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संगठन के मोर्चे पर विपक्ष चित और भाजपा सफल क्‍यों

    • शिवानन्द द्विवेदी
    • Updated: 02 मई, 2017 08:16 PM
  • 02 मई, 2017 08:16 PM
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नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यों के माध्यम से जनता के बीच जा रहे हैं तो वहीं पार्टी के संगठनात्मक प्रमुख होने के नाते अमित शाह जनता के बीच लगातार पहूंच बना रहे हैं.

दिल्ली में एमसीडी चुनाव के परिणाम आए और भाजपा ने प्रचंड जनादेश हासिल किया और विधानसभा में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा है. कुल 270 सीटों में भाजपा को 181 सीटों पर जीत मिली है तो वहीँ आम आदमी पार्टी महज 48 सीटें जीत सकी है. अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस को 30 सीटों पर संतोष करना पड़ा है.परिणाम आने के तुरंत बाद इस हार पर आत्ममंथन की बजाय आम आदमी पार्टी इसका ठीकरा इवीएम पर फोड़ती नजर आई, जो कि जनता द्वारा स्वीकार्य नहीं है. आज भाजपा क्यों जीत रही है और उनकी हार क्यों हुई है, इसके मूल कारण को न समझकर बेवजह के तर्कों से आगे की राह नहीं खुल सकती है.

खैर, जब इस चुनाव के नतीजे टीवी मीडिया में दिखाए जा रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भारत के पूर्वी छोर पर स्थित पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से पत्रकार वार्ता को संबोधित कर रहे थे. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष इस समय पंडित दीन दयाल उपाध्याय विस्तारक योजना के तहत बूथ स्तर पर पार्टी के विस्तार और मजबूती की मुहीम लेकर निकले हैं. अभी अगले कुछ महीनों तक वे प्रवास पर रहकर बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करेंगे.

सत्ता और संगठन में कारगर सामंजस्य  

लोकसभा चुनाव 2014 के बाद हुए तमाम चुनावों में सिर्फ दिल्ली और बिहार दो ऐसे राज्य थे, जहां विधानसभा में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन हार के बावजूद भाजपा ने अपने जनाधार की पकड़ को दरकने नहीं दिया था. वर्ष 2015 में दिल्ली विधानसभा में करारी शिकस्त के बावजूद भाजपा अपने वोट फीसद को बरकरार रखने में कामयाब रही थी. दलीय लोकतंत्र में सीटों के मोर्चे पर खिसकना अलग बात होती है और जनाधार के मोर्चे पर कमजोर होने के अलग मायने होते हैं. पिछले कुछ वर्षों में अगर देखा जाए तो कांग्रेस ने सीटें तो गवाई ही...

दिल्ली में एमसीडी चुनाव के परिणाम आए और भाजपा ने प्रचंड जनादेश हासिल किया और विधानसभा में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा है. कुल 270 सीटों में भाजपा को 181 सीटों पर जीत मिली है तो वहीँ आम आदमी पार्टी महज 48 सीटें जीत सकी है. अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस को 30 सीटों पर संतोष करना पड़ा है.परिणाम आने के तुरंत बाद इस हार पर आत्ममंथन की बजाय आम आदमी पार्टी इसका ठीकरा इवीएम पर फोड़ती नजर आई, जो कि जनता द्वारा स्वीकार्य नहीं है. आज भाजपा क्यों जीत रही है और उनकी हार क्यों हुई है, इसके मूल कारण को न समझकर बेवजह के तर्कों से आगे की राह नहीं खुल सकती है.

खैर, जब इस चुनाव के नतीजे टीवी मीडिया में दिखाए जा रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भारत के पूर्वी छोर पर स्थित पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से पत्रकार वार्ता को संबोधित कर रहे थे. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष इस समय पंडित दीन दयाल उपाध्याय विस्तारक योजना के तहत बूथ स्तर पर पार्टी के विस्तार और मजबूती की मुहीम लेकर निकले हैं. अभी अगले कुछ महीनों तक वे प्रवास पर रहकर बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करेंगे.

सत्ता और संगठन में कारगर सामंजस्य  

लोकसभा चुनाव 2014 के बाद हुए तमाम चुनावों में सिर्फ दिल्ली और बिहार दो ऐसे राज्य थे, जहां विधानसभा में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन हार के बावजूद भाजपा ने अपने जनाधार की पकड़ को दरकने नहीं दिया था. वर्ष 2015 में दिल्ली विधानसभा में करारी शिकस्त के बावजूद भाजपा अपने वोट फीसद को बरकरार रखने में कामयाब रही थी. दलीय लोकतंत्र में सीटों के मोर्चे पर खिसकना अलग बात होती है और जनाधार के मोर्चे पर कमजोर होने के अलग मायने होते हैं. पिछले कुछ वर्षों में अगर देखा जाए तो कांग्रेस ने सीटें तो गवाई ही हैं, जनाधार भी खो दिया है. वर्ष 2015 में प्रचंड बहुमत से जीत कर आने वाली आम आदमी पार्टी ने 2017 में हुए एमसीडी चुनावों में अपना जनाधार खोया है. दलीय प्रणाली के संसदीय लोकतंत्र में सीटें जीतना और सियासी समीकरण तैयार करके सत्ता तक पहुंचना यह एक अलग बात है और पार्टी का संगठनात्मक बुनियाद मजबूत करना अलग बात.

अमित शाह इस समय संगठन विस्तार और इसकी मजबूती पर ही अपनी सारी ताकत लगा रहे हैं. वैसे तो राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते अमित शाह की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक यह है कि उन्होंने भाजपा को सदस्यता अभियान के माध्यम से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित किया है. बावजूद इसके वो उन क्षेत्रों को चिन्हित किए हुए जमीनी स्तर पर काम में लगे हैं, जहां पार्टी को अभी मजबूत करने की जरूरत है. दलीय लोकतंत्र में किसी भी दल के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह सत्ता और संगठन दोनों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए समानांतर रूप से आगे बढे. भाजपानीत सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यों के माध्यम से जनता के बीच जा रहे हैं तो वहीँ पार्टी के संगठनात्मक प्रमुख होने के नाते अमित शाह जनता के बीच लगातार पहूंच बना रहे हैं.

जनाधार की कसौटी भाजपा सफल, बाकी फेल

दिल्ली में एमसीडी चुनाव परिणाम इस नाते बेहद ख़ास रहे और महज निकाय चुनाव होने के बावजूद भी राष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ियों में बने रहे क्योंकि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यही वो रणक्षेत्र था जहां पहली बार वर्ष 2015 में भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी और भाजपा को महज तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा था. हालांकि यह भाजपा के संगठनात्मक जनाधार की मजबूती ही थी कि उस दुर्दिन की स्थिति में भी भाजपा के वोट फीसद पर असर डाल पाने में आम आदमी पार्टी की प्रचंड लहर कामयाब नहीं हो सकी.

सीटों के खेल में हार चुकी भाजपा जनाधार की कसौटी पर उसी तरह अडिग खड़ी नजर आई. भाजपा को संगठन निर्माण की यह नीति विरासत से मिली है. भाजपा के आदर्श पुरुष पंडित दीन दयाल उपाध्याय खुद संगठन कौशल में महारत रखने वाले व्यक्ति थे. भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि मुझे दो और दीन दयाल दे दीजिये तो मै इस देश की राजनीति का चरित्र बदल दूंगा. इसमें कोई शक नहीं कि बेहद कम समय में विपक्ष से विकल्प के सफ़र में संगठन और सत्ता के बीच जो समन्वय आज भारतीय जनता पार्टी ने खड़ा किया है, वह दीन दयाल उपाध्याय जैसे संगठन कौशल में निपुण नेतृत्वकर्ताओं की प्रेरणा से ही संभव है.

जनादेश को जनाधार समझने की भूल कर बैठे केजरीवाल

प्रचंड जनादेश से सत्ता में आने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी अनेक गलतियां करते गए. सबसे बड़ी चूक यहां हुई कि दिल्ली में मिले प्रचंड बहुमत के जनादेश को उन्होंने अपना जनाधार समझने की भूल की. जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि जनादेश त्वरित होता है एवं इसमें स्थायित्व की कमी होती है जबकि जनाधार की बुनियाद जमीनी संघर्ष से प्राप्त होती है और लंबे समय तक टिकाऊ भी होती है. आम आदमी पार्टी ने जनादेश को जनाधार में बदलने की दिशा में सरकार एवं संगठन के स्तर पर कोई ठोस उपाय नहीं किया.

अगर गौर करें तो एक जमाने में कांग्रेस की संगठनात्मक पहुंच जिला-जिला और गांव-गांव तक होती थी. जिला इकाइयां सक्रीय होती थीं और उन्हीं इकाइयों की बदौलत कांग्रेस ने देश की राजनीति को छ: दशकों तक प्रत्यक्ष तौर प्रभावित किया और सत्ता में भी रही. इन छ: दशकों में जब कांग्रेस के पास संगठन और सरकार दोनों थे, भाजपा ने अपने संगठन विस्तार में अथक मेहनत की, जिसका फल उसे अब मिल रहा है.

इवीएम नहीं कहीं और है खोट

इन चुनाव परिणामों के बाद इवीएम को दोष देने की बजाय बाकी दलों को यह समझना होगा कि आज अगर भाजपा सत्ता में है तो वह सत्ता की तरफ एकोंमुख होकर सत्ता सुख लेने में मशगूल नहीं है. लगभग 11 करोड़ सदस्यों वाली दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अगर नक्सलबाड़ी के बूथ संख्या 93 पर पहुंचकर अगर यह कहता है कि यहां मैं बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बल्कि भाजपा के एक कार्यकर्ता के रूप में आया हूं और बूथ स्तर पर पार्टी को और मजबूत किया जाए, संगठन को और सुदृढ़ किया जाए इस दिशा में काम कर रहा हूं, तो इसके मायने बेहद अहम् और समझने योग्य हैं.

संगठन निर्माण को लेकर यह जीवटता फिलहाल किसी भी और राजनीतिक दल में नहीं दिख रही है. देश की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के संगठन में शीर्ष पर अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी अथवा उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संगठनात्मक ढांचे की मजबूती के लिए कोई ऐसा प्रयास किया हो, नजर नहीं आता. वामपंथी दलों में संगठन की भूमिका जरुर रही है लेकिन वे अपनी अतिवादी चरित्र और अभारतीय सोच की वजह से आम जनमानस से दूर होते गए. आज अगर भाजपा के बरक्स राजनीति में खुद को खड़ा करना है तो बाकी दलों को भाजपा संगठन और सरकार के माध्यम से कैसे आम जनता के बीच पहुंचना और जोड़ना है, सीखना होगा. भाजपा की नर्सरी ही संगठन आधारित है जबकि बाकी दलों का कुल अस्तित्व सत्ता आधारित है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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