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बेगूसराय में बीजेपी को जिताने और विपक्ष को हराने के लिए खड़ी है सीपीआई

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 10 अप्रिल, 2019 02:49 PM
  • 10 अप्रिल, 2019 12:42 AM
offline
ज़मीनी गणित में अपनी इसी कमज़ोर स्थिति के चलते सीपीआई के समर्थक इस बार सबसे अधिक भ्रम मुस्लिम मतदाताओं के बीच फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, जिनके वोट बेगूसराय में भूमिहारों के बाद सबसे अधिक हैं.

बेगूसराय लोकसभा सीट पर 2014 की स्थिति इस प्रकार थी-

(1) बीजेपी उम्मीदवार भोला सिंह - 4,28,227 वोट (39.71%)

(2) आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन - 3,69,892 वोट (34.30%)

(3) सीपीआई उम्मीदवार राजेंद्र सिंह - 1,92,639 वोट (17.86%)

यानी 2014 में आरजेडी उम्मीदवार बीजेपी उम्मीदवार से केवल 58,335 वोट पीछे रहे. इस बात के बावजूद कि

(1) 2014 में प्रचंड मोदी लहर चल रही थी.

(2) आरजेडी का गठबंधन इस बार जितना मज़बूत नहीं था. उसमें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी शामिल नहीं थी.

(3) बीजेपी उम्मीदवार भोला सिंह स्थानीय उम्मीदवार थे और इलाके में उनकी अच्छी लोकप्रियता थी.

2014 में सीपीआई उम्मीदवार बीजेपी से 2,35,588 वोट पीछे थे. इस बात के बावजूद कि

(1) 2014 में सीपीआई उम्मीदवार को नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड का समर्थन प्राप्त था, जबकि इस बार जेडीयू बीजेपी के साथ एनडीए गठबंधन का हिस्सा है.

(2) सीपीआई उम्मीदवार राजेंद्र सिंह की छवि साफ-सुथरी थी और वे विधायक भी रह चुके थे.

(3) सीपीआई-विरोधियों के मन में भी सीपीआई उम्मीदवार के ख़िलाफ़ नकारात्मकता नहीं थी.

यानी अगर विपक्षी एकता के तकाजे से देखें, तो इस बार बेगूसराय लोकसभा सीट पर विपक्ष की ओर से स्वाभाविक रूप से आरजेडी की दावेदारी बनती थी और मोदी और बीजेपी विरोध का ढोल पीटने वाली और विपक्षी एकता का दम भरने वाली तमाम पार्टियों को चाहिए था कि वह इस सीट पर आरजेडी उम्मीदवार के साथ खड़ी होतीं. लेकिन सीपीआई ने वस्तुस्थिति और ज़मीनी सच्चाई को दरकिनार करते हुए अपने स्वार्थ को तरजीह दी.

बेगूसराय लोकसभा सीट पर 2014 की स्थिति इस प्रकार थी-

(1) बीजेपी उम्मीदवार भोला सिंह - 4,28,227 वोट (39.71%)

(2) आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन - 3,69,892 वोट (34.30%)

(3) सीपीआई उम्मीदवार राजेंद्र सिंह - 1,92,639 वोट (17.86%)

यानी 2014 में आरजेडी उम्मीदवार बीजेपी उम्मीदवार से केवल 58,335 वोट पीछे रहे. इस बात के बावजूद कि

(1) 2014 में प्रचंड मोदी लहर चल रही थी.

(2) आरजेडी का गठबंधन इस बार जितना मज़बूत नहीं था. उसमें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी शामिल नहीं थी.

(3) बीजेपी उम्मीदवार भोला सिंह स्थानीय उम्मीदवार थे और इलाके में उनकी अच्छी लोकप्रियता थी.

2014 में सीपीआई उम्मीदवार बीजेपी से 2,35,588 वोट पीछे थे. इस बात के बावजूद कि

(1) 2014 में सीपीआई उम्मीदवार को नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड का समर्थन प्राप्त था, जबकि इस बार जेडीयू बीजेपी के साथ एनडीए गठबंधन का हिस्सा है.

(2) सीपीआई उम्मीदवार राजेंद्र सिंह की छवि साफ-सुथरी थी और वे विधायक भी रह चुके थे.

(3) सीपीआई-विरोधियों के मन में भी सीपीआई उम्मीदवार के ख़िलाफ़ नकारात्मकता नहीं थी.

यानी अगर विपक्षी एकता के तकाजे से देखें, तो इस बार बेगूसराय लोकसभा सीट पर विपक्ष की ओर से स्वाभाविक रूप से आरजेडी की दावेदारी बनती थी और मोदी और बीजेपी विरोध का ढोल पीटने वाली और विपक्षी एकता का दम भरने वाली तमाम पार्टियों को चाहिए था कि वह इस सीट पर आरजेडी उम्मीदवार के साथ खड़ी होतीं. लेकिन सीपीआई ने वस्तुस्थिति और ज़मीनी सच्चाई को दरकिनार करते हुए अपने स्वार्थ को तरजीह दी.

कन्हैया कुमार बेगूसराय से सीपीआई के उम्मीदवार हैं

इसके बावजूद देश भर में ऐसा नैरेटिव बनाया गया कि पिछले चुनाव में सारी अनुकूलताओं के बावजूद बीजेपी से 2,35,588 वोटों के विशाल अंतर से पीछे रह जाने वाली पार्टी के लिए सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद केवल 58,335 वोटों से पीछे रही पार्टी को सीट खाली कर देनी चाहिए थी और उसके एक ऐसे उम्मीदवार का समर्थन कर देना चाहिए, जो देशद्रोह के संगीन आरोपों और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट के कारण पहले ही अंडरट्रायल स्टेटस रखता है.

मेरे आकलन के अनुसार, बेगूसराय में सीपीआई को इस बार 2014 की तुलना में भी काफी कम वोट आएंगे, क्योंकि

(1) इस बार उसे जेडीयू का समर्थन प्राप्त नहीं है. नीतीश कुमार के कारण उनके स्वजातीय कुर्मी मतदाताओं ने पिछली बार सीपीआई को एकमुश्त वोट दिया था. ध्यान रहे कि बेगूसराय में कुर्मी समुदाय के करीब डेढ़ लाख मतदाता हैं. अगर इनमें से केवल 60 प्रतिशत लोगों ने भी मतदान किया होगा, तो इस समुदाय के करीब 90 हज़ार लोगों ने वोट डाले थे. इनमें भी अगर केवल 75-80 प्रतिशत लोगों ने सीपीआई को वोट दिए होंगे, तो उनके कुल 1,92,639 वोटों में करीब 70 हज़ार वोट इन्हीं के थे. यानी कुर्मी वोटों को घटा दें तो 2014 के पैमाने पर सीपीआई की ज़मीनी संभावना इस समय महज 1,25,000 वोटों के आसपास बनती है.

(2) पूरे देश में वामपंथी दलों का आधार सिकुड़ता जा रहा है और बीजेपी-आरएसएस के एग्रेसिव कैंपेन के चलते पिछले पांच साल में इसमें और तेज़ गिरावट आई है. इसका सबूत आप चुनाव परिणामों के दिन पश्चिम बंगाल और केरल जैसे उनके मज़बूत गढ़ से भी देख पाएंगे. इसलिए पिछले पांच सालों में वामपंथी दलों के जनाधार में अगर मोटा-मोटी 5 प्रतिशत की गिरावट मान लें, तो इस बार बेगूसराय में सीपीआई के वोट करीब 10,000 और कम हो जाएंगे. यानी करीब 1,15,000 के आसपास.

(3) सीपीआई उम्मीदवार के ख़िलाफ़ देशद्रोह का आरोप होने के कारण ऐसे अनेक भूमिहार मतदाता इस बार सीपीआई से कट गए हैं, जिन्होंने पिछली बार उसे वोट दिए थे. वहीं मोदी सरकार द्वारा फंसाए जाने के प्रचार को सही मानकर कुछ युवा भूमिहार मतदाता उससे जुड़े भी हैं. इस माइनस और प्लस के कारण इस बार भी बेगूसराय में सीपीआई को भूमिहारों के करीब-करीब उतने वोट मिल जाएंगे, जितने पिछली बार मिले थे. लेकिन जो लोग अधिक की उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे या तो ख्याली-पुलाव पका रहे हैं या जनता को भरमाने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में बेगूसराय और बिहार के बहुतायत भूमिहार बीजेपी और एनडीए को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाले.

(4) ज़मीनी गणित में अपनी इसी कमज़ोर स्थिति के चलते सीपीआई के समर्थक इस बार सबसे अधिक भ्रम मुस्लिम मतदाताओं के बीच फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, जिनके वोट बेगूसराय में भूमिहारों के बाद सबसे अधिक हैं. करीब ढाई लाख के आसपास. उन्हें बताया जा रहा है कि सीपीआई उम्मीदवार संसद में पहुंचेंगे, तो मोदी के खिलाफ गरजेंगे. सवाल है कि क्या मुस्लिम मतदाता इस दलील में आकर अपने समुदाय के एक ऐसे लोकप्रिय और साफ-सुथरी छवि के नेता का साथ छोड़ पाएंगे, जो बीजेपी से मुख्य मुकाबले में हैं और यहां तक कि जीत हासिल करने की भी संभावना रखते हैं?

कन्हैया कुमार, गिरिराज सिंह और तनवीर हसन के बीच होगा मुकाबला

फिर भी, जो होने वाला नहीं है, अगर उसे ही मान लिया जाए कि बेगूसराय के मुस्लिम मतदाताओं में सीपीआई उम्मीदवार के प्रति लहर-सी चल पड़ती है और करीब 60 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता मतदान में हिस्सा लेते हैं और उनमें भी करीब 80 प्रतिशत मतदाता अपनी बिरादरी के आरजेडी प्रत्याशी तनवीर हसन को वोट न देकर सीपीआई उम्मीदवार को वोट दे देते हैं, तो भी करीब 1,20,000 मुस्लिमों के ही वोट उनके पक्ष में आते हैं और इस सूरत में भी उनके वोट केवल 2,35,000 तक ही पहुंचते हैं, जो बीजेपी द्वारा 2014 में हासिल किए गए वोटों से करीब दो लाख कम है.

यह भी दीगर है कि बेगूसराय में सीपीआई की उम्मीदें मुख्यतः भूमिहार और मुसलमान मतदाताओं से ही हैं, क्योंकि अन्य जातियों के वोट पहले से तय हैं और उनके वोटों में सेंधमारी करने की क्षमता उसमें नहीं है. मसलन, यादव वोट मुख्य रूप से आरजेडी को ही जाएंगे. कुर्मी वोट नीतीश के कारण मुख्यतः एनडीए यानी बीजेपी को ही जाएंगे. कुशवाहा वोट या तो नीतीश के चलते एनडीए को जाएंगे या उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन में होने के चलते आरजेडी उम्मीदवार को जाएंगे. पासवान वोट रामविलास पासवान के चलते एनडीए को जाएंगे. मुसहर वोट जीतन राम मांझी के महागठबंधन में होने के चलते आरजेडी उम्मीदवार को जाएंगे.

मल्लाहों के वोट सन ऑफ मल्लाह मुकेश साहनी के महागठंबधन में होने के चलते आरजेडी उम्मीदवार को जाएंगे.

यानी दिल्ली के मीडिया और बुद्धिजीवियों में चाहे जो भी प्रचार चल रहा हो, लेकिन सच यह है कि बेगूसराय में सीपीआई उम्मीदवार इस बार

(1) वोटकटवा के तौर पर उतारे गए हैं. तमाम अनुकूलताओं के बावजूद वह तृतीय स्थान की ही शोभा बढ़ाएंगे.

(2) आरजेडी प्रत्याशी तनवीर हसन को हराने के लिए उतारे गए हैं, क्योंकि वे बीजेपी के नहीं, बल्कि आरजेडी उम्मीदवार का ही वोट काटेंगे.

(3) बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह को जिताने के लिए उतारे गए हैं, क्योंकि विरोधी वोटों के बंटवारे से बीजेपी प्रत्याशी के जीतने की संभावना काफी बढ़ गई है.

अब सोचिए कि ‘क्रांतिकारी’ सीपीआई उम्मीदवार भारत को बीजेपी से आज़ादी दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं या विपक्ष से आज़ादी दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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