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राजनीतिक दलों की पॉलिटिकल फंडिंग का काला अध्याय जनाधार को नष्ट कर गया

    • नवेद शिकोह
    • Updated: 28 दिसम्बर, 2020 04:13 PM
  • 28 दिसम्बर, 2020 04:13 PM
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पूंजीपतियों का राजनीतिक दलों को पैसा मुहैया कराना कोई नयी बात नहीं है. सरकार आम गरीब जनता के हित में काम करे तो पूंजीपति उस फाइनेंस तंत्र की याद दिलाते हैं जो पार्टी और सरकार की तारीफों का भोपू बनकर देश को दीवानेपन की अफीम चटाने का प्रयास मुसलसल कर रहा होता है.

दो पत्नियों की पशोपेश मे फंसे पति की तरह वो राजनीतिक दल सत्ता पाने के बाद परेशान रहते हैं जो पूंजीपतियों के फाइनेंस के खर्चीले प्रचार से जनता को प्रभावित करके जीतते है. सत्ता मिलने के बाद मुश्किल ये होती है कि वोट देने वाली आम जनता को खुश रखें या दौलत देने वाले पूंजीपतियों को खुश रखें. दोनों की जरुरतें एक दूसरे से विपरीत होती हैं. जनहित के फैसले पूंजीपतियों को नागवार गुजरते हैं और जब पूंजीपतियों को फायदा पंहुचाने के लिए सरकार कोई कदम उठाती है तो ये आम जनता को नुकसान पहुंचाने वाला कदम होता है और जनता में उबाल पैदा होने लगता है. पांच-सात धनपशुओं, उद्योगपतिओं, पूंजीपतियों और सामंतवादियों के पक्ष में सरकार कोई कदम उठाए तो पचास-साठ करोड़ आम जनता सरकार के खिलाफ हो जाती है. सरकार आम गरीब जनता के हित में काम करे तो पूंजीपति उस फाइनेंस तंत्र की याद दिलाते हैं जो पार्टी और सरकार की तारीफों का भोपू बनकर देश को दीवानेपन की अफीम चटाने का प्रयास मुसलसल कर रहा होता है.

पार्टियों या सत्तारूढ़ दलों को धनपशुओं के दबाव और ब्लैकमेलिंग का शिकार ना होना पड़े, वो जनता को खुश करने और दोबारा सत्ता पाने के लिए जन कल्याणकारी योजनाओं पर ही काम करें. ये तब संभव है जब राजनीति दल धनपशुओं के फाइनेंस पर निर्भर ना होकर जनता के भरोसे पर निर्भर रहें. आम जनता, मजदूर-किसान, गरीब-मेहनतकश और मध्यम वर्ग के लिए जमीनी काम करें और अति अपेक्षाएं पैदा करने वाला झूठे, भ्रामक, भावात्मक व खर्चीले प्रचार का सहारा ना लें.

सरकार आम जनता को इसलिए भी नजरअंदाज करती है क्योंकि इसकी एक बड़ी वजह पूंजीपति हैं

खूब मंहगा और जनता को दिग्भ्रमित करने वाले प्रचार का फाइनेंस सियासी दलों को ड्रग एडिग्ट बना देता है. जिस तरह प्रतिबंधित नशा लेने से थोड़ी देर अतिरिक्त...

दो पत्नियों की पशोपेश मे फंसे पति की तरह वो राजनीतिक दल सत्ता पाने के बाद परेशान रहते हैं जो पूंजीपतियों के फाइनेंस के खर्चीले प्रचार से जनता को प्रभावित करके जीतते है. सत्ता मिलने के बाद मुश्किल ये होती है कि वोट देने वाली आम जनता को खुश रखें या दौलत देने वाले पूंजीपतियों को खुश रखें. दोनों की जरुरतें एक दूसरे से विपरीत होती हैं. जनहित के फैसले पूंजीपतियों को नागवार गुजरते हैं और जब पूंजीपतियों को फायदा पंहुचाने के लिए सरकार कोई कदम उठाती है तो ये आम जनता को नुकसान पहुंचाने वाला कदम होता है और जनता में उबाल पैदा होने लगता है. पांच-सात धनपशुओं, उद्योगपतिओं, पूंजीपतियों और सामंतवादियों के पक्ष में सरकार कोई कदम उठाए तो पचास-साठ करोड़ आम जनता सरकार के खिलाफ हो जाती है. सरकार आम गरीब जनता के हित में काम करे तो पूंजीपति उस फाइनेंस तंत्र की याद दिलाते हैं जो पार्टी और सरकार की तारीफों का भोपू बनकर देश को दीवानेपन की अफीम चटाने का प्रयास मुसलसल कर रहा होता है.

पार्टियों या सत्तारूढ़ दलों को धनपशुओं के दबाव और ब्लैकमेलिंग का शिकार ना होना पड़े, वो जनता को खुश करने और दोबारा सत्ता पाने के लिए जन कल्याणकारी योजनाओं पर ही काम करें. ये तब संभव है जब राजनीति दल धनपशुओं के फाइनेंस पर निर्भर ना होकर जनता के भरोसे पर निर्भर रहें. आम जनता, मजदूर-किसान, गरीब-मेहनतकश और मध्यम वर्ग के लिए जमीनी काम करें और अति अपेक्षाएं पैदा करने वाला झूठे, भ्रामक, भावात्मक व खर्चीले प्रचार का सहारा ना लें.

सरकार आम जनता को इसलिए भी नजरअंदाज करती है क्योंकि इसकी एक बड़ी वजह पूंजीपति हैं

खूब मंहगा और जनता को दिग्भ्रमित करने वाले प्रचार का फाइनेंस सियासी दलों को ड्रग एडिग्ट बना देता है. जिस तरह प्रतिबंधित नशा लेने से थोड़ी देर अतिरिक्त ऊर्जा आती है और फिर शरीर की ताकत, होश ओ हवास और शरीर के अंग साथ देना बंद कर देते हैं. ऐसे ही महंगा प्रचार थोड़े दिनों के लिए जनता को प्रभावित करता है और फिर आम जनता सियासी पार्टी का साथ देना बंद कर देती है.

ईमानदार नियत और नेक इरादे, अनुशासन और परिश्रम, शारीरीक व्यायाम, संतुलित और पौष्टिक भोजन और खूब प्रक्टिस के साथ कोई खिलाड़ी सफलता के साथ लम्बी पारी खेल सकता है. प्रतिबंध ड्रग्स वक्ती ताकत देती हैं. कई खिलाड़ी इस चालबाजी में पकड़े भी जा चुके हैं. नहीं भी पकड़े जाएं तब भी ऐसी प्रतिबंधित ड्रग्स कुछ वक्त ही ताकत देती हैं और फिर शरीर कमज़ोर कर देती हैं.राजनीतिक मैदान में भी कुछ ऐसा ही होता है. कुछ राजनीतिक दल प्रतिबंध ड्रग्स जैसे पूंजीपतियों के फाइनेंस का सहारा लेकर वक्ती तौर पर सफल हो जाते हैं.

खूब खर्चीला प्रचार वक्ती तौर पर जनता को प्रभावित और दिग्भ्रमित भी कर देता है. धर्म-जाति, मंदिर-मुस्जिद, हिंदू-मुसलमान, क्षेत्रीयता, झूठे सुनहरे वादों का मनोवैज्ञानिक प्रचार और उसका प्रभाव नशीली ड्रग्स की तरह असर करता है. प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विभिन्न प्रकार के आधुनिक प्रचार प्रसार के लिए लाखों करोड़ का फाइनेंस करने वाले पूंजीपतियों का टूल बनी राजनीति पार्टी जब ऐसे प्रचार की सफलता से सत्ता हासिल कर लेती है तो ऐसी सत्ता का पूंजीपतियों के इशारे पर चलना लाज़मी है.

सरकारें ये जानते हुए भी कि जनविरोधी फैसलों से जनता नाराज होगी तो उनकी पार्टी का जनाधार कमजोर पड़ जायेगा फिर भी उन्हें पूंजीपतियों का कर्ज अदा करने के लिए जनता का नाखुश और पूंजीपतियों को खुश करना पड़ता है. क्योंकि धनबंधन से जकड़े राजनीतिक दल या सत्तारुढ़ पार्टियां एक ड्रग्स एडिक्ट की तरह पूंजीपतियों के मोह जाल में फंसकर अपना जनाधार गवा चुकी होती हैं. वैसे ही जैसे ड्रग्स एडिक्ट अतिरिक्त ऊर्जा की लत में अपनी वास्तविक ऊर्जा और होश-ओ-हवास गवा बैठता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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