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राजनीति के अंधियारे में कर्नाटक से निकली उम्मीद की किरण

    • खुशदीप सहगल
    • Updated: 19 मई, 2018 07:01 PM
  • 19 मई, 2018 07:01 PM
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कर्नाटक के घटनाक्रम को किसी की हार या किसी की जीत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. ये जीत है नैतिकता की, देश की न्याय व्यवस्था की. साथ ही ये हार है उस प्रवृत्ति की जिसे ‘चाणक्य नीति’ का नाम देकर सत्ता हासिल करने के लिए अनैतिक कामों को अंजाम देने से भी परहेज नहीं किया जाता.

कर्नाटक में जो कुछ आज हुआ, वो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा. भारतीय राजनीति पर जो जुगाड़ तंत्र हावी होता बताया जा रहा था, धनबल का बोलबाला होता दिख रहा था, उसे कर्नाटक में करारी शिकस्त मिली है. देश में कई विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक लोकतंत्र और संविधान का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता दिख रहा था, कर्नाटक में उस पर रोक लगी है. नैतिकता का खुल कर ये प्रतिवाद किया जाता था कि सत्ता की राजनाति में जो जीतता है वही सिकंदर होता है. इसके लिए साम दाम दंड भेद कुछ भी करना पड़े तो किया जाए. ऐसे तर्क देने वालों को कर्नाटक में मुंह की खानी पड़ी है.   

सच तो ये है कि इस पूरे घटनाक्रम के हीरो के तौर पर सुप्रीम कोर्ट सामने आया है. कांग्रेस जिसने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की निष्ठा पर सवाल उठाए थे, उसी मुख्य न्यायाधीश ने आधी रात को कांग्रेस की याचिका पर तीन जजों की बेंच का गठन किया. गवर्नर के येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन देने के फैसले को चुनौती देने वाली कांग्रेस-जेडीएस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने रात भर बैठ कर त्वरित फैसला लिया. 15 दिन की इस समयसीमा को घटाकर 34 घंटे कर दिया. जाहिर है खरीदफरोख्त की कोशिशों के जितने भी आरोप लग रहे थे, वो इतने कम वक्त में असलियत में तब्दील होना मुमकिन ही नहीं थे. बीजेपी अब जितना भी खुद को शहीद दिखाने की कोशिश करे लेकिन उसका वो कार्ड सफल नहीं हो पाएगा.

दरअसल, कर्नाटक में बीजेपी की जो भी टॉप लीडरशिप थी, चाहे वो येदियुरप्पा खुद हों या श्रीरामुलु, उनके खुद ही ऑडियो सामने आ गए जिनमें वो कथित तौर पर कांग्रेस विधायक को अपने पाले में आने की पेशकश करते दिखे. माइनिंग किंग जी जनार्दन रेड्डी तो एक ऑडियो में कांग्रेस विधायक आनंद सिंह को कथित तौर पर ये कहते सुनाई दिए कि पाला बदलोगे...

कर्नाटक में जो कुछ आज हुआ, वो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा. भारतीय राजनीति पर जो जुगाड़ तंत्र हावी होता बताया जा रहा था, धनबल का बोलबाला होता दिख रहा था, उसे कर्नाटक में करारी शिकस्त मिली है. देश में कई विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक लोकतंत्र और संविधान का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता दिख रहा था, कर्नाटक में उस पर रोक लगी है. नैतिकता का खुल कर ये प्रतिवाद किया जाता था कि सत्ता की राजनाति में जो जीतता है वही सिकंदर होता है. इसके लिए साम दाम दंड भेद कुछ भी करना पड़े तो किया जाए. ऐसे तर्क देने वालों को कर्नाटक में मुंह की खानी पड़ी है.   

सच तो ये है कि इस पूरे घटनाक्रम के हीरो के तौर पर सुप्रीम कोर्ट सामने आया है. कांग्रेस जिसने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की निष्ठा पर सवाल उठाए थे, उसी मुख्य न्यायाधीश ने आधी रात को कांग्रेस की याचिका पर तीन जजों की बेंच का गठन किया. गवर्नर के येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन देने के फैसले को चुनौती देने वाली कांग्रेस-जेडीएस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने रात भर बैठ कर त्वरित फैसला लिया. 15 दिन की इस समयसीमा को घटाकर 34 घंटे कर दिया. जाहिर है खरीदफरोख्त की कोशिशों के जितने भी आरोप लग रहे थे, वो इतने कम वक्त में असलियत में तब्दील होना मुमकिन ही नहीं थे. बीजेपी अब जितना भी खुद को शहीद दिखाने की कोशिश करे लेकिन उसका वो कार्ड सफल नहीं हो पाएगा.

दरअसल, कर्नाटक में बीजेपी की जो भी टॉप लीडरशिप थी, चाहे वो येदियुरप्पा खुद हों या श्रीरामुलु, उनके खुद ही ऑडियो सामने आ गए जिनमें वो कथित तौर पर कांग्रेस विधायक को अपने पाले में आने की पेशकश करते दिखे. माइनिंग किंग जी जनार्दन रेड्डी तो एक ऑडियो में कांग्रेस विधायक आनंद सिंह को कथित तौर पर ये कहते सुनाई दिए कि पाला बदलोगे तो आधी रात से ही अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह सदन में शक्ति परीक्षण को साफ सुथरा रखने के लिए नियम तय किए उन्होंने भी खरीदफरोख्त की किसी भी संभावना को खत्म कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि सीक्रेट बैलेट से वोट की अनुमति नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट ने साथ ही कर्नाटक के डीजीपी को विधायकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भी आदेश दिया था. ये सब कुछ वो था जिसने देश के हर नागरिक की नजर कर्नाटक पर कर दी थी. ऐसे में कुछ भी अनैतिक कर पाना ना तो किसी पार्टी के लिए संभव था और ना ही किसी विधायक के लिए. अगर कोई विधायक पाला बदलता या फ्लोर टेस्ट में अनुपस्थित रहता तो उसे अपने क्षेत्र की जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता जिसने उस पर विश्वास दिखाते हुए चुना था.

कर्नाटक में इस बार कांग्रेस और जेडीएस ने भी अपने अपने विधायकों को अपने साथ जुटाए रखने के लिए मजबूती किलेबंदी की. इसके लिए कांग्रेस की ओर से डीके शिवकुमार, गुलाम नबी आजाद, अशोक गहलोत और जेडीएस की ओर से कुमारस्वामी-देवेगौड़ा ने अच्छा प्रबंधन दिखाया.

हालांकि कर्नाटक के घटनाक्रम को किसी की हार या किसी की जीत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. ये जीत है नैतिकता की, देश की न्याय व्यवस्था की. साथ ही ये हार है उस प्रवृत्ति की जिसे ‘चाणक्य नीति’ का नाम देकर सत्ता हासिल करने के लिए अनैतिक कामों को अंजाम देने से भी परहेज नहीं किया जाता. इसके लिए राजभवनों की साख को दांव पर लगाने से भी परहेज नहीं किया गया.

कर्नाटक का घटनाक्रम देश की भावी राजनीति की दिशा और दशा तय करने में भी बड़ी भूमिका निभाएगा. कर्नाटक ने ये भी संदेश दिया है लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश में सशक्त विपक्ष का होना भी जरूरी है. यहां से 2019 लोकसभा चुनाव के लिए देश भर में विपक्ष को एकजुट होने का आधार मिला है. कर्नाटक के बाद एकजुट विपक्ष की अगली अग्निपरीक्षा यूपी में कैराना लोकसभा सीट के 28 मई को होने वाले उपचुनाव में है जहां बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय लोकदल, समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस ने साझा उम्मीदवार खड़ा किया है.

येदियुरप्पा ने शनिवार को कर्नाटक विधानसभा में अपना भाषण देते हुए भावुकता का पूरा कार्ड खेला. उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले कहा कि वे अब चैन से नहीं बैंठेगे और पूरे राज्य में घूमेंगे. येदियुरप्पा ने कहा कि वे अगले चुनाव में 150 सीट जीत कर आएंगे और साथ ही लोकसभा चुनाव में राज्य से बीजेपी सारी सीटें जीतेगी. येदियुरप्पा और बीजेपी को जब ये लग गया कि वे बहुमत का नंबर नहीं जुटा पाएंगे तो उन्होंने भावुकता का कार्ड चलने का फैसला किया. विधानसभा से सीधे लाइव टेलीकास्ट के दौरान येदियुरप्पा की आंखों में आंसू भी देखे गए. येदियुरप्पा की स्पीच वैसे ही थी जैसे 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी 13 दिन की सरकार गिरने से पहले दी थी.  

राजनीति के अंधियारे में कर्नाटक से नैतिकता की सुनहरी किरण जो निकली है उससे कहीं ना कहीं उम्मीद जगती है कि लोकतंत्र में सिर्फ तंत्र ही नहीं बचा रह गया है, अगर संविधान निर्माताओं के दिखाए रास्ते पर चला जाए तो ‘लोक’ यानी जनता की आवाज ही सबसे ऊपर रखी जानी चाहिए.        

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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