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मुग़ल राज खत्म करने वाले अंग्रेजों ने क्यों बनवाया था मुग़ल गार्डन, जानिए बागों की परंपरा को...

    • सुशोभित सक्तावत
    • Updated: 30 जनवरी, 2023 06:17 PM
  • 30 जनवरी, 2023 06:14 PM
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1911 में फिरंगियों ने रायसीना हिल पर आलीशान वाइसरॉय हाउस बनाया, जो अब राष्ट्रपति भवन कहलाता है. तत्कालीन वाइसरॉय हार्डिंग साहब की मेमसाब को गार्डन-आर्किटेक्चर का बड़ा शौक़ था. यह लेडी हार्डिंग का ही प्रभाव था कि लुटियन्स साहब ने वाइसरॉय हाउस के गार्डन को चारबाग़ शैली में बनाने का फ़ैसला लिया और उसे नाम दिया- 'मुग़ल गार्डन'. क्योंकि वह मुग़ल शैली का बाग़ था.

दिल्ली के मुग़ल गार्डन का निर्माण मुग़लों ने नहीं ब्रिटिशों ने करवाया था. ब्रिटिशों को मुग़लों से कोई विशेष-प्रेम नहीं था. वास्तव में मुग़लों के साम्राज्य का ख़ात्मा ही फिरंगियों के हाथों हुआ था. लेकिन गार्डन के इस नामकरण का कारण इसकी चारबाग़ शैली है. यह प्रसिद्ध मुग़ल-उद्यान-शैली है. जैसे दक्षिण भारतीय मंदिरों की गोपुरम् शैली होती है. टेम्पल-आर्किटेक्चर का ही वह नाम है. उसका नाम बदल दें तब भी शैली तो वही रहेगी. 1911 में फिरंगियों को सूझा कि राजधानी कलकत्ते के बजाय दिल्ली होनी चाहिए. लुटियन्स साहब ने नई दिल्ली का नक़्शा खींचा. रायसीना हिल पर उन्होंने आलीशान वाइसरॉय हाउस बनवाया, जो अब राष्ट्रपति भवन कहलाता है. यानी स्वयं भारत के राष्ट्रपति का भवन ही भारतीयों के द्वारा निर्मित नहीं है, नाम ज़रूर उसका अब वाइसरॉय हाउस नहीं है. तत्कालीन वाइसरॉय हार्डिंग साहब की मेमसाब को गार्डन-आर्किटेक्चर का बड़ा शौक़ था. उसी ज़माने में कॉन्सटैंस विलियर्स-स्टुअर्ट की किताब 'गार्डन्स ऑफ़ द ग्रेट मुग़ल्स' छपकर आई थी और अनुसंधान-प्रेमी अंग्रेज़ों द्वारा बड़े चाव से पढ़ी जा रही थी. ओरियंटल कलारूपों में वो लोग गहरी दिलचस्पी लेते थे. तिस पर लेडी हार्डिंग कश्मीर के निशात बाग़ और शालीमार बाग़ को बहुत पसंद करती थीं. यह लेडी हार्डिंग का ही प्रभाव था कि लुटियन्स साहब ने वाइसरॉय हाउस के गार्डन को चारबाग़ शैली में बनाने का फ़ैसला लिया और उसे नाम दिया- 'मुग़ल गार्डन'. क्योंकि वह मुग़ल शैली का बाग़ था.

सरकार का मुग़ल गार्डन का नाम बदलना भर था इस फैसले का विरोध होना शुरू हो गया है

साल 2018-19 में दिल्ली विकास प्राधिकरण ने मुझे एक काम सौंपा था. वसंत विहार स्थित डिस्ट्रिक्ट पार्क के लिए सूचना-पट्‌ट लिखने का. वह गार्डन फ़िरोज़शाह तुग़लक के द्वारा बनवाया गया था और उसमें एक लोदी...

दिल्ली के मुग़ल गार्डन का निर्माण मुग़लों ने नहीं ब्रिटिशों ने करवाया था. ब्रिटिशों को मुग़लों से कोई विशेष-प्रेम नहीं था. वास्तव में मुग़लों के साम्राज्य का ख़ात्मा ही फिरंगियों के हाथों हुआ था. लेकिन गार्डन के इस नामकरण का कारण इसकी चारबाग़ शैली है. यह प्रसिद्ध मुग़ल-उद्यान-शैली है. जैसे दक्षिण भारतीय मंदिरों की गोपुरम् शैली होती है. टेम्पल-आर्किटेक्चर का ही वह नाम है. उसका नाम बदल दें तब भी शैली तो वही रहेगी. 1911 में फिरंगियों को सूझा कि राजधानी कलकत्ते के बजाय दिल्ली होनी चाहिए. लुटियन्स साहब ने नई दिल्ली का नक़्शा खींचा. रायसीना हिल पर उन्होंने आलीशान वाइसरॉय हाउस बनवाया, जो अब राष्ट्रपति भवन कहलाता है. यानी स्वयं भारत के राष्ट्रपति का भवन ही भारतीयों के द्वारा निर्मित नहीं है, नाम ज़रूर उसका अब वाइसरॉय हाउस नहीं है. तत्कालीन वाइसरॉय हार्डिंग साहब की मेमसाब को गार्डन-आर्किटेक्चर का बड़ा शौक़ था. उसी ज़माने में कॉन्सटैंस विलियर्स-स्टुअर्ट की किताब 'गार्डन्स ऑफ़ द ग्रेट मुग़ल्स' छपकर आई थी और अनुसंधान-प्रेमी अंग्रेज़ों द्वारा बड़े चाव से पढ़ी जा रही थी. ओरियंटल कलारूपों में वो लोग गहरी दिलचस्पी लेते थे. तिस पर लेडी हार्डिंग कश्मीर के निशात बाग़ और शालीमार बाग़ को बहुत पसंद करती थीं. यह लेडी हार्डिंग का ही प्रभाव था कि लुटियन्स साहब ने वाइसरॉय हाउस के गार्डन को चारबाग़ शैली में बनाने का फ़ैसला लिया और उसे नाम दिया- 'मुग़ल गार्डन'. क्योंकि वह मुग़ल शैली का बाग़ था.

सरकार का मुग़ल गार्डन का नाम बदलना भर था इस फैसले का विरोध होना शुरू हो गया है

साल 2018-19 में दिल्ली विकास प्राधिकरण ने मुझे एक काम सौंपा था. वसंत विहार स्थित डिस्ट्रिक्ट पार्क के लिए सूचना-पट्‌ट लिखने का. वह गार्डन फ़िरोज़शाह तुग़लक के द्वारा बनवाया गया था और उसमें एक लोदी कालीन मक़बरा था. लेकिन सूचना-पट्‌ट लिखने से पूर्व मैंने मुग़ल-शैली के बाग़ों पर थोड़ी रिसर्च की, क्योंकि मैं बताना चाहता था कि तुग़लक उद्यान मुग़लों के चारबाग़ से किस तरह से भिन्न हैं. फ़ारसी साहित्य में बाग़ों को जन्नत के लौकिक स्वरूप के रूप में वर्णित करने की परम्परा रही है.

भारत में पहला मुग़ल-बाग़ बाबर ने आगरा में बनवाया था और उसे हश्त-बहिश्त कहकर पुकारा था. बहिश्त शब्द स्वयं जन्नत का पर्याय है. सदफ़ फ़ातिमा ने अपनी किताब 'गार्डन्स इन मुग़ल इंडिया' में रेखांकित किया है कि क़ुरान में जैसे बाग़ों का ब्योरा दिया गया है, उनके प्रमुख आयाम ज्यामितीय परिपूर्णता से विभक्त जलधाराएँ, समकोण पर एक-दूसरे को काटने वाले यात्रापथ, अष्टभुजाकार ताल, फलों के कुंज और छतनार दरख़्त थे. चारबाग़ का एक और आयाम उद्यान-परिसर शैली (गार्डन-कॉम्प्लेक्स) है यानी बाग़ में ही एक भव्य इमारत, जैसे कि ताज महल और हुमायूं  का मक़बरा.

वाइसरॉय हाउस का निर्माण इसी शैली से प्रेरित होकर किया गया था. सल्तनकालीन बाग़ ख़ूबसूरती और ज्यामितीय परिपूर्णता में मुग़लकालीन चारबाग़ शैली के सामने नहीं टिकते थे, तुग़लक़ों की दिलचस्पी फलों के बाग़ और घनी शिकारगाहों में अधिक थी.फ़ारसी में बाग़ के लिए गुलिस्तां, गुलशन, चमन, बूस्तान आदि पर्याय मिलते हैं.गुलिस्तां और गुलशन शब्दों का प्रयोग मुख्यतया फूलों के बाग़ के लिए किया जाता है, तो बूस्तान शब्द का उपयोग ग्रोव या ऑर्चर्ड के अर्थों में फलों के बाग़ के लिए किया जाता है. चारबाग़ की तर्ज पर बाग़-निर्माण की एक शैली चार-चमन भी कहलाई है.

अब सरकार-बहादुर ने मुग़ल गार्डन का नाम बदला है तो कुछ सोचकर ही बदला होगा. राष्ट्रपति भवन में मुग़लों के नाम का एक बाग़ खटकता तो होगा. पर तथ्य यही है कि राष्ट्रपति भवन फिरंगियों ने बनवाया था और उसका गार्डन मुग़ल-शैली से प्रभावित है. इस तथ्य को- दुर्भाग्य से- बदला नहीं जा सकता. नाम-बदल की नई परिपाटी पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगा. पर अभी एक दिलचस्प घटना मेरे साथ घटी. मैंने पुणे की रेलयात्रा की.

रेलगाड़ी का रूट देखने के लिए जब आईआरसीटीसी के एप्प को चेक किया तो चकित रह गया. वो कह रहे थे, रेलगाड़ी फलां-फलां समय पर वीरांगना लक्ष्मीबाई (स्टेशन कोड VGLB) से चलकर नर्मदापुरम् होते हुए रानी कमलापति पहुंचेगी. मैं घबरा गया कि यह कौन-सा नया रेल-रास्ता है. बाद में पता चला कि झाँसी रेलवे जंक्शन का नाम बदलकर अब वीरांगना लक्ष्मीबाई कर दिया गया है, हबीबगंज अब रानी कमलापति है, वहीं होशंगाबाद का नामकरण नर्मदापुरम् हो गया है.

बढ़िया बात है. मुझे मिस्र के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्सान्द्रिया की याद आई. इसे ग्रीक सम्राट अलेक्सान्द्र महान ने बसाया था. वो लोग उसको वहां अल सिकन्दरिया कहते हैं. अरब लोग बड़े कट्‌टर होते हैं, पर पता नहीं अभी तक यूनानी शहंशाह को आदरांजलि देने वाले सिकन्दरिया का नाम क्यों नहीं बदल डाला.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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