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इस रणनीति से एंटी-इनकंबेंसी को मात देगी बीजेपी

    • बिजय कुमार
    • Updated: 25 जून, 2018 04:15 PM
  • 25 जून, 2018 04:15 PM
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राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं. एंटी-इनकंबेंसी से पार पाने के लिए पार्टी नए चेहरों पार भरोसा दिखा सकती है जिससे एक फायदा ये भी होगा कि पार्टी का आधार बढ़ेगा और लोगों का विश्वास भी.

आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी अपने सांसदों के बारे में लगातार आंतरिक सर्वे और फीडबैक ले रही है, और ये देख रही है कि जनता के बीच उनकी कितनी पकड़ बची है. हाल ही में सूरजकुंड में हुए बीजेपी संगठन के तीन दिवसीय मंथन शिविर से भी कुछ इसी तरह की खबरें आई थीं. ऐसा माना जा रहा है कि बेरोजगारी, महंगाई और कुछ सांसदों के रवैये से जनता निराश है और इस बार के चुनावों में बीजेपी को एंटी-इनकंबेंसी का भी सामना करना पड़ेगा.

साथ ही विपक्ष के एक साथ आने से भी पार्टी की मुश्किलें बढ़ी हैं. ऐसे में पार्टी इन सबको मात देने के लिए अपनी स्ट्रेटेजी तैयार कर रही है जिसमें सबसे पहली बात जो देखने को मिल सकती है वो होगी कई मौजूदा सांसदों को टिकट ना देना. पार्टी की इस रणनीति की एक झलक हमें इस साल के अंत में होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनावों में देखने को मिलेगी, जहां ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी कई मौजूदा विधायकों के टिकट काट सकती है.

इस रणनीति से एंटी-इनकंबेंसी को मात देगी बीजेपी

वैसे ऐसा नहीं है कि बीजेपी खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ये कोई नयी बात हो, हमने देखा है कि कैसे नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो विधानसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं दिए जाते थे. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 30 विधायकों के टिकट काटे थे तो वहीं 2007 विधानसभा चुनाव में ये संख्या 47 थी. पिछले साल के गुजरात विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने बड़े स्तर पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटे थे.

बात राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा की करें तो इनके लिए इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं और इन राज्यों में बीजपी के लिए सबसे बडी चुनौती एंटी-इनकंबेंसी से...

आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी अपने सांसदों के बारे में लगातार आंतरिक सर्वे और फीडबैक ले रही है, और ये देख रही है कि जनता के बीच उनकी कितनी पकड़ बची है. हाल ही में सूरजकुंड में हुए बीजेपी संगठन के तीन दिवसीय मंथन शिविर से भी कुछ इसी तरह की खबरें आई थीं. ऐसा माना जा रहा है कि बेरोजगारी, महंगाई और कुछ सांसदों के रवैये से जनता निराश है और इस बार के चुनावों में बीजेपी को एंटी-इनकंबेंसी का भी सामना करना पड़ेगा.

साथ ही विपक्ष के एक साथ आने से भी पार्टी की मुश्किलें बढ़ी हैं. ऐसे में पार्टी इन सबको मात देने के लिए अपनी स्ट्रेटेजी तैयार कर रही है जिसमें सबसे पहली बात जो देखने को मिल सकती है वो होगी कई मौजूदा सांसदों को टिकट ना देना. पार्टी की इस रणनीति की एक झलक हमें इस साल के अंत में होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनावों में देखने को मिलेगी, जहां ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी कई मौजूदा विधायकों के टिकट काट सकती है.

इस रणनीति से एंटी-इनकंबेंसी को मात देगी बीजेपी

वैसे ऐसा नहीं है कि बीजेपी खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ये कोई नयी बात हो, हमने देखा है कि कैसे नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो विधानसभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं दिए जाते थे. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 30 विधायकों के टिकट काटे थे तो वहीं 2007 विधानसभा चुनाव में ये संख्या 47 थी. पिछले साल के गुजरात विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने बड़े स्तर पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटे थे.

बात राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा की करें तो इनके लिए इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं और इन राज्यों में बीजपी के लिए सबसे बडी चुनौती एंटी-इनकंबेंसी से पार पाने की होगी. जिसके लिए पार्टी नए चेहरों पार भरोसा दिखा सकती है जिससे एक फायदा ये भी होगा कि पार्टी का आधार बढ़ेगा और लोगों का विश्वास भी. इन राज्यों में बीजपी के लिए मध्य प्रदेश सबसे बड़ी चुनौती दिख रहा है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह तीसरा कार्यकाल है ऐसे में जनता दूसरे विकल्प का भी बटन दबा सकती है. वैसे हमने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में इससे पहले भी देखा है कि इस तरह की बातें आई हों लेकिन शिवराज के नेतृत्व में पार्टी को हर बार सफलता मिली है. 2015 में हुए रतलाम लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी जबकि 2014 में ये सीट बीजेपी के पास थी तो वहीं 2016 में हुए शहडोल लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी इस सीट को बचाने में कामयाब रही थी.

आइए एक नजर डालते हैं 2013 के विधानसभा रिजल्ट पर-

बीजेपी 165
कांग्रेस 58
बसपा 4
निर्दलीय 3

राजस्थान के लिए ये कहा जाता है कि हर चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ता है ऐसे में इस बार भी यहां वैसी ही लहर देखने को मिल रही है और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस यहां वापसी की पूरी उम्मीद लगा रही है. कह सकते हैं कि हाल के लोकसभा उपचुनावों में जीत ने कांग्रेस पार्टी के मनोबल को काफी बढ़ाया है. 2014 के लोकसभा चुनाव में अजमेर और अलवर दोनों ही सीटों पर बीजपी ने जीत दर्ज की थी लेकिन 2018 में हुए उपचुनावों में कांग्रेस ने दोनों ही सीटों पर बड़ी जीत दर्ज की थी. इसके बाद ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश में वसुंधरा के नेतृत्व वाली सरकार की पकड़ कुछ ढीली हुई है क्योंकि 2013 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था.

बीजेपी 163
कांग्रेस 21
बसपा 3
निर्दलीय 7
राष्ट्रीय पीपल्स पार्टी 4

अब छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां भी बीजेपी के नेतृत्व वाली रमन सिंह सरकार पर विपक्षी दलों ने हमले तेज कर दिए हैं. कांग्रेस प्रदेश में भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बना रही है साथ ही रमन सिंह पर व्यक्तिगत हमले भी कर रही है. वैसे कांग्रेस की राह भी इतनी आसान नहीं होगी क्योंकि प्रदेश में पार्टी के पास अजित जोगी जैसे नेता की कमी दिखती है. 2013 के विधानसभा नतीजों पर नजर डालें तो-

बीजेपी 49
कांग्रेस 39
बसपा 1
निर्दलीय 1

कह सके हैं कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही दलों के बीच इन राज्यों में सीधी लड़ाई है और ऐसा माना जा रहा है कि ये लोकसभा चुनाव 2019 के सेमीफइनल की तरह है जिसे जीतकर दोनों ही दल पूरे भरोसे के साथ चुनाव में जाना चाहेंगे. वैसे कांग्रेस के लिए एक चुनौती ये भी है कि वो 2019 में कैसे बीजेपी के खिलाफ दूसरे दलों को साथ ला पाती है क्योंकि पार्टी मौजूदा समय में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को टक्कर देने में अकेले दम पर सक्षम नहीं दिख रही है और इन तीनों ही राज्यों में विपक्षी पार्टियों खासकर बहुजन समाज पार्टी को साथ लाने में अगर कांग्रेस कामयाब हो जाती है तो टक्कर मजेदार होने की पूरी संभावना है. वैसे भी हाल ही में बीजेपी के लिए विपक्ष उपचुनावों में मुश्किल तभी साबित हुआ है जब वो एक साथ आया है.   

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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