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Facebook से ज्यादा खतरनाक है Whatsapp

    • अमित अरोड़ा
    • Updated: 24 मार्च, 2018 05:33 PM
  • 24 मार्च, 2018 05:33 PM
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व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के युग में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब अर्थ का अनर्थ बनाकर प्रस्तुत किया गया. व्हाट्सएप पर भेजी गई जानकारी का कोई स्रोत नहीं होता है इसलिए झूठी खबरें और भ्रामक वीडियो बनाने वाले लोगों तक कानून कभी पहुंच नहीं सकता है.

फेसबुक पर उपलब्ध आम जनता की निजी जानकारी की चोरी, उस जानकारी का प्रयोग करते हुए चुनावों में लोगों के विचारों-दृष्टिकोण को प्रभावित करना, इन घटनाओं के कारण डेटा फर्म कैंब्रिज एनालिटिका कटघरे में है. निजी जानकारी की चोरी और उसके गैरकानूनी प्रयोग का मुद्दा फिलहाल अमेरिका, ब्रिटेन और भारत में चर्चा का विषय है. लोगों के विचारों को प्रभावित करने के मुद्दे पर जहां फेसबुक को कठिन प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है वहीं इससे भी बड़े खतरे को हम नजरअंदाज़ कर रहे हैं.

सोशल मीडिया में फेसबुक की ही तरह व्हाट्सएप भी लोगों से जुड़ने का एक बहुत प्रचलित माध्यम है. फेसबुक द्वारा जुलाई 2017 में घोषित आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 24 करोड़ 10 लाख लोग फेसबुक का प्रयोग कर रहे थे. दूसरी ओर वर्तमान में भारत में लगभग 20 करोड़ लोग व्हाट्सएप का प्रयोग कर रहे हैं. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, आदि पर प्रकाशित किसी भी समाचार, वीडियो, फोटो का एक स्रोत होता है. फेसबुक, ट्विटर पर ऐसे कई पेज-अकाउंट होंगे जो झूठी खबरें, आधे-अधूरे और भ्रामक वीडियो डालकर लोगों को गलत तरीके से प्रभावित करना चाहते होंगे. कुछ समय के लिए तो ऐसे स्रोत, जनता को गुमराह कर सकते है परंतु एक बार जब इन स्रोतों की सच्चाई सामने आ जाती है तो इन्हे अनफॉलो करना, ब्लॉक करना, उचित मंच पर इनकी शिकायत करना उतना ही आसान है. जहां फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, आदि स्रोत आधारित है वहां व्हाट्सएप पर भेजी गई जानकारी का कोई स्रोत नहीं होता है.

वाट्सएप ज्यादा खतरनाक है

पिछले 3-4 साल में व्हाट्सएप का चुनावी प्रचार या कहें कुप्राचार में बहुत जोरो शोरों से प्रयोग हुआ है. व्हाट्सएप पर यह पता लगाना असंभव है कि किसी वीडियो, फोटो की शुरूआत कहां से हुई है. ऐसी स्थति में चाहे वह राजनीतिक दल हो या असामाजिक तत्व, कोई...

फेसबुक पर उपलब्ध आम जनता की निजी जानकारी की चोरी, उस जानकारी का प्रयोग करते हुए चुनावों में लोगों के विचारों-दृष्टिकोण को प्रभावित करना, इन घटनाओं के कारण डेटा फर्म कैंब्रिज एनालिटिका कटघरे में है. निजी जानकारी की चोरी और उसके गैरकानूनी प्रयोग का मुद्दा फिलहाल अमेरिका, ब्रिटेन और भारत में चर्चा का विषय है. लोगों के विचारों को प्रभावित करने के मुद्दे पर जहां फेसबुक को कठिन प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है वहीं इससे भी बड़े खतरे को हम नजरअंदाज़ कर रहे हैं.

सोशल मीडिया में फेसबुक की ही तरह व्हाट्सएप भी लोगों से जुड़ने का एक बहुत प्रचलित माध्यम है. फेसबुक द्वारा जुलाई 2017 में घोषित आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 24 करोड़ 10 लाख लोग फेसबुक का प्रयोग कर रहे थे. दूसरी ओर वर्तमान में भारत में लगभग 20 करोड़ लोग व्हाट्सएप का प्रयोग कर रहे हैं. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, आदि पर प्रकाशित किसी भी समाचार, वीडियो, फोटो का एक स्रोत होता है. फेसबुक, ट्विटर पर ऐसे कई पेज-अकाउंट होंगे जो झूठी खबरें, आधे-अधूरे और भ्रामक वीडियो डालकर लोगों को गलत तरीके से प्रभावित करना चाहते होंगे. कुछ समय के लिए तो ऐसे स्रोत, जनता को गुमराह कर सकते है परंतु एक बार जब इन स्रोतों की सच्चाई सामने आ जाती है तो इन्हे अनफॉलो करना, ब्लॉक करना, उचित मंच पर इनकी शिकायत करना उतना ही आसान है. जहां फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, आदि स्रोत आधारित है वहां व्हाट्सएप पर भेजी गई जानकारी का कोई स्रोत नहीं होता है.

वाट्सएप ज्यादा खतरनाक है

पिछले 3-4 साल में व्हाट्सएप का चुनावी प्रचार या कहें कुप्राचार में बहुत जोरो शोरों से प्रयोग हुआ है. व्हाट्सएप पर यह पता लगाना असंभव है कि किसी वीडियो, फोटो की शुरूआत कहां से हुई है. ऐसी स्थति में चाहे वह राजनीतिक दल हो या असामाजिक तत्व, कोई भी अपनी सुविधा के अनुसार झूठी, एक तरफा, भ्रामक खबरें व्हाट्सएप पर चला सकता है.

2015 के बिहार विधान सभा चुनाव से पूर्व, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अध्यक्ष मोहन भागवत ने भारत की वर्तमान आरक्षण नीति की समीक्षा की बात की थी. भागवत के उस वक्तव्य को आरक्षण विरोधी सोच के रूप में प्रस्तुत कर, व्हाट्सएप के माध्यम से उनके वीडियो की कांट-छांट करके पेश किया गया. बिहार के दलित और अति पिछड़ा वर्ग के अंदर यह डर बैठा दिया गया कि यदि भाजपा की बिहार में सरकार बनी तो जतिगत आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा. व्हाट्सएप के उन वीडियो का ऐसा प्रभाव हुआ कि बिहार चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी.

जून 2017 में मंदसौर, मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान कुछ किसानों की मृत्यु हो गई. उस समय पूरे प्रदेश में तनाव का माहौल था. ऐसे समय व्हाट्सएप पर एक वीडियो वाइरल करने का प्रयास किया गया जिसमे शिवराज सिंह कहते दिख रहे थे कि 'मैं ढेला भी नहीं दूंगा'. 19 अप्रेल 2017 को सागर, मध्य प्रदेश में सिंचाई परियोजना का कार्यक्रम था, जिसमे हड़ताल पर बैठे पंचायत विभाग के कर्मचारियों को ढेला न देने की बात शिवराज ने कही थी. अप्रेल 2017 में कही गई बात को कांट-छांट करके जून 2017 में किसानों को ढेला न देने के रूप में प्रस्तुत किया गया.

हाल ही में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी की एक सभा का छोटा सा वीडियो वायरल हो गया था. इस वीडियो में राहुल कहते दिखते हैं, 'इधर से आलू डालुंगा, उधर से सोना निकलेगा'. व्हाट्सएप पर यह वीडियो खूब वायरल किया गया और राहुल की बुद्धिमत्ता का मज़ाक उड़ाया गया. असल में जानबूझ कर पूरे वक्तव्य में से कुछ सेकेंड का हिस्सा लिया गया था. यदि राहुल का पूरा भाषण सुनें तो वह आरोप लगाते दिखते हैं कि यह आलू की बात प्रधानमंत्री मोदी ने कही थी.

व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के युग में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब अर्थ का अनर्थ बनाकर प्रस्तुत किया जाता है. क्योंकि व्हाट्सएप पर भेजी गई जानकारी का कोई स्रोत नहीं होता है इसलिए झूठी खबरें और भ्रामक वीडियो बनाने वाले लोगों तक कानून कभी पहुंच नहीं सकता है. लोग विदेश से बैठ कर भी यह सब काम कर सकते हैं. क़ानून व्यवस्था स्थापित करने वाली संस्थाएं चाहे तो हजारों में से केवल कुछ लोगों पर ही कारवाही कर सकती हैं क्योंकि यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि इससे पहले यह वीडियो कहां कहां भेजा गया है.

भारतीय चुनाव आयोग के नियम सोशल मीडिया की इन नई तकनीकों के सामने फेल है. चुनाव आयोग के अनुसार एक उम्मीदवार और राजनीतिक दल चुनावों में एक तय सीमा से अधिक धन खर्च नहीं सकते है. सोशल मीडिया के इस युग में यह सारे नियम अर्थहीन हो गए हैं. एक उम्मीदवार या राजनीतिक दल सोशल मीडिया के माध्यम इन झूठी खबरों, आधे-अधूरे और भ्रामक वीडियो का प्रयोग तो कर रहे हैं पर अधिकारिक रूप से कोई इसे नहीं स्वीकारता है.

कैंब्रिज एनालिटिका के इस प्रकरण से कम से कम यह विषय बहस का मुद्दा तो बना, अन्यथा यह गोरखधंधा इसी प्रकार चुपचाप चलता जाता. यदि भारतीय मतदाता जागरूक बनता है तभी इस दुष्प्रचार को कम किया जा सकता है. इसके अलावा वर्तमान समय में कोई ओर साधन कारगर नहीं है. जागरूक मतदाता ही सारी समस्या का समाधान है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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