कैंब्रिज एनलिटिका का विवाद इस समय सुर्खियों में है. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के आरोप के साथ शुरू हुआ यह विवाद अब भारत तक पहुंच गया है. पहले भारत की सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर इस फर्म की सेवाएं लेने का आरोप लगा रही थी, हालांकि कांग्रेस ने तब इस तरह की किसी भी सेवा लेने की बात से साफ तौर पर इनकार कर दिया था. हालांकि अब इस पूरे मामले के व्हिसिल ब्लोअर क्रिस्टोफर वाइली ने ब्रिटेन के संसद में मंगलवार को कहा कि कैंब्रिज एनलिटिका ने भारत में काफी काम किया है और उन्हें विश्वास है कि कांग्रेस भी इसके ग्राहक में शामिल रह चुकी है.
वाइली ने इसके अलावा भी काफी चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. वाइली के अनुसार कैम्ब्रिज एनलिटिका की भारतीय इकाई साल 2003 से भारत में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है. कंपनी ने इस दौरान अलग अलग सालों में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखंड चुनाव एवं 2009 में हुए आम चुनावों में अपनी सेवाएं दी हैं. इन चुनावों में कई पार्टियों ने कंपनी की सेवाओं ली, पार्टियों ने जातिगत समीकरण, वोटरो के वोटिंग पैटर्न के अलावा ऐसे वोटरों की जानकारी हासिल की जो यह तय नहीं कर पा रहे हैं उन्हें किसे वोट करना है.
हालांकि इन आकड़ों का क्या असर वहां के चुनाव परिणाम पर पड़ा यह तो साफ नहीं हो सका है, मगर यहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई आकड़ों के सहारे चुनावी जीत हासिल की जा सकती है? और किसी भी चुनाव को आकड़ों की बाजीगरी के द्वारा कितना प्रभावित किया जा सकता है?
अगर भारत के लिहाज से बात करें तो निश्चित रूप से आकड़ों द्वारा चुनावों में बेहतर किया जा सकता है....
कैंब्रिज एनलिटिका का विवाद इस समय सुर्खियों में है. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के आरोप के साथ शुरू हुआ यह विवाद अब भारत तक पहुंच गया है. पहले भारत की सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर इस फर्म की सेवाएं लेने का आरोप लगा रही थी, हालांकि कांग्रेस ने तब इस तरह की किसी भी सेवा लेने की बात से साफ तौर पर इनकार कर दिया था. हालांकि अब इस पूरे मामले के व्हिसिल ब्लोअर क्रिस्टोफर वाइली ने ब्रिटेन के संसद में मंगलवार को कहा कि कैंब्रिज एनलिटिका ने भारत में काफी काम किया है और उन्हें विश्वास है कि कांग्रेस भी इसके ग्राहक में शामिल रह चुकी है.
वाइली ने इसके अलावा भी काफी चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. वाइली के अनुसार कैम्ब्रिज एनलिटिका की भारतीय इकाई साल 2003 से भारत में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है. कंपनी ने इस दौरान अलग अलग सालों में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखंड चुनाव एवं 2009 में हुए आम चुनावों में अपनी सेवाएं दी हैं. इन चुनावों में कई पार्टियों ने कंपनी की सेवाओं ली, पार्टियों ने जातिगत समीकरण, वोटरो के वोटिंग पैटर्न के अलावा ऐसे वोटरों की जानकारी हासिल की जो यह तय नहीं कर पा रहे हैं उन्हें किसे वोट करना है.
हालांकि इन आकड़ों का क्या असर वहां के चुनाव परिणाम पर पड़ा यह तो साफ नहीं हो सका है, मगर यहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई आकड़ों के सहारे चुनावी जीत हासिल की जा सकती है? और किसी भी चुनाव को आकड़ों की बाजीगरी के द्वारा कितना प्रभावित किया जा सकता है?
अगर भारत के लिहाज से बात करें तो निश्चित रूप से आकड़ों द्वारा चुनावों में बेहतर किया जा सकता है. मसलन राजनैतिक पार्टियों ने जिन तरह के आकड़ों का इस्तेमाल किया उसमें मुख्य रूप से जाति से जुड़े आकड़ों पर ज्यादा जोर दिया गया. यह सर्वविदित है कि भारत में आज भी चुनाव जीतने के लिए जातिगत समीकरण का सही होना बड़ा फैक्टर माना जाता है, तभी तो आज भी भारत में कई राजनैतिक पार्टियां जातिगत समीकरण साध कर ठीक-ठाक प्रदर्शन कर रही हैं. ऐसे में अगर जातियों का ठीक-ठाक अनुमान हो जाने पर यह उम्मीदवार चुनाव के साथ-साथ, किस क्षेत्र में किन वोटरों को टारगेट कर कैसा चुनाव प्रचार करना है इसमें भी मदद करता है. मसलन किसी क्षेत्र में अनुसूचित जाति के वोटर निर्णायक स्थिति में हैं तो वहां प्रचार के दौरान उस जाति के लोगों के रिझाने के लिए बातें की जा सकती हैं.
हालांकि बावजूद इसके चुनावों में इसका फायदा मिल ही जाये यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि भारत जैसे विविधता वाले देश में कभी-कभी वोटर जाति से इतर कभी मुद्दों पर तो कभी धर्म के आधार पर वोटिंग करते हैं, जैसा कि 2014 के आम चुनावों में भी दिखा जहां लोगों ने भ्रष्टाचार से ऊबकर विकास के मुद्दे पर भारतीय जनता को पूर्ण बहुमत दे दिया. इसके अलावा भारतीयों के वोटिंग मिजाज़ को किसी सर्वे से समझ लेना भी मुश्किल ही लगता है, क्योंकि आम भारतीय इतनी जल्दी अपना वोटिंग प्रेफरेंस किसी को बता दें इसकी उम्मीद कम ही है. ऐसे में भारत में वोटिंग पैटर्न पता लगाना भी उतना आसान नहीं लगता, हां पूर्व के कई चुनावों का विश्लेषण कर एक रेखा जरूर खींची जा सकती है, मगर इसकी सटीकता को लेकर केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं.
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि अगर आंकड़े सटीक और वृहत हों तो निश्चित रूप से चुनाव परिणामों को प्रभावित किया जा सकता है. हालांकि कैंब्रिज अनलिटिका के मामले में यह कितना सही रहा यह तो कुछ समय बाद ही पता चल पायेगा.
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