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त्रिपुरा में बीजेपी के सिफर से शिखर तक का शानदार सफर काफी दिलचस्प है

    • आईचौक
    • Updated: 03 मार्च, 2018 04:59 PM
  • 03 मार्च, 2018 04:06 PM
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बीजेपी तकरीबन सभी चुनावों में सत्ता पर काबिज नेताओं पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगाती रही है. त्रिपुरा में माणिक सरकार की छवि इसमें आड़े आ जाती रही. फिर बीजेपी ने टीम वर्क पर जोर दिया और ट्रंप कार्ड भी आजमाया - नतीजा सामने है.

त्रिपुरा में बीजेपी जीत यूं ही ऐतिहासिक नहीं है. इस जीत के कई आयाम हैं - और इसके तमाम किरदार भी. त्रिपुरा में बीजेपी की दिक्कत इसलिए भी कहीं अलग रही क्योंकि टारगेट भी बिलकुल अलग किस्म का रहा.

अब तक बीजेपी चुनावों में सत्ता पर काबिज नेताओं पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगाती रही, त्रिपुरा में माणिक सरकार की छवि के चलते ये दांव बेकार चला जाता. बीजेपी असम, यूपी और मेघालय से लेकर कर्नाटक तक हर सरकार को सबसे भ्रष्ट बताती रही लेकिन त्रिपुरा में माणिक सरकार इस मुद्दे पर जबान पर अपनी इमानदारी का ताला जड़ देते. मजबूरन, बीजेपी ने त्रिपुरा में दूसरे स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया. हालांकि, निचले स्तर पर माणिक सरकार भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में नाकाम होते गये जो उनके लिए हानिकारक साबित हुआ.

त्रिपुरा में भी एक वक्त ऐसा भी आया जब बीजेपी को सत्ता करीब आकर हाथ से फिसलती नजर आई. ऐन वक्त पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपना ट्रंप कार्ड भी चल दिया - योगी आदित्यनाथ. योगी आदित्यनाथ सीएम यूपी के और ट्रंप कार्ड त्रिपुरा में? सवाल बिलकुल वाजिब है, लेकिन यही तो खास बात है!

तो ये है गुरुदक्षिणा!

संघ और बीजेपी के तमाम लोग जब दूसरे रीति रिवाजों और परंपरागत कामों में उलझे रहते हैं, अमित शाह अर्जुन के मछली की आंख की तरह चुनाव रणनीति तैयार कर रहे होते हैं. यही बात अमित शाह को बीजेपी में बाकियों से अलग करती है और लगातार कामयाब भी बनाती है. अमित शाह की खासियत है कि छोटी से छोटी चीज को भी वो अहमियत के तराजू पर तौलते हैं और फिर उसी हिसाब से काम में जुट जाते हैं.

...और ये रही गुरुदक्षिणा!

बीजेपी महासचिवों की एक बैठक में कुछ लोग त्रिपुरा को लेकर ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे. अमित शाह ने साफ तौर पर कह दिया - 'भले त्रिपुरा छोटा राज्य...

त्रिपुरा में बीजेपी जीत यूं ही ऐतिहासिक नहीं है. इस जीत के कई आयाम हैं - और इसके तमाम किरदार भी. त्रिपुरा में बीजेपी की दिक्कत इसलिए भी कहीं अलग रही क्योंकि टारगेट भी बिलकुल अलग किस्म का रहा.

अब तक बीजेपी चुनावों में सत्ता पर काबिज नेताओं पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगाती रही, त्रिपुरा में माणिक सरकार की छवि के चलते ये दांव बेकार चला जाता. बीजेपी असम, यूपी और मेघालय से लेकर कर्नाटक तक हर सरकार को सबसे भ्रष्ट बताती रही लेकिन त्रिपुरा में माणिक सरकार इस मुद्दे पर जबान पर अपनी इमानदारी का ताला जड़ देते. मजबूरन, बीजेपी ने त्रिपुरा में दूसरे स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया. हालांकि, निचले स्तर पर माणिक सरकार भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में नाकाम होते गये जो उनके लिए हानिकारक साबित हुआ.

त्रिपुरा में भी एक वक्त ऐसा भी आया जब बीजेपी को सत्ता करीब आकर हाथ से फिसलती नजर आई. ऐन वक्त पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपना ट्रंप कार्ड भी चल दिया - योगी आदित्यनाथ. योगी आदित्यनाथ सीएम यूपी के और ट्रंप कार्ड त्रिपुरा में? सवाल बिलकुल वाजिब है, लेकिन यही तो खास बात है!

तो ये है गुरुदक्षिणा!

संघ और बीजेपी के तमाम लोग जब दूसरे रीति रिवाजों और परंपरागत कामों में उलझे रहते हैं, अमित शाह अर्जुन के मछली की आंख की तरह चुनाव रणनीति तैयार कर रहे होते हैं. यही बात अमित शाह को बीजेपी में बाकियों से अलग करती है और लगातार कामयाब भी बनाती है. अमित शाह की खासियत है कि छोटी से छोटी चीज को भी वो अहमियत के तराजू पर तौलते हैं और फिर उसी हिसाब से काम में जुट जाते हैं.

...और ये रही गुरुदक्षिणा!

बीजेपी महासचिवों की एक बैठक में कुछ लोग त्रिपुरा को लेकर ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे. अमित शाह ने साफ तौर पर कह दिया - 'भले त्रिपुरा छोटा राज्य है लेकिन भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण इसलिए है कि ये जीत न सिर्फ चुनावी जीत होगी, बल्कि ये वैचारिक जीत भी साबित होगी.' अमित शाह किसी भी चुनाव पर बहुत पहले ही काम शुरू कर देते हैं और रिजल्ट का भी अंदाजा लगा लेते हैं - त्रिपुरा के साथ भी ऐसा हो चुका है. जिस त्रिपुरा में बीजेपी की हिस्सेदारी सिफर रही, उसके बारे में अमित शाह साल भर पहले ही आश्वस्त नजर आ रहे थे. एक दिन शाह ने संघ के सीनियर नेताओं से कहा था कि विजयादशमी पर दिया जाने वाला गुरु-दक्षिणा वो 'अगले साल' यानी 2018 में समर्पित करेंगे. असल में ये गुरुदक्षिणा त्रिपुरा में बीजेपी की जीत रही. ये बात पिछले ही साल की है. अमित शाह ने त्रिपुरा के संदर्भ में कथनी को बड़ी ही संजीदगी से करनी में तब्दील कर दिया है.

शून्य से शिखर का सफर

पिछले चुनाव में बीजेपी के वोट शेयर पर नजर डालें तो वो महज 1.5 फीसदी रहा, जबकि इस बार ये 40 फीसदी से भी ज्यादा है - और बीजेपी गठबंधन के हिसाब से देखें तो 50 फीसदी के करीब. फिर तो माना ही जा सकता है कि सूबे के आधा वोटर बीजेपी गठबंधन के साथ हैं. माणिक सरकार त्रिपुरा में 1998 से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए थे. इस बार भी उन्हें सत्ता बनाये रखने की उम्मीद रही.

माणिक सरकार के मुख्यमंत्री बनने के पहले से ही 1993 से लेफ्ट फ्रंट की सरकार का ही सत्ता पर कब्जा रहा है. धीरे धीरे ऐसा लगने लगा था कि पश्चिम बंगाल और केरल की तरह त्रिपुरा भी लेफ्ट का किला बन चुका है. वैसे तो बीजेपी ने केरल और पश्चिम बंगाल में भी काफी कोशिश की लेकिन पहली बार उसे त्रिपुरा में ही कामयाबी मिल पायी है.

ट्रंप कार्ड और टीम वर्क

त्रिपुरा में बीजेपी को असम और यूपी जैसी ही जीत मिली है. जीत का श्रेय एक स्वर से सभी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देने लगे हैं. गुजरात के संदर्भ में ये बात ज्यादा माकूल रही, लेकिन त्रिपुरा में टीम वर्क और अमित शाह के ट्रंप कार्ड का भी कमाल है.

त्रिपुरा में लेफ्ट के 25 साल पुराने चटख लाल रंग पर भगवा गुलाल की होली खेलना बड़ा ही मुश्किल काम था. मानना पड़ेगा अमित शाह के चुनावी इंतजाम, उसे अमलीजामा पहनाने वाली टीम वर्क और ऐन वक्त पर ट्रंप कार्ड के इस्तेमाल की. त्रिपुरा में अमित शाह के ट्रंप कार्ड यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ रहे.

25 साल बाद...

त्रिपुरा में योगी आदित्यनाथ ने 7 जगह चुनाव प्रचार किये और उनमें से 5 पर बीजेपी ने भगवा फहराया है. ये इलाके त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय के वर्चस्व की कहानी कह रहे हैं.

त्रिपुरा के इस हिंदू वोटबैंक पर बीजेपी की नजर पहले ही टिक गयी थी जहां तकरीबन 35 फीसदी आबादी नाथ संप्रदाय से है. दरअसल, योगी आदित्यनाथ पूरे देश में नाथ संप्रदाय के प्रमुख हैं. योगी आदित्यनाथ इससे पहले बीजेपी के लिए गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों में भी प्रचार कर चुके हैं लेकिन त्रिपुरा में ही वो सबसे बड़े स्टार साबित हो पाये. योगी नाथ संप्रदाय की गोरक्षनाथ पीठ के महंथ हैं. त्रिपुरा में गोरक्षनाथ के दो मंदिर हैं, एक अगरतला में और दूसरा धर्मनगर में.

त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय को मानने वाले ओबीसी कोटे में आते हैं, लेकिन उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं अब तक नहीं मिल पाया है. एससी और एसटी को मिल रहे 48 फीसदी आरक्षण के कारण माणिक की सरकार अब तक हाथ खड़े कर देती रही. फिर प्रधानमंत्री मोदी ने समझाया कि त्रिपुरा के लोगों को माणिक सूट नहीं कर रहा इसलिए उन्हें हीरा पहनना चाहिये. लोगों ने मोदी की बात मान ली. मोदी के हीरा कहने का मतलब रहा - H यानी हाइवे, I यानी आई-वे (I-way), R यानी रोड और A यानी एयर वे.

मोदी, शाह और राम माधव से इतर देखें तो त्रिपुरा की जीत ऐसे कई रत्न हैं जिनकी अहम भूमिका रही है. इनमें बीजेपी के प्रभारी सुनील देवधर और प्रदेश अध्यक्ष विप्लव देब.

त्रिपुरा के तीरंदाज - विप्लव देब और सुनील देवधर

खांटी मराठी सुनील देवधर फर्राटेदार बंगाली बोलते हैं और सबसे बड़ी खासियत है कि कहीं भी भेज दिया जाये वो वहां के लोगों से उन्हीं की भाषा में बात करने लगते हैं. लंबे अरसे तक संघ के प्रचारक रहे सुनील देवधर यूपी में विशेष रूप से वाराणसी के आस पास काफी काम किया है - और यही वजह रही कि उन्हें त्रिपुरा की जिम्मेदारी सौंप दी गयी.

सुनील देवधर की ही तरह विप्लव देब भी हैं. तात्कालिक तौर पर इनकी दो खासियतें जिक्र के ज्यादा लायक हैं - एक, विप्लव देब के खिलाफ कोई भी आपराधिक मुकदमा नहीं है जो आज के दौर में अति दुर्लभ नेता माने जाएंगे. दूसरा, मुख्यमंत्री पद की रेस में वो फिलहाल सबसे आगे बताये जा रहे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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