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गुजरात में 2014 के चुनाव कैंपेन की तरह मोदी आगे - बीजेपी पीछे हो गई है

    • आईचौक
    • Updated: 10 दिसम्बर, 2017 03:48 PM
  • 10 दिसम्बर, 2017 03:48 PM
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गुजरात में बीजेपी की चुनावी मुहिम 2014 के आम चुनाव की तरह मोदी पर फोकस हो गयी है, फिर विकास और दूसरे मुद्दों की बात कौन करे भला...

गुजरात में 68 फीसदी वोटिंग के साथ पहला चरण पूरा हो चुका है और अब बाकी बची 93 सीटों के लिए हर कोई जी जान से जुटा है. दूसरे चरण का मतदान 14 दिसंबर को है - और नतीजे 18 को आने हैं. इस दौरान चुनाव प्रचार में, खासकर बीजेपी के कैंपेन में, बड़ा रणनीतिक बदलाव देखने को मिल रहा है.

गुजरात में बीजेपी के चुनाव कैंपेन पर गौर करें तो उसमें 2014 के चुनाव प्रचार की साफ झलक देखने को मिल रही है. ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव कैंपेन मुद्दों से उठ कर एक बार फिर मोदी पर फोकस हो गया है और, फिर से - 'विकास गांडो थयो छे'

गुजरात में 2014 की झलक

2014 के चुनाव कैंपेन को याद कीजिए. कैंपेन कुछ इस तरह डिजाइन किया गया था कि मोदी की रैली से पहले हर तरफ उनका चेहरा नजर आये और रैली खत्म होने के बाद भी मोदी का नाम और चेहरा लोगों के दिमाग में पूरी तरह रजिस्टर हो जाये. आखिरी दौर आते आते मोदी का लहजा भी बदल गया. बीजेपी के लिए वोट मांगने की जगह मोदी खुद के नाम पर वोट देने की अपील करने लगे - 'भाइयों और बहनों मुझे वोट दीजिए.' कहने का मतलब मोदी ने अपने फेस वैल्यू पर वोट मांगे.

"हूं गुजरात छूं..."

अब जरा गुजरात चुनाव पर ध्यान दीजिए. पहले पाटीदार आंदोलन, आदिवासियों का मसला और दलितों की पिटाई जैसे मुद्दे चुनावी मार्केट में छाये रहे, लेकिन लगता है जैसे ये सब के सब गायब हो चुके हैं. अब अगर कुछ सुनायी पड़ता है तो बस मोदी का फेस वैल्यू और कांग्रेस की खामियां. अगर मणिशंकर अय्यर ने मोदी को 'नीच' नहीं कहा होता तो भी क्या बीजेपी का कैंपेन इसी तरह मोदी पर फोकस होता? क्या मणिशंकर का बयान पहले या बाद में आता तो भी क्या चुनाव प्रचार का यही हाल होता?

गुजरात में 68 फीसदी वोटिंग के साथ पहला चरण पूरा हो चुका है और अब बाकी बची 93 सीटों के लिए हर कोई जी जान से जुटा है. दूसरे चरण का मतदान 14 दिसंबर को है - और नतीजे 18 को आने हैं. इस दौरान चुनाव प्रचार में, खासकर बीजेपी के कैंपेन में, बड़ा रणनीतिक बदलाव देखने को मिल रहा है.

गुजरात में बीजेपी के चुनाव कैंपेन पर गौर करें तो उसमें 2014 के चुनाव प्रचार की साफ झलक देखने को मिल रही है. ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव कैंपेन मुद्दों से उठ कर एक बार फिर मोदी पर फोकस हो गया है और, फिर से - 'विकास गांडो थयो छे'

गुजरात में 2014 की झलक

2014 के चुनाव कैंपेन को याद कीजिए. कैंपेन कुछ इस तरह डिजाइन किया गया था कि मोदी की रैली से पहले हर तरफ उनका चेहरा नजर आये और रैली खत्म होने के बाद भी मोदी का नाम और चेहरा लोगों के दिमाग में पूरी तरह रजिस्टर हो जाये. आखिरी दौर आते आते मोदी का लहजा भी बदल गया. बीजेपी के लिए वोट मांगने की जगह मोदी खुद के नाम पर वोट देने की अपील करने लगे - 'भाइयों और बहनों मुझे वोट दीजिए.' कहने का मतलब मोदी ने अपने फेस वैल्यू पर वोट मांगे.

"हूं गुजरात छूं..."

अब जरा गुजरात चुनाव पर ध्यान दीजिए. पहले पाटीदार आंदोलन, आदिवासियों का मसला और दलितों की पिटाई जैसे मुद्दे चुनावी मार्केट में छाये रहे, लेकिन लगता है जैसे ये सब के सब गायब हो चुके हैं. अब अगर कुछ सुनायी पड़ता है तो बस मोदी का फेस वैल्यू और कांग्रेस की खामियां. अगर मणिशंकर अय्यर ने मोदी को 'नीच' नहीं कहा होता तो भी क्या बीजेपी का कैंपेन इसी तरह मोदी पर फोकस होता? क्या मणिशंकर का बयान पहले या बाद में आता तो भी क्या चुनाव प्रचार का यही हाल होता?

बीजेपी की चुनावी मुहिम में जिस हिसाब से बदलाव नजर आ रहा है उससे तो यही लगता है कि पार्टी के रणनीतिकारों को इसका बेसब्री से इंतजार रहा होगा.

मान लें कि मणिशंकर ने बयान नहीं दिया होता तो भी क्या ऐसा ही होता? इस सवाल का जवाब भी मिल जाता है अगर सलमान निजामी के बहाने अफजल का मामला उछाले जाने पर थोड़ा ध्यान दें.

मणिशंकर का बयान ताजा जरूर है लेकिन सलमान निजामी का ट्वीट पुराना है. मोदी पर निजी हमले के हिसाब से देखें तो प्रासंगिक भी लगता है, लेकिन अफजल का जिक्र आखिर क्या जताता है? राष्ट्रवाद विमर्श. फिर तो बाकी सब देशद्रोही हो गये. है कि नहीं?

गुजरात चुनाव में बीजेपी की इस रणनीति पर सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपने कॉलम में लिखते हैं कि बीजेपी ‘विकास’ और ‘गुजरात मॉडल’ को लेकर कितनी ही बड़ी बातें क्यों न करे हकीकत में हमेशा उसकी कोशिश धार्मिक पहचान को हवा देने की ही होती है. इसके पीछे सरदेसाई की दलील है, "यदि ऐसा नहीं है तो मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने मतदाताओं को कांग्रेस राज आने पर ‘लतीफ राज’ (लतीफ एक गैंगस्टर था जिसे 1980 और 1990 के दशकों में नेताओं ने संरक्षण दिया था) आने की चेतावनी क्यों दी? क्यों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भावनगर में रोहिंग्या मुस्लिमों का मसला उठाया? और क्यों प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर को उद्‌धृत करते हुए ‘औरंगजेब राज’ का उल्लेख करेंगे? क्यों भाजपा के स्थानीय नेता युवा विपक्षी नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी का ‘हज’ के नाम से उल्लेख करते हैं या मतदाताओं को याद दिलाते हैं कि अहमद पटेल ‘मियां’ हैं?" अब तो यही लगता है कि गुजरात चुनाव भी यूपी की तरह कब्रिस्तान और श्मशान के बीच उलझा दिया गया है और विकास कहीं नीचे दब गया है. पूरा कैंपेन जैसे मोदी पर केंद्रित हो गया हो.

जो कसर बची थी खुद कांग्रेस ने ही वो पूरी कर दी. कांग्रेस ने जिस तरह मणिशंकर केस में डैमेज कंट्रोल किया सलमान निजामी के मामले में ठीक उसका उल्टा कर डाला. कांग्रेस के हिसाब से सोचें तो राजीव शुक्ला का बयान भी मणिशंकर की ही लाइन पर है, बस सब्जेक्ट अलग है.

सलमान निजामी के बहाने अफजल और मणिशंकर के जरिये मोदी ने पाकिस्तान का भी जिक्र छेड़ दिया है. कांग्रेस और उसके नेताओं को कठघरे में खड़ा करते हुए मोदी पूछ रहे हैं - 'आखिर पाकिस्तान में सेना और इंटेलीजेंस में उच्च पदों पर रहे लोग गुजरात में अहमद पटेल को सीएम बनाने की मदद की बात क्यों कर रहे हैं? आखिर इसके क्या मायने हैं?'

'मैं ही गुजरात हूं, मैं ही विकास हूं'

'मैं ही गुजरात हूं, मैं ही विकास हूं' - बीजेपी ने ये स्लोगन कांग्रेस के सोशल मीडिया कैंपेन 'विकास गांडो थयो छे' यानी विकास पागल हो गया है को काउंटर करने के लिए लाया था. जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात पहुंचे और बोले - 'मैं ही गुजरात हूं, मैं ही विकास हूं', तो इसका असर इतना जोरदार रहा कि कांग्रेस को अपना कैंपेन वापस लेने को मजबूर होना पड़ा. राहुल गांधी का कहना रहा कि ऐसा प्रधानमंत्री पद के सम्मान में किया गया.

गुजरात चुनाव में एक तरफ मोदी बाकी मुद्दों से ऊपर हो गये हैं तो निशाने पर कांग्रेस आ गयी है. बस 2014 की तरह कोई बोल नहीं रहा - 'कांग्रेस मुक्त...'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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