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CAA centre vs State: धर्मनिरपेक्षता की कसौटी से ज्यादा बड़ा है धर्मसंकट

    • मनीष दीक्षित
    • Updated: 15 जनवरी, 2020 05:55 PM
  • 15 जनवरी, 2020 05:55 PM
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नागरिकता कानून (CAA) को लेकर मोदी सरकार (Modi Govt) मुसीबत में है. न सिर्फ नागरिक बल्कि Opposition भी इसका विरोध कर रहा है. अब मामला Supreme Court के पास है. कोर्ट ही ये बताएगा कि ये धर्मनिरपेक्ष है और इसे लागू किया जाना चाहिए या नहीं.

देश के सामने नागरिकता संशोधन कानून सीएए (CAA) के मसले पर विरोध प्रदर्शन (CAA Protest) और समर्थन प्रदर्शन से इतर राजनीति के चक्कर में केंद्र-राज्यों के बीच टकराव (CAA tussle centre vs state)के हालात में आखिर क्या होगा? संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नागरिकता पर कानून संसद ही बनाएगी. अब संसद ने सीएए बना दिया तो उसका विरोध शुरू हुआ ये कहकर कि ये असंवैधानिक (CAA is undemocratic) है. ये कानून अब एक ही सूरत में असंवैधानिक घोषित हो सकता है जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court decision on CAA) इसे असंवैधानिक घोषित करते हुए खारिज कर दे और ऐसा अभी हुआ नहीं है. सीएए को लागू करने की अधिसूचना भी जारी हो चुकी है. लेकिन अब इसे संविधान की धर्म निरपेक्षता की कसौटी पर परखने की मांग तेज हो गई है. लेकिन राज्य इसका लगातार विरोध कर रहे हैं और गैर भाजपा दलों की सरकार वाले राज्यों के मुख्यमंत्री ये कह रहे हैं कि उनके राज्य में सीएए लागू नहीं होगा. संवैधानिक तौर पर इस कानून को लागू करना उनकी जिम्मेदारी है लेकिन वे इसकी अवहेलना कर रहे हैं इसे संविधान के खिलाफ बताकर. राजनीतिक बयानबाजी तक बात होती तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन केरल की विधानसभा ने सीएए के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित कर दिया.

सरकार के सामने नागरिकता कानून एक चुनौती की तरह सामने आ रहा है जगह जगह इसे लेकर विरोध पहले ही तेज है

संविधान कहता है कि अगर केंद्र सरकार के बनाए कानून को राज्य लागू नहीं करेंगे तो वहां संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला बनता है. लेकिन ये स्थिति एक राज्य के मामले में तो ठीक है पर जब एक दर्जन गैर भाजपा शासित राज्य सीएए के खिलाफ हों तो स्थिति विकट हो जाएगी.

नागरिकता संशोधन कानून (CAA) संविधान के अनुरूप है या नहीं अब ये फैसला सुप्रीम कोर्ट ही करेगा क्योंकि उसके...

देश के सामने नागरिकता संशोधन कानून सीएए (CAA) के मसले पर विरोध प्रदर्शन (CAA Protest) और समर्थन प्रदर्शन से इतर राजनीति के चक्कर में केंद्र-राज्यों के बीच टकराव (CAA tussle centre vs state)के हालात में आखिर क्या होगा? संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नागरिकता पर कानून संसद ही बनाएगी. अब संसद ने सीएए बना दिया तो उसका विरोध शुरू हुआ ये कहकर कि ये असंवैधानिक (CAA is undemocratic) है. ये कानून अब एक ही सूरत में असंवैधानिक घोषित हो सकता है जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court decision on CAA) इसे असंवैधानिक घोषित करते हुए खारिज कर दे और ऐसा अभी हुआ नहीं है. सीएए को लागू करने की अधिसूचना भी जारी हो चुकी है. लेकिन अब इसे संविधान की धर्म निरपेक्षता की कसौटी पर परखने की मांग तेज हो गई है. लेकिन राज्य इसका लगातार विरोध कर रहे हैं और गैर भाजपा दलों की सरकार वाले राज्यों के मुख्यमंत्री ये कह रहे हैं कि उनके राज्य में सीएए लागू नहीं होगा. संवैधानिक तौर पर इस कानून को लागू करना उनकी जिम्मेदारी है लेकिन वे इसकी अवहेलना कर रहे हैं इसे संविधान के खिलाफ बताकर. राजनीतिक बयानबाजी तक बात होती तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन केरल की विधानसभा ने सीएए के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित कर दिया.

सरकार के सामने नागरिकता कानून एक चुनौती की तरह सामने आ रहा है जगह जगह इसे लेकर विरोध पहले ही तेज है

संविधान कहता है कि अगर केंद्र सरकार के बनाए कानून को राज्य लागू नहीं करेंगे तो वहां संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला बनता है. लेकिन ये स्थिति एक राज्य के मामले में तो ठीक है पर जब एक दर्जन गैर भाजपा शासित राज्य सीएए के खिलाफ हों तो स्थिति विकट हो जाएगी.

नागरिकता संशोधन कानून (CAA) संविधान के अनुरूप है या नहीं अब ये फैसला सुप्रीम कोर्ट ही करेगा क्योंकि उसके विरोध में अब देश का राज्य केरल भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. केरल की तरफ से दाखिल याचिका में कहा गया है कि ये कानून मनमाने ढंग से बनाया गया है जो संविधान के अनुच्छेद 14 का सीधा उल्लंघन है. कानून में भारत से भौगोलिक सीमाएं साझा करने वाले सिर्फ तीन देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के छह अल्पसंख्यक धर्म के सताए गए लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान रखा गया है जबकि श्रीलंका, म्यांमार और भूटान के लोगों को इस दायरे से बाहर रखा गया है. इसका कोई तुक या ठोस आधार नहीं है.

इन तीन देशों के सताए गए हिंदू अगर कानून के तहत भारत की नागरिकता पा सकते हैं तो श्रीलंका के तमिल मूल के हिंदू और नेपाल के मधेसियों को इससे बाहर क्यों रखा गया. याचिका के मुताबिक, पाकिस्तान और बांग्लादेश में शिया मुस्लिम, अहमदिया और हाजरा भी उतने ही सताए हुए वर्ग हैं, उन्हें इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया. यह याचिका केरल सरकार के वकील जी प्रकाश की तरफ से दायर की गई है.

सीएए का विरोध करने वाले राज्यों के पास इसे सुप्रीम कोर्ट से असंवैधानिक घोषित कराने का विकल्प है तो केंद्र सरकार के पास क्या विकल्प हैं? केंद्र सरकार के पास भी कुछ ठोस विकल्प हैं. एक तो ये कि केरल के प्रस्ताव जैसे मामलों पर राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट से प्रेसिडेंसियल रेफरेंस यानी राय मांग लें. लेकिन केरल की विधानसभा भी संवैधानिक है और उसने भी संविधान के तहत ही प्रस्ताव पारित किया है. ऐसी स्थिति में क्या हो सकता है. इसमें एक तो उस राज्य का कोई निवासी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट जाकर राज्य सरकार के खिलाफ अर्जी दाखिल कर सकता है कि यह कानून लागू न होने से हमारे हितों की अनदेखी हो रही है.

दूसरा विकल्प है कि केंद्र सरकार खुद सुप्रीम कोर्ट चली जाए और केरल जैसे प्रस्ताव को अवैध घोषित कराने की मांग करे. केरल विधानसभा से सीएए के खिलाफ पारित प्रस्ताव जैसे मामले भविष्य में और भी राज्यों से हमारे सामने आ सकते हैं. केरल के राज्यपाल प्रस्ताव को असंवैधानिक कह रहे हैं लेकिन ये कहने भर से असंवैधानिक नहीं हो जाता. ये प्रस्ताव प्रक्रियात्मक तौर पर संविधान का उल्लंघन नहीं करता लेकिन इसे असंवैधानिक घोषित कराने के लिए संवैधानिक और न्यायिक प्रक्रिया का पालन कराना ही होगा.

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि साल 2004 में गुजरात के एक मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने तब के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस वी.एन. खरे और राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया था. जानकार बताते हैं कि इस मामले में वारंट जारी करना अवैध नहीं था इसलिए उस वारंट को न्यायिक प्रक्रिया के तहत खारिज किया गया. इसी तरह सीएए के खिलाफ विधानसभा से पारित प्रस्ताव को भी खारिज कराना ही होगा अन्यथा अभूतपूर्व स्थिति बनी रहेगी.

सीएए पर मचे संग्राम के बीच 60 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हो चुकी हैं जिन पर सुनवाई होनी है. अभी तक इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश भी नहीं दिया है. कानून खारिज हो गया तो कोई बात नहीं, जाहिर है अगर ये कानून कोर्ट की कसौटी पर खरा उतरा और गैर भाजपा दलों की सरकार वाले राज्य लागू न करने पर अड़े रहे तो सुप्रीम कोर्ट की भूमिका सबसे अहम हो जाएगी. वैसे भी केंद्र और राज्य के विवाद का निपटारा हमेशा से सुप्रीम कोर्ट में ही होता रहा है और देखना दिलचस्प हो जाएगा कि इस बार कोर्ट से क्या आदेश आता है क्योंकि ये आदेश संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की भी एक व्याख्या होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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