को 99 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं, 2012 में भाजपा ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी. गुजरात में भाजपा की सीटें बीते दो चुनाव में लगातार कम हुई हैं. किसान आंदोलन का मामला गुजरात की राजनीति में भी बड़ा असर डाल सकता है. भाजपा का सर्वाधिक प्रिय राज्य गुजरात इस बार पार्टी के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है. हिमाचल प्रदेश की बात करें, तो यहां के मतदाता 1985 के बाद से ही हर विधानसभा चुनाव में सरकार बदल देते हैं. राज्य में वर्तमान भाजपा सरकार के सामने मतदाताओं के इस ट्रेंड को बदलने की चुनौती तो होगी ही. साथ ही किसान आंदोलन का नतीजा भी यहां के नतीजों को बदल सकता है.

2023 के चुनावी मौसम की शुरुआत पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा से होगी. कुछ ही महीनों के अंतराल पर कर्नाटक में चुनाव होंगे. दिसंबर 2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में चुनाव होने हैं. इन राज्यों के चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले का सेमीफाइनल मैच कहा जा सकता है. अगर इन राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा, तो 2024 के आम चुनाव की राह भाजपा के लिए कठिन हो सकती है. ऐसे में माना जा सकता है कि सत्ता के इस क्रिकेट मैच में किसान आंदोलन 'थर्ड अंपायर' की भूमिका निभाएगा. बाहर बैठकर भी राजनीति के इस खेल को पूरी तरह से नियंत्रित करने वाला रिमोट किसान आंदोलन के पास है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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