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पीएम मोदी को सत्ता से हटाने तक किसान आंदोलन का बस नाम ही बदलेगा!

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 22 नवम्बर, 2021 07:39 PM
  • 22 नवम्बर, 2021 07:11 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने देश की जनता से माफी मांगते हुए कृषि कानूनों (Repeal Farm Laws) को वापस ले लिया था. लेकिन, एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा (Samyukta Kisan Morcha) ने इसे 'एकतरफा घोषणा' बताते हुए 6 मांगों के साथ किसान आंदोलन को जारी रखने का फैसला किया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु पर्व पर देश की जनता से माफी मांगते हुए कृषि कानूनों को वापस ले लिया था. पीएम मोदी ने किसानों से अपने घर-परिवार-खेत के पास लौटने के साथ एक नई शुरुआत करने की अपील की थी. किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने पीएम नरेंद्र मोदी के इस फैसले का स्वागत किया है. लेकिन, एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह इसे 'एकतरफा घोषणा' बताते हुए 6 मांगों के साथ किसान आंदोलन को जारी रखने का फैसला किया है. संयुक्त किसान मोर्चा ने 22 नवंबर को लखनऊ में किसान पंचायत, 26 नवंबर को सभी सीमाओं पर सभा और 29 नवंबर को संसद तक मार्च की रणनीति तैयार कर रखी है. कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन कानून वापसी के बाद भी जारी रहेगा. वैसे, इस बात की संभावना पहले से ही जताई जा रही थी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो पीएम नरेंद्र मोदी के इस्तीफे तक किसान आंदोलन का बस नाम बदलेगा.

किसान आंदोलन को पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ चुनावी हथियार बनाने की तैयारी है.

किसान आंदोलन तो बहाना, मोदी की छवि है निशाना

कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी जारी किसान आंदोलन से एक बात तो तय हो जाती है कि ये प्रदर्शन आगे भी जारी रहने वाला है. क्योंकि, संयुक्त किसान मोर्चा ने स्पष्ट कर दिया है कि वे एमएसपी को लेकर गारंटी कानून समेत 6 अन्य मांगों के साथ किसान आंदोलन करते रहेंगे. आंदोलन के शुरुआती समय में किसान आंदोलन को मोदी सरकार के विरोध में विपक्षी राजनीतिक दलों का भरपूर सहयोग मिला था. जैसे ही किसान आंदोलन के मंचों पर नजर आने वाले सियासी चेहरों की वजह से लोगों के बीच ये संदेश जाने लगा कि ये प्रदर्शन सियासी है. संयुक्त किसान मोर्चा ने नेताओं के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया. लेकिन, पश्चिम बंगाल से लेकर हर चुनावी राज्य में किसानों के बीच पंचायत करने का सिलसिला जारी रहा. वहीं, हर अराजकता पार करने वाली घटना के साथ संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े किसान संगठनों ने अर्बन नक्सल से लेकर खालिस्तान समर्थकों की उपस्थिति को भी बहुत ही चतुराई के साथ मैनेज...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु पर्व पर देश की जनता से माफी मांगते हुए कृषि कानूनों को वापस ले लिया था. पीएम मोदी ने किसानों से अपने घर-परिवार-खेत के पास लौटने के साथ एक नई शुरुआत करने की अपील की थी. किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने पीएम नरेंद्र मोदी के इस फैसले का स्वागत किया है. लेकिन, एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह इसे 'एकतरफा घोषणा' बताते हुए 6 मांगों के साथ किसान आंदोलन को जारी रखने का फैसला किया है. संयुक्त किसान मोर्चा ने 22 नवंबर को लखनऊ में किसान पंचायत, 26 नवंबर को सभी सीमाओं पर सभा और 29 नवंबर को संसद तक मार्च की रणनीति तैयार कर रखी है. कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन कानून वापसी के बाद भी जारी रहेगा. वैसे, इस बात की संभावना पहले से ही जताई जा रही थी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो पीएम नरेंद्र मोदी के इस्तीफे तक किसान आंदोलन का बस नाम बदलेगा.

किसान आंदोलन को पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ चुनावी हथियार बनाने की तैयारी है.

किसान आंदोलन तो बहाना, मोदी की छवि है निशाना

कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी जारी किसान आंदोलन से एक बात तो तय हो जाती है कि ये प्रदर्शन आगे भी जारी रहने वाला है. क्योंकि, संयुक्त किसान मोर्चा ने स्पष्ट कर दिया है कि वे एमएसपी को लेकर गारंटी कानून समेत 6 अन्य मांगों के साथ किसान आंदोलन करते रहेंगे. आंदोलन के शुरुआती समय में किसान आंदोलन को मोदी सरकार के विरोध में विपक्षी राजनीतिक दलों का भरपूर सहयोग मिला था. जैसे ही किसान आंदोलन के मंचों पर नजर आने वाले सियासी चेहरों की वजह से लोगों के बीच ये संदेश जाने लगा कि ये प्रदर्शन सियासी है. संयुक्त किसान मोर्चा ने नेताओं के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया. लेकिन, पश्चिम बंगाल से लेकर हर चुनावी राज्य में किसानों के बीच पंचायत करने का सिलसिला जारी रहा. वहीं, हर अराजकता पार करने वाली घटना के साथ संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े किसान संगठनों ने अर्बन नक्सल से लेकर खालिस्तान समर्थकों की उपस्थिति को भी बहुत ही चतुराई के साथ मैनेज कर लिया.

वैसे तो कृषि कानूनों के खत्म होने के साथ ही किसान आंदोलन खत्म हो जाना चाहिए था. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है इस संयुक्त किसान मोर्चा में जुड़े किसान संगठनों की अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं. यही कारण है कि अब किसान मोर्चा एमएसपी के गारंटी कानून पर अड़ गया है, जिसे आजादी के बाद से आजतक कोई सरकार लाने के बारे में सोच भी नहीं सकी है. किसानों के आगे एक बार झुक चुकी मोदी सरकार को एमएसपी गारंटी कानून के जरिये अब पूरी तरह से अपने सियासी जाल में फंसाने की कवायद शुरू कर दी गई है. दरअसल, एमएसपी पर गारंटी कानून बनाने पर केंद्र सरकार को अपने कुल बजट का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा एमएसपी पर खर्च करना होगा. और, ये पूरा पैसा पंजाब और हरियाणा के 6 फीसदी किसानों की ही जेब में जाएगा. क्योंकि, शांता कुमार कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, एमएसपी का लाभ देश के 94 फीसदी किसानों को कभी मिला ही नहीं है. इस स्थिति में एमएसपी कानून आना नहीं है और किसान आंदोलन खत्म होना नहीं है.

राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन समय-समय पर अपना रूप बदलेगा. इसके मंचों से सीएए, एनआरसी, धारा 370 जैसे मुद्दों की मांग भी होने लगेगी. क्योंकि, 2024 से पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इन तमाम मुद्दों पर किसान आंदोलन के जरिये मोदी सरकार को घेर कर सीधे पीएम मोदी की छवि को नुकसान पहुंचाकर विपक्ष को फायदा पहुंचाने की कोशिश की जाएगी. क्योंकि, शाहीन बाग में प्रदर्शन करने वाले लोगों से लेकर सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने वाली संस्थाओं का सहयोग भी किसान आंदोलन को मिलता रहा है. दरअसल, पीएम मोदी के इस फैसले से उन प्रवृत्तिओं को बल मिला है, जो मानती हैं कि अगर दिल्ली की सड़कों को लंबे समय तक जाम रखा जाए, तो कृषि कानूनों की तरह ही अन्य कानूनों की भी वापसी संभव हो सकती है.

संयुक्त किसान मोर्चा ने किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाने वालों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेने की शर्त रखी है. अगर मोदी सरकार इन लोगों के खिलाफ मामले वापस लेती है, तो अपने आप ही सीएए और धारा 370 के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों की ओर से उन पर लगाए गए मुकदमों के वापसी की मांग को लेकर फिर से प्रदर्शन की संभावना बढ़ जाएगी. किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत की बातों से ये स्थिति और स्पष्ट हो जाती है. राकेश टिकैत संविदा पर नौकरी करने वाले से लेकर पुलिस वालों की सैलरी तक की बात करते दिख जाते हैं. इन तमाम लोगों का किसान आंदोलन को समर्थन हो या ना हो, लेकिन माहौल ऐसा तैयार किया जा रहा है कि पूरा देश इनके साथ खड़ा है.

किसान आंदोलन में सीएए और धारा 370 की आवाजें भी जुड़ जाएंगी.

विपक्ष और कथित बुद्धिजीवी वर्ग के पास सुनहरा मौका

वैसे भी राजनीतिक हितों को साधने के लिए विपक्ष के पास इससे अच्छा सियासी मौका शायद ही कोई दूसरा हो सकता है. यही वजह है कि अब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अबदुल्ला से लेकर पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती मोदी सरकार से धारा 370 पर को रद्द करने की मांग कर रही हैं. इतना ही नहीं, लोगों को भड़काने का कोई मौका हाथ से निकल ना जाए. एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी मोदी सरकार के एनपीआर और एनआरसी पर कानून बनाने पर दूसरा शाहीन बाग खड़ा करने की चेतावनी भी जारी कर दी है. समाजवादी पार्टी की ओर से चुनाव बाद फिर से कानूनों को वापस लाने का अंदेशा जताया गया है. इन सबके बीच कृषि कानूनों की वापसी के बाद अब 'किसान-मजदूर एकता' के नारे बुलंद होने लगे हैं. किसान आंदोलन को समर्थन देने वाले मजदूर संगठन अब लेबर लॉ, राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में विनिवेश के खिलाफ किसानों से अपने मुद्दों को उठाने की मांग कर रहे हैं.

वहीं, किसान आंदोलन का समर्थक कथित बुद्धिजीवी वर्ग भी सोशल मीडिया से लेकर तमाम माध्यमों के जरिये लोगों के बीच भ्रम की स्थिति फैलाने में जुटे हुए हैं. अराजकता के सबसे बढ़िया उदाहरण को ये बुद्धिजीवी वर्ग महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' के तौर पर पेश कर रहा है. इनके द्वारा लोगों को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है. इनका कहना है कि किसानों के आंदोलन की वजह से कृषि कानून रद्द हुए. मुस्लिम और लिबरल्स के प्रदर्शनों की वजह से अब तक सीएए का नोटिफिकेशन जारी नहीं हुआ. इतना ही नहीं, ये बुद्धिजीवी वर्ग मोदी सरकार और भाजपा को ही असली एंटी-नेशनल साबित करने में जुट गए हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो आने वाला समय मोदी सरकार के लिए बहुत मुश्किल भरा होने वाला है. क्योंकि, सरकार विरोधी कुछ हजार लोग सड़कों को घेर कर प्रदर्शन करेंगे, सालभर अराजकता फैलाते रहेंगे. अंत में दबाव में आकर सरकार को कानून वापस लेना ही पड़ेगा. अलग-अलग कानूनों और चीजों के खिलाफ ये सब पीएम नरेंद्र मोदी के इस्तीफे तक चलता ही रहेगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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