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करहल में सपा को वॉकओवर देकर कांग्रेस ने भविष्य की दोस्ती की बुनियाद रखी है!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 03 फरवरी, 2022 06:21 PM
  • 03 फरवरी, 2022 06:21 PM
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विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले तक कांग्रेस के सपने आसमान पर दिख रहे थे. समाजवादी पार्टी के खिलाफ कांग्रेस बहुत आक्रामक थी. मगर अब कांग्रेस के रुख में नरमी के संकेत मिलने लगे हैं. इसके पीछे क्या वजह है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना' जैसी हैं. कहां तो प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में पार्टी को देश के सबसे बड़े राज्य में बड़े करिश्में की उम्मीद थी. लेकिन दूसरे दलों के मुकाबले पार्टी को अबतक कोई ऐसा फ़ॉर्मूला हाथ नहीं लगा दिखता जिससे माना जाए कि वो बड़ी रेस में है. चुनाव से पहले तक पार्टी के टिकट पर लड़ने की इच्छा जताने वाले दावेदारों की संख्या में अच्छी खासी बढोतरी नजर आई थी. यह कांग्रेस के लिए शुभ सगुन था. मगर चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद नई विधानसभा के लिए प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है चीजें पार्टी के प्रतिकूल हैं. अब संगठन का आत्मविश्वास हिलता दिख रहा है. शुरू-शुरू में सभी 403 सीटों पर लड़ने की घोषणा करने के बावजूद दो सीटों- करहल और जसवंतनगर पर पार्टी का यूटर्न बहस करने लायक है.

दोनों विधानसभा, हाई प्रोफाइल सीट हैं. करहल से सपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार अखिलेश यादव मैदान में हैं जबकि जसवंतनगर सीट से प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया शिवपाल यादव चुनाव लड़ रहे हैं. जसवंतनगर गठबंधन कोटे में अखिलेश ने चाचा के लिए छोड़ी है. कांग्रेस ने करहल में यादव बिरादरी से ही प्रत्याशी घोषित किया था. लेकिन उन्हें नामांकन करने से रोक दिया गया है. जसवंतनगर पर भी कोई प्रत्याशी नहीं देने की बता सामने आई है. सवाल है कि लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा के साथ-साथ सपा पर आक्रामक दिख रही कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया? कहीं ऐसा तो नहीं है कि कांग्रेस नतीजों से पहले ही मैदान छोड़कर भागने लगी है.

कांग्रेस करहल में प्रत्याशी उतारकर भी क्या कर पाती, नहीं उतारने का तो मतलब भी है

पहली बात तो ये कि कांग्रेस ने अगर यहां प्रत्याशी उतारे भी होते तो इसका अखिलेश या शिवपाल की राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता. दोनों यादव बहुल सीटें हैं और शायद ही कांग्रेस यहां सपा गठबंधन के खिलाफ परेशानी खड़ी कर पाती. वैसे कांग्रेस और सपा में एक अघोषित समझौता दिखता है. दोनों पार्टियों ने तमाम चुनावों में अलग-अलग लड़ने के...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना' जैसी हैं. कहां तो प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में पार्टी को देश के सबसे बड़े राज्य में बड़े करिश्में की उम्मीद थी. लेकिन दूसरे दलों के मुकाबले पार्टी को अबतक कोई ऐसा फ़ॉर्मूला हाथ नहीं लगा दिखता जिससे माना जाए कि वो बड़ी रेस में है. चुनाव से पहले तक पार्टी के टिकट पर लड़ने की इच्छा जताने वाले दावेदारों की संख्या में अच्छी खासी बढोतरी नजर आई थी. यह कांग्रेस के लिए शुभ सगुन था. मगर चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद नई विधानसभा के लिए प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है चीजें पार्टी के प्रतिकूल हैं. अब संगठन का आत्मविश्वास हिलता दिख रहा है. शुरू-शुरू में सभी 403 सीटों पर लड़ने की घोषणा करने के बावजूद दो सीटों- करहल और जसवंतनगर पर पार्टी का यूटर्न बहस करने लायक है.

दोनों विधानसभा, हाई प्रोफाइल सीट हैं. करहल से सपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार अखिलेश यादव मैदान में हैं जबकि जसवंतनगर सीट से प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया शिवपाल यादव चुनाव लड़ रहे हैं. जसवंतनगर गठबंधन कोटे में अखिलेश ने चाचा के लिए छोड़ी है. कांग्रेस ने करहल में यादव बिरादरी से ही प्रत्याशी घोषित किया था. लेकिन उन्हें नामांकन करने से रोक दिया गया है. जसवंतनगर पर भी कोई प्रत्याशी नहीं देने की बता सामने आई है. सवाल है कि लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा के साथ-साथ सपा पर आक्रामक दिख रही कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया? कहीं ऐसा तो नहीं है कि कांग्रेस नतीजों से पहले ही मैदान छोड़कर भागने लगी है.

कांग्रेस करहल में प्रत्याशी उतारकर भी क्या कर पाती, नहीं उतारने का तो मतलब भी है

पहली बात तो ये कि कांग्रेस ने अगर यहां प्रत्याशी उतारे भी होते तो इसका अखिलेश या शिवपाल की राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता. दोनों यादव बहुल सीटें हैं और शायद ही कांग्रेस यहां सपा गठबंधन के खिलाफ परेशानी खड़ी कर पाती. वैसे कांग्रेस और सपा में एक अघोषित समझौता दिखता है. दोनों पार्टियों ने तमाम चुनावों में अलग-अलग लड़ने के बावजूद कुछ सीटों पर एक-दूसरे को वॉकओवर देते रही हैं. कांग्रेस ने यादव परिवार और सपा ने गांधी परिवार के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारे हैं. राजनीति में बड़े उम्मीदवारों के खिलाफ इस तरह की समझ अक्सर दिखती है. लेकिन मौजूदा चुनाव में कांग्रेस का सपा को वॉकओवर देने के मतलब भी हैं. इससे जिस चीज पर सबसे बुरा असर पड़ता वह यह कि पूर्व में सहयोगी रहे दोनों पार्टियों के रिश्ते भविष्य में और खराब हो जाते.

प्रियंका गांधी-अखिलेश यादव.

गौर करें तो विधानसभा चुनाव से पाहले कांग्रेस दो मोर्चे खोले. एक तो चिर प्रतिद्वंद्वी भाजपा के खिलाफ और दूसरा- विपक्ष में पार्टी का वजूद खड़ा करने के लिए सपा पर रणनीतिक हमले किए गए. कांग्रेस में एक धड़े का मानना है कि यूपी में भाजपा के सामने दिखने के लिए सपा को किसी भी सूरत में पछाड़ना ही होगा. यही वजह है कि कांग्रेस का काडर अखिलेश को परेशान करने वाले मुद्दों को उसी तरह उठा रहा है जैसे भाजपा और बसपा नेता उठा रहे. मसलन यादव वर्चस्व को लेकर अखिलेश पर जातिवादी होने का तीखा आरोप बार-बार दोहराया जा रहा है. नागरिकता क़ानून, तीन तलाक, धारा 370 और किसान आंदोलन में सपा की भूमिका भाजपा के पक्ष में दिखाने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं.

यूपी कांग्रेस में बड़े नेताओं के बयान देखें तो वे इन चीजों को अंडरलाइन करना नहीं भूलते कि जिस वक्त अल्पसंख्यक समाज खासकर मुसलमान, तमाम कानूनों को लेकर अपनी चिंता जताते हुए आंदोलन कर रहा था, पूर्व मुख्यमंत्री घर में बैठे थे. इन पंक्तियों के लेखक से कुछ कांग्रेसियों ने इस बात का श्रेय भी लेने की कोशिश की कि कांग्रेस की वजह से ही सपा प्रमुख ने इस बार बड़े पैमाने पर सजातीय उम्मीदवारों को मैदान में उतारने से परहेज किया है. इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के आरोपों से सपा को परेशान हुई. तभी अखिलेश ने सार्वजनिक रूप से कांग्रेस पर चुनाव हराने की साजिश का आरोप लगाया.

चुनाव आगे बढ़ने के साथ ही ठंडे होता दिख रहा कांग्रेसी नेताओं का तेवर

चुनाव की घोषणा तक कांग्रेस और सपा के बीच जिस तरह की तनातनी दिख रही थी उसमें तो एक बार लगने लगा था कि शायद इस बार यादव कुनबे के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारने की परंपरा टूट जाए. मगर दोनों हाईप्रोफाइल सीटों पर प्रत्याशी हटाने से साफ़ है कि आक्रामक दिख रही कांग्रेस के तेवर चुनावी बयार के जोर पकड़ने के साथ-साथ कमजोर पड़ने लगे हैं. बॉडी लैंग्वेज तो डांवाडोल होने का संकेत है. प्रत्याशी हटाने से पहले ही एक इंटरव्यू में प्रियंका भविष्य को फोकस करते दिखीं. यह साबित करतब है कि उन्होंने चुनाव से पहले ही लगभग हार मान ली है.

न्यूज एजेंसी ANI से प्रियंका ने कहा था-  "कांग्रेस यूपी में महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए लड़ाई जारी रखेगी. उनकी पार्टी ऐसी प्रमुख पार्टी होगी जो लोगों के मुद्दों के लिए खड़ी होगी." उन्होंने यह भी कहा था- "चुनाव बाद बीजेपी के अलावा किसी भी दल के साथ गठबंधन के रास्ते हमेशा खुले रहेंगे." हालांकि इसी इंटरव्यू में उन्होंने भाजपा-सपा दोनों को एक ही सिक्के का पहलू भी बताया.

करहल और जसवंतनगर में प्रत्याशी ना देना भविष्य के लिहाज से कांग्रेस की डैमेज कंट्रोल की रणनीति मान सकते हैं. असल में कांग्रेस ने सपा के साथ दोस्ती की गुंजाइश में एक खिड़की खोल दी है. चुनाव की घोषणा से पहले तक कांग्रेस को संभावनाएं दिख रही थीं. लेकिन अब यूपी में चार ध्रुवों पर संघर्ष की बजाय भाजपा, सपा और बसपा में ही मुख्य लड़ाई नजर आ रही है. यह वो तस्वीर है जो भाजपा विरोधी अन्य दलों के प्रति कांग्रेस के रुख में नरमी लाती जाएगी. वैसे भी यूपी में कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ एक बड़े राजनीतिक सहयोगी की जरूरत निकट भविष्य में लंबे वक्त तक बनी रहेगी. यह जरूरत सपा और बसपा ही पूरी कर सकती हैं.

बसपा को बहुत निशाने पर ना लेना भी साक्ष्य है कि मार्च में विधानसभा नतीजों के बाद पंजाब में शायद कांग्रेस को मायावती के साथ की जरूरत पड़े. पंजाब में भी विधानसभा चुनाव चल रहे हैं. बसपा का अकाली दल के साथ गठबंधन है. वहां कांग्रेस, आप, बसपा-अकली और सहयोगियों के साथ भाजपा जिस तरह मैदान में है- हो सकता है कि नई सरकार में दो-चार विधायक वाले दल किंग मेकर बन जाए.

प्रियंका गांधी वाड्रा.

यूपी में कांग्रेस के लिए ख़त्म नहीं हो रही मजबूत वैशाखी की जरूरत

जहां तक बात सपा की है 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उसकी सख्त दरकार होगी. पहले भी सपा यूपीए का हिस्सा रह चुकी है. उत्तर प्रदेश में फिलहाल कांग्रेस के पांव तले कोई मजबूत जमीन नहीं दिख रही. जतिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जैसे उसके कई दिग्गज साथ छोड़ चुके हैं. 2024 में चुनाव बाद या चुनाव से पहले बिना सपा को लिए शायद ही कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ मोर्चा बना पाए. उसे वापस अखिलेश के पास ही जाना होगा. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा से गठबंधन किया था और उसे 100 सीटें मिली थीं. मगर मोदी लहर में कांग्रेस मात्र सात सीटें जीत पाई थी. इसमें भी एक विधायक ने काफी पहले ही हाथ का साथ छोड़ दिया था. जबकि सपा राज्य की अन्य सीटों पर मैदान में थी और उसके 47 विधायक चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे. समझा जा सकता है कि सपा की जीत का प्रतिशत सहयोगी दल के मुकाबले बहुत बेहतर था.

पिछले चुनाव में राहुल के नेतृत्व में उनकी पार्टी बहुत हद तक अखिलेश यादव की वैशाखी पर निर्भर थी. मौजूदा चुनाव के लक्षण साफ़ हैं कि यूपी में अभी भी कांग्रेस को एक मजबूत वैशाखी की दरकार है. कांग्रेस बैकफुट पर है. उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू समेत कई बड़े नेता भी जीत की गारंटी देते नहीं दिख रहे. ऐसे में वापसी के रास्ते खोले रखने में ही भलाई है. करहल वही रास्ता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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