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केजरीवाल को लेकर कांग्रेस का डबल स्टैंडर्ड राहुल गांधी की रणनीति है या दुविधा?

    • आईचौक
    • Updated: 09 नवम्बर, 2022 05:03 PM
  • 09 नवम्बर, 2022 05:03 PM
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जब से अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की राजनीति ने हिंदुत्व की राह पकड़ी है, राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के मन में उनके प्रति सॉफ्ट कॉर्नर साफ नजर आने लगा है - क्या वो मान कर चल रहे हैं कि बीजेपी (BJP) के खिलाफ केजरीवाल ज्यादा कारगर हथियार हैं?

गुजरात के एक बुजुर्ग नेता का बीजेपी (BJP) में चले जाना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. हालांकि, राहुल गांधी ऐसा शायद ही मानते होंगे. मुमकिन है राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की नजर में मोहन सिंह राठवा को डरपोक कैटेगरी में रख दिया गया हो.

78 साल के आदिवासी नेता मोहन सिंह राठवा अब तक सिर्फ एक बार चुनाव हारे हैं - और वो है 2002 का विधानसभा चुनाव. बाकी 10 बार वो चुनाव जीत कर विधानसभा में ही नजर आये हैं. फिलहाल वो छोटा उदयपुर से विधायक हैं.

हाल ही में मोहन सिंह राठवा ने घोषणा की थी कि वो विधानसभा चुनाव के लिए टिकट नहीं मांगेंगे क्योंकि वो युवाओं को मौका देना चाहते हैं. और बातों बातों में ये इच्छा भी जाहिर कर दी थी कि उनकी सीट से उनके बेटे राजेंद्र सिंह राठवा को उम्मीदवार बनाया जाये.

जाहिर है जब राठवा को यकीन हो गया होगा कि कांग्रेस उनकी जगह बेटे को उम्मीदवार नहीं बनाएगी तभी बीजेपी का रुख किया होगा. कहा तो ये जा रहा है कि कांग्रेस के राज्य सभा सांसद नारन राठवा ने भी उसी सीट से अपने बेटे के लिए टिकट मांगा था. हो सकता है, मोहन सिंह राठवा के अशोक गहलोत की तरफ से कोई मजबूत संकेत मिला हो. अशोक गहलोत गुजरात में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी हैं, ऐसे में राठवा के मामले में उनकी भूमिका से इनकार तो नहीं ही किया जा सकता. ये तो राठवा को भी लगा होगा कि जो अशोक गहलोत अपने बेटे को लोक सभा का टिकट दिये जाने के लिए राहुल गांधी पर लगातार दबाव बनाये रहे, वो उनके मामले में सहयोग नहीं किये.

राठवा के बीजेपी में जाने का कांग्रेस पर कैसा असर होगा, वहां के राजनीतिक समीकरणों से समझा जा सकता है. अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के आदिवासी वोटर के बीच सक्रिय होने की सबसे ज्यादा फिक्र तो बीजेपी को ही रही. कुछ बीजेपी नेता इस मामले में अरविंद...

गुजरात के एक बुजुर्ग नेता का बीजेपी (BJP) में चले जाना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. हालांकि, राहुल गांधी ऐसा शायद ही मानते होंगे. मुमकिन है राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की नजर में मोहन सिंह राठवा को डरपोक कैटेगरी में रख दिया गया हो.

78 साल के आदिवासी नेता मोहन सिंह राठवा अब तक सिर्फ एक बार चुनाव हारे हैं - और वो है 2002 का विधानसभा चुनाव. बाकी 10 बार वो चुनाव जीत कर विधानसभा में ही नजर आये हैं. फिलहाल वो छोटा उदयपुर से विधायक हैं.

हाल ही में मोहन सिंह राठवा ने घोषणा की थी कि वो विधानसभा चुनाव के लिए टिकट नहीं मांगेंगे क्योंकि वो युवाओं को मौका देना चाहते हैं. और बातों बातों में ये इच्छा भी जाहिर कर दी थी कि उनकी सीट से उनके बेटे राजेंद्र सिंह राठवा को उम्मीदवार बनाया जाये.

जाहिर है जब राठवा को यकीन हो गया होगा कि कांग्रेस उनकी जगह बेटे को उम्मीदवार नहीं बनाएगी तभी बीजेपी का रुख किया होगा. कहा तो ये जा रहा है कि कांग्रेस के राज्य सभा सांसद नारन राठवा ने भी उसी सीट से अपने बेटे के लिए टिकट मांगा था. हो सकता है, मोहन सिंह राठवा के अशोक गहलोत की तरफ से कोई मजबूत संकेत मिला हो. अशोक गहलोत गुजरात में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी हैं, ऐसे में राठवा के मामले में उनकी भूमिका से इनकार तो नहीं ही किया जा सकता. ये तो राठवा को भी लगा होगा कि जो अशोक गहलोत अपने बेटे को लोक सभा का टिकट दिये जाने के लिए राहुल गांधी पर लगातार दबाव बनाये रहे, वो उनके मामले में सहयोग नहीं किये.

राठवा के बीजेपी में जाने का कांग्रेस पर कैसा असर होगा, वहां के राजनीतिक समीकरणों से समझा जा सकता है. अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के आदिवासी वोटर के बीच सक्रिय होने की सबसे ज्यादा फिक्र तो बीजेपी को ही रही. कुछ बीजेपी नेता इस मामले में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को कांग्रेस का रिप्लेसमेंट मानते रहे हैं, लेकिन दूरगामी सोच वाले अमित शाह ऐसे नेताओं को पहले ही डांट पिला चुके हैं.

मोदी लहर में छोटा उदयपुर की लोक सभा सीट बीजेपी के कब्जे में तो रही है, लेकिन 2017 में वो संखेड़ा सीट ही जीत पायी थी. छोटा उदयपुर से तो मोहन सिंह राठवा ही जीते थे, पावी जेतपुर को भी बीजेपी कांग्रेस की झोली में जाने से नहीं रोक सकी.

राठवा के पाला बदलने का असर उनके एक बयान से समझा जा सकता है, 'कांग्रेस में मैंने लंबे समय तक काम किया, लेकिन समय काफी बलवान है.' मालूम नहीं कांग्रेस नेतृत्व को ये समझ में आया कि नहीं, कि जिन सीटों पर अरविंद केजरीवाल की नजर है, बीजेपी कैसे काबिज होने का प्रयास कर रही है.

अरविंद केजरीवाल की पंजाब की चुनावी रणनीति के हिसाब से देखें तो कांग्रेस के लिए गुजरात में इस बार बड़ा मौका है, लेकिन ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस पहले ही हथियार डाल दिया हो - और आम आदमी पार्टी के लिए खुला मैदान छोड़ रखा हो.

क्या ये बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस की कोई खास रणनीति है या फिर फैसला न ले पाने वाली दुविधा? क्या राहुल गांधी जान बूझ कर अरविंद केजरीवाल को गुजरात के मैदान में गोल पोस्ट तक पहुंचने के लिए पास दे रहे हैं?

सिर्फ होठों पे तकरार!

मनीष सिसोदिया के घर पर जब सीबीआई की टीम दिल्ली सरकार की शराब नीति में गड़बड़ियों की जांच पड़ताल कर रही थी, तो कांग्रेस के नेता आम आदमी पार्टी के दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे - और बयानबाजी के मामले में कांग्रेस नेता बीजेपी नेता के साथ रेस भी लगा रहे थे. आम आदमी पार्टी का बड़ा आरोप रहा है कि अरविंद केजरीवाल की गुजरात चुनाव में बढ़ते दखल को रोकने के लिए भी केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी ने जांच एजेंसियों को मनीष सिसोदिया और बाकी नेताओं के पीछे लगा रखा है.

क्या राहुल गांधी भी अरविंद केजरीवाल का इस्तेमाल करने लगे हैं, जैसे 2014 में बीजेपी ने फायदा उठाया था?

अरविंद केजरीवाल के खिलाफ राहुल गांधी को सबसे ज्यादा आक्रामक पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान ही देखा गया था. पंजाब चुनाव के दौरान राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह आतंकवाद से अरविंद केजरीवाल को जोड़ कर सवाल उठा रहे थे. राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों के सवाल खड़े करने का आधार एक ही था - हिंदी कवि और अरविंद केजरीवाल के शुरुआती राजनीतिक साथी रहे हैं.

हालांकि, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान अरविंद केजरीवाल के प्रति राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का नजरिया बिलकुल अलग रहा. मोदी और उनके बीजेपी के साथी तो अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी साबित करने में ही जुटे हुए थे. तब तो केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी नेता नारे लगा रहे थे, "देश के गद्दारों को गोली मारो..."

लेकिन राहुल गांधी तब अरविंद केजरीवाल से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ ही हमलावर दिखे थे. ये तो शुरू से ही देखा जा रहा था कि कांग्रेस चाहती थी कि आम आदमी पार्टी भले ही सत्ता में वापसी कर ले लेकिन बीजेपी ऐसा न कर पाये. राहुल गांधी ने दिल्ली में प्रियंका गांधी के साथ मिल कर रोड शो भी किया था, लेकिन उनके निशाने पर मोदी ही रहे. तब प्रधानमंत्री मोदी को लेकर राहुल गांधी का एक बयान खासा चर्चित भी हुआ था, "... युवा डंडे मारेंगे."

हैरानी की बात ये रही कि राहुल गांधी का ये रवैया तब भी देखने को मिला था जबकि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन आम आदमी पार्टी से कहीं ज्यादा बढ़िया रहा. ये कांग्रेस ही रही जिसकी वजह से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की कई सीटों पर जमानत तक जब्त हो गयी थी - और कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल को उम्मीदवारों को किसी भी सीट पर अपने से आगे नहीं बढ़ने दिया था.

पंजाब के साथ ही हुए गोवा चुनाव में भी राहुल गांधी का फोकस ममता बनर्जी पर ही ज्यादा दिखा, बनिस्बत अरविंद केजरीवाल के मुकाबले. गुजरात चुनाव में राहुल गांधी खुद तो नहीं ही जा रहे हैं, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को भी लगता है हिमाचल प्रदेश तक की सीमित रखा जा रहा है - क्या ये सब अरविंद केजरीवाल के पक्ष में जाता हुआ नहीं लग रहा है?

कांग्रेस के पास बड़ा मौका है, लेकिन...

2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो पांच साल बाद कांग्रेस के पास बहुत बड़ा मौका है. जैसे आम आदमी पार्टी ने ने पंजाब में 2017 के चुनाव में सत्ता हासिल करने की जीतोड़ कोशिश की - और उसी पेस को मेंटेन करते हुए अरविंद केजरीवाल ने 2022 में सत्ता पर कब्जा जमा लिया. आप के पहले सांसदों में से एक भगवंत मान अभी पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं.

करीब करीब वैसा ही मौका फिलहाल कांग्रेस के लिए गुजरात के चुनाव मैदान में भी है. लेकिन कांग्रेस तो जैसे मैदान छोड़ कर ही बैठ गयी है - और अरविंद केजरीवाल पंजाब की ही तरह खूंटा गाड़ कर गुजरात में बैठ गये हैं.

ये तो साफ है कि गुजरात में कांग्रेस ने हथियार डाल दिये हैं, लेकिन ऐन उसी वक्त ऐसा भी लग रहा है जैसे राहुल गांधी 2020 के दिल्ली चुनाव की ही तरह अरविंद केजरीवाल के नाम पर जुआ खेल रहे हों - लेकिन क्या राहुल गांधी को नहीं लग रहा है कि अरविंद केजरीवाल गुजरात में दिल्ली वाली स्थिति में बिलकुल भी नहीं हैं.

अरविंद केजरीवाल के इस दावे के आगे कि गुजरात में अगली सरकार आम आदमी पार्टी की बनने जा रही है और इशुदान गढ़वी अगले मुख्यमंत्री - आखिर राहुल गांधी झांसे में क्यो आ गये हैं? कहीं राजस्थान की तरह अशोक गहलोत ने राहुल गांधी को गुजरात पर भी ज्ञान तो नहीं दे दिया है?

गुजरात न तो दिल्ली है, न ही पंजाब

कांग्रेस चाहती तो गुजरात में बिलकुल वैसे ही फायदा उठा सकती थी, जैसे इसी साल की शुरुआत में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में उठाया था. जैसे पंजाब में बीजेपी के पास कोई मौका नहीं था, कांग्रेस एक्टिव रहती तो अरविंद केजरीवाल को भी कुछ करने का मौका शायद ही मिल पाता.

सत्ता विरोधी लहर हर सरकार के खिलाफ होती ही है, कम है या ज्यादा, ये बात अलग है. और ये भी महत्वपूर्ण होता है कि अपने खिलाफ लोगों की नाराजगी को सत्ताधारी पार्टी कैसे काउंटर करती है - निश्चित तौर पर गुजरात में बीजेपी के सामने भी ये बड़ी चुनौती है.

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के पीछे एक वजह ये भी थी, ये चीज अलग है कि कांग्रेस नेतृत्व ने पंजाब संकट के गलत तरीके से हैंडल किया और सत्ता गवां बैठी. अरविंद केजरीवाल ने मौके का पूरा फायदा उठा लिया.

2017 में कांग्रेस ने बीजेपी को गुजरात में नाको चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया था. कांग्रेस के कैंपेन 'विकास गांडो थायो छे' ने बीजेपी के छक्के छुड़ा दिये थे और थक हार कर अमित शाह को बीजेपी के ट्रंप कार्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मैदान में उतारना पड़ा था. जैसे ही मोदी ने गुजरात पहुंच कर बोल दिया, 'हु छु विकास... हुं छु गुजरात,' राहुल गांधी ने कांग्रेस का कैंपेन रोक दिया - लेकिन फिर भी बीजेपी 100 सीटों तक नहीं ही पहुंच पायी थी. बाद के तिकड़मो की बात और है.

2022 का गुजरात चुनाव 2024 के आम चुनाव के लिए मजबूत संकेत दे सकता है - और किसी को भी इसमें कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिये. अगर बीजेपी सत्ता बरकरार रखती है, तो मान कर चलना होगा कि 2024 में बीजेपी का केंद्र में कोई चैलेंजर नहीं होने वाला है. अभी तो वैसे भी सबका अंदाजा ऐसा ही है.

अरविंद केजरीवाल को भी मालूम है कि गुजरात में बहुत कुछ खास होना नहीं है, लेकिन वो बीजेपी के मन में दहशत पैदा करना चाहते हैं और अमित शाह की गुजरात के नेताओं की वो मीटिंग याद करें तो केजरीवाल काफी हद तक सफल भी लगते हैं. गुजरात चुनाव की तैयारियों को लेकर बीजेपी नेताओं की मीटिंग में ये अमित शाह का ही कहना रहा कि किसी भी सूरत में AAP को 24 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिलने चाहिये.

AAP नेता केजरीवाल को भी जन्नत की ही तरह गुजरात में आम आदमी पार्टी की हकीकत मालूम है और ये नतीजों में सीटों की संख्या दहाई तक भी नहीं होगी, मालूम है. लेकिन मोदी को चैलेंज कर वो अपने समर्थकों को मैसेज देने में तो सफल ही हैं - अब तो हर कोई ये महसूस भी करने लगा है.

अगर विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की थोड़ी भी सीटें आ गयीं तो अरविंद केजरीवाल के पास देश भर में घूम घूम कर कहने के लिए ये तो हो ही जाएगा कि एक बेहद मजबूत किलेबंदी के बावजूद गुजरात में उनकी पार्टी घुसपैठ कर ही डाली.

तो क्या कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल की यही ताकत अच्छी लगने लगी है - और राहुल गांधी के मन में नये तरीके की उम्मीदें जाग चुकी हैं?

केजरीवाल के भरोसे कांग्रेस!

अब अगर गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस की सक्रियता को ध्यान से समझने की कोशिश करें तो कहानी तो कुछ और ही समझ में आती है - ये तो ऐसा लग रहा है जैसे कांग्रेस पीछे हट कर गुजरात में अरविंद केजरीवाल को ग्रीन कॉरिडोर मुहैया करा रही हो.

ये तो ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस सोच समझ कर किसी खास रणनीति के तहत गुजरात चुनाव से भी दिल्ली चुनाव की तरह दूरी बनाने की कोशिश कर रही हो - कहीं राहुल गांधी को ये तो नहीं लगने लगा है कि बीजेपी से बेहतर तरीके से अरविंद केजरीवाल ही निबट सकते हैं - और इसीलिए वो नाम मात्र की मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही है.

लेकिन क्या अरविंद केजरीवाल के आगे बढ़ जाने से कांग्रेस को मुश्किल नहीं होगी? कांग्रेस की ये भी सोच हो सकती है कि बीजेपी के मुकाबले अरविंद केजरीवाल को काउंटर करना आसान हो सकता है. लोक सभा चुनाव दिल्ली के नतीजे मिसाल हैं.

राहुल गांधी खुद सॉफ्ट हिंदुत्व के तमाम प्रयोग कर चुके हैं और हर प्रयोग असफल रहा है. अरविंद केजरीवाल के बयानों और राजनीतिक गतिविधियों को देखें तो वो हार्डकोर हिंदुत्व की राजनीति के साथ आगे बढ़ते लगते हैं. कांग्रेस के लिए ये सब मुश्किल है, लेकिन अरविंद केजरीवाल के लिए लाइन बदल लेना कपड़े बदलने जैसा ही है.

कहीं कांग्रेस की रणनीति ये तो नहीं कि अगर वो खुद बीजेपी को चैलेंज नहीं कर पा रही तो केजरीवाल को पास दे दे? और बाद में वो अपने तरीके से आम आदमी पार्टी से निबट लेगी. ये आम आदमी पार्टी ही है जिसकी बदौलत बीजेपी को कांग्रेस मुक्त अभियान में कामयाबी मिली - तो क्या अब कांग्रेस उसी आम आदमी पार्टी को आगे कर बीजेपी को डैमेज करना चाहती है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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