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आजमगढ़ में अखिलेश को भाजपा की बड़ी चुनौती - निरहुआ ही फिर से मैदान में!

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    • Updated: 06 जून, 2022 08:42 PM
  • 06 जून, 2022 08:42 PM
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आजमगढ़ (Azamgarh Bypoll) और रामपुर दोनों ही उपचुनावों में बीजेपी ने ओबीसी उम्मीदवार खड़ा किया है - लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती निरहुआ (Dinesh Lal Yadav Nirahua) हैं क्योंकि वो भी यादव हैं और मैदान में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) नहीं हैं.

निरहुआ को लेकर बीजेपी ने आजमगढ़ उपचुनाव (Azamgarh Bypoll) में अमेठी जैसा ही प्रयोग किया है. फर्क बस ये है कि अमेठी में तब राहुल गांधी खुद उम्मीदवार थे - और आजमगढ़ में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) का रोल अभी समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारक भर रहने वाला है.

भोजपुरी सिंगर-एक्टर दिनेशलाल यादव निरहुआ (Dinesh Lal Yadav Nirahua) भी राजनीति में स्मृति ईरानी की तरह मनोरंजन की दुनिया से ही कदम रख रहे हैं. वैसे तो भोजपुरी इंडस्ट्री से मनोज तिवारी और रवि किशन पहले से ही संसद पहुंचे हुए हैं, लेकिन निरहुआ को 2019 के बाद फिर से ये मौका मिला है.

जैसे 2014 में स्मृति ईरानी अमेठी से चूक गयी थीं, निरहुआ को भी 2019 में शिकस्त झेलनी पड़ी. राहुल गांधी से हार का बदला लेने के लिए स्मृति ईरानी को तो पूरे पांच साल इंतजार करने पड़े थे, लेकिन निरहुआ को ये अवसर तीन साल में ही मिल गया है. निरहुआ के आजमगढ़ उपचुनाव जीत जाने की स्थिति में खुशी तो मिलेगी ही, लेकिन जो खुशी 2019 में स्मृति ईरानी को राहुल गांधी को हरा कर मिली होगी, वैसी तो मिलने से रही - लेकिन नतीजे की जिम्मेदारी तो अखिलेश यादव के खाते में ही जाएगी.

आजमगढ़ लोक सभा उपचुनाव में तीन महीने पहले हुए यूपी विधानसभा चुनावों की भी साफ झलक देखी जा सकती है - और उसमें अखिलेश यादव और मायावती का साफ प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है, जिसका फायदा बीजेपी चाहे तो उठा भी सकती है क्योंकि सपा और बसपा आपस में ही एक दूसरे से जूझ रहे होंगे. अभी तक यही खबर आई है कि अखिलेश यादव ने बीएसपी के बड़े नेता रहे बलिहारी बाबू के बेटे सुशील आनंद का नाम फाइलन किया है, लेकिन आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है. निरहुआ को बीजेपी का टिकट मिलने के बाद से पूर्व सांसद रमाकांत यादव का नाम...

निरहुआ को लेकर बीजेपी ने आजमगढ़ उपचुनाव (Azamgarh Bypoll) में अमेठी जैसा ही प्रयोग किया है. फर्क बस ये है कि अमेठी में तब राहुल गांधी खुद उम्मीदवार थे - और आजमगढ़ में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) का रोल अभी समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारक भर रहने वाला है.

भोजपुरी सिंगर-एक्टर दिनेशलाल यादव निरहुआ (Dinesh Lal Yadav Nirahua) भी राजनीति में स्मृति ईरानी की तरह मनोरंजन की दुनिया से ही कदम रख रहे हैं. वैसे तो भोजपुरी इंडस्ट्री से मनोज तिवारी और रवि किशन पहले से ही संसद पहुंचे हुए हैं, लेकिन निरहुआ को 2019 के बाद फिर से ये मौका मिला है.

जैसे 2014 में स्मृति ईरानी अमेठी से चूक गयी थीं, निरहुआ को भी 2019 में शिकस्त झेलनी पड़ी. राहुल गांधी से हार का बदला लेने के लिए स्मृति ईरानी को तो पूरे पांच साल इंतजार करने पड़े थे, लेकिन निरहुआ को ये अवसर तीन साल में ही मिल गया है. निरहुआ के आजमगढ़ उपचुनाव जीत जाने की स्थिति में खुशी तो मिलेगी ही, लेकिन जो खुशी 2019 में स्मृति ईरानी को राहुल गांधी को हरा कर मिली होगी, वैसी तो मिलने से रही - लेकिन नतीजे की जिम्मेदारी तो अखिलेश यादव के खाते में ही जाएगी.

आजमगढ़ लोक सभा उपचुनाव में तीन महीने पहले हुए यूपी विधानसभा चुनावों की भी साफ झलक देखी जा सकती है - और उसमें अखिलेश यादव और मायावती का साफ प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है, जिसका फायदा बीजेपी चाहे तो उठा भी सकती है क्योंकि सपा और बसपा आपस में ही एक दूसरे से जूझ रहे होंगे. अभी तक यही खबर आई है कि अखिलेश यादव ने बीएसपी के बड़े नेता रहे बलिहारी बाबू के बेटे सुशील आनंद का नाम फाइलन किया है, लेकिन आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है. निरहुआ को बीजेपी का टिकट मिलने के बाद से पूर्व सांसद रमाकांत यादव का नाम फिर से चर्चा में शामिल हो गया है.

ओबीसी उम्मीदवार निरहुआ को उतार कर बीजेपी ने अखिलेश यादव को घेरने की कोशिश तो रामपुर लोक सभा उपचुनाव में भी की है, लेकिन आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी कहीं ज्यादा घिरी हुई नजर आ रही है - मुश्किल ये है कि अखिलेश यादव को जिस बात को लेकर मन में आशंका रही होगी, निरहुआ ने बिलकुल अपनी स्टाइल में उसी कमजोर नस पर धावा बोल दिया है.

'...निरहुआ डटल रहे!'

निरहुआ को जिस गाने से शोहरत मिली उसके बोल थे, '...निरहुआ सटल रहे.' अपने अश्लील बोल के कारण ये गीत विवादों में भी खूब रहा, लेकिन एक ही गीत ने दिनेशलाल यादव को रातोंरात निरहुआ हिंदुस्तानी के रूप में मशहूर कर दिया था.

अब निरहुआ ने अपने सबसे लोकप्रिय गाने को ही समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के खिलाफ हथियार बनाया है - और हमले को मारक बनाने के लिए खुद ही अपने गाने पर चुनावी पैरोडी बना डाली है - ''अखिलेश हुए फरार, निरहुआ डटल रहे''

ये साफ साफ नजर आ रहा है कि कैसे बीजेपी ने आजमगढ़ लोक सभा सीट जीतने के लिए एक हिंदू ओबीसी उम्मीदवार को मैदान में उतारा है, लेकिन निरहुआ ने लोगों से जाति और धर्म देख कर वोट न डालने की अपील की है.

निरहुआ का मुकाबला बीएसपी उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली से है जो 2014 में भी बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं. तब मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी के रमाकांत यादव को हरा कर चुनाव जीता था और गुड्डू जमाली का नंबर उसके बाद रहा.

आजमगढ़ में निरहुआ के लिए स्मृति ईरानी जैसा मौका

बीजेपी उम्मीदवार निरहुआ ने इलाके के लोगों से आजमगढ़ के लिए वोट डालने की अपील की है - और जाति-धर्म की तरह माफिया तत्वों से भी सावधान रहने के लिए आगाह किया है. निरहुआ ने ये अपील ट्विटर पर की है, जिसमें मनोज तिवारी और रवि किशन को भी टैग किया है.

निरहुआ को ही बीजेपी का टिकट क्यों: आजमगढ़ लोक सभा क्षेत्र में करीब 40 फीसदी ओबीसी वोटर हैं और उनमें 19 फीसदी यादव वोटर हैं. अब बीजेपी की निरहुआ के जरिये यादव वोट में सेंध लगाने की कोशिश तो होगी ही, बाकी गैर-यादव ओबीसी को पूरी तरह अपने पाले में करने की होगी.

आजमगढ़ में 17 फीसदी सवर्ण वोट हैं जिसे बीजेपी अपनी प्रॉपर्टी ही ही मान कर चल रही होगी क्योंकि वे तो विधानसभा चुनाव की ही तरह समाजवादी पार्टी या बीएसपी को वोट देने से रहे. अब बचते हैं मुस्लिम और दलित वोटर.

सुशील आनंद के जरिये अखिलेश यावद की कोशिश मायावती के दलित वोट बैंक पर है क्योंकि वो तो पहले ही मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर समाजवादी पार्टी के वोट बैंक पर धावा बोल चुकी हैं.

ये तो साफ है कि मुस्लिम और दलित वोटर अलग अलग चाह कर भी किसी की जीत पक्की नहीं कर सकते, लेकिन सपा और बसपा के उम्मीदवारों के हिसाब से सोचें तो मुस्लिम और दलित वोट दोनों ही का बंटवारा पक्का है.

गुड्डू जमाली के मैदान में होने के बावजूद मुस्लिम वोटर अखिलेश यादव के उम्मीदवार को वोट नहीं देंगे, ये कोई भी दावा नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही अखिलेश यादव के दलित उम्मीदवार को देख कर दलित वोटर मायावती के खिलाफ क्यों जाना चाहेगा - तब भी जब बीएसपी या एसपी की जीत पक्की न समझ में आ रही हो.

वोटों के समीकरण का जो लब्बोलुआब समझ में आता है, उसके हिसाब से बीजेपी उम्मीदवार के खाते में 17 फीसदी सवर्ण और 21 फीसदी गैर-यादव ओबीसी वोट तो पक्के ही लगते हैं. ऊपर से दलित और मुस्लिम वोटर ने भी अगर विधानसभा चुनाव जैसा रुख अपनाया तो भी सपा और बसपा नुकसान में रह सकते हैं - अगर सीधे सीधे आंकड़ों के हिसाब से वोट न भी पड़े तो इधर का उधर होकर बैलेंस तो करेंगे ही.

निरहुआ पर भी बीजेपी को भरोसा क्यों: आजमगढ़ सीट पर 2019 में बीजेपी के निरहुआ को टिकट देने की खास वजह अखिलेश यादव का मैदान में होना रहा - और अभी भले ही अखिलेश यादव खुद मैदान में न हों, लेकिन कोशिश तो उनके ही यादव वोट काटने की है - और यही सबसे बड़ी वजह है बीजेपी के निरहुआ पर भी फिर से भरोसा जताने की.

निरहुआ को लेकर इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक बीजेपी नेता से बातचीत का हवाला दिया गया है, जिसमें वो कहते हैं - निरहुआ स्वाभाविक तौर पर पंसदीदा बन जाते हैं. बीजेपी नेता का कहना है, 'वो स्टार हैं और नौजवान भी... पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं में काफी लोकप्रिय भी हैं. 2019 में चुनाव हार जाने के बावजूद वो इलाके में सक्रिय रहे और लोग उनको जानते हैं.'

मतलब, बीजेपी ने पाया कि निरहुआ भी आजमगढ़ से चुनाव हार जाने के बावजूद, वैसे ही एक्टिव रहे जैसे 2014 से 2019 के बीच केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी. अखबार से बातचीत में बीजेपी नेता आगे कहते हैं, 'निरहुआ भी यादव समुदाय से ही आते हैं... अगर समाजवादी पार्टी किसी यादव को टिकट नहीं देती तो वे भी निरहुआ का समर्थन करेंगे.'

रामपुर में ओबीसी वोट हासिल करने की कोशिश

आजमगढ़ और रामपुर उपचुनावों की तुलना करें तो जीत और हार का समीकरण अलग अलग नजर आता है. बीएसपी नेता मायावती की भूमिका दोनों ही उपचुनावों में है. वैसी स्थिति में भी जबकि बीएसपी रामपुर उपचुनाव नहीं लड़ रही है.

मायावती ने रामपुर लोक सभा सीट पर उम्मीदवार न उतार कर ये मैसेज देने की कोशिश कर रही हैं कि बीएसपी असल में आजम खान के सपोर्ट में ऐसा कर रही है. आजमगढ़ का मामला तो खुल्लमखुला है - वहां भी मायावती ने कहने के लिए अपने बीजेपी की ही तरह अपने पुराने प्रत्याशी पर भरोसा जताया है, लेकिन मौजूदा समीकरणों के हिसाब से समझें तो ये समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट काटने की ही कवायद लगती है.

मायावती वैसे तो मुस्लिम उम्मीदवार गुड्डू जमाली को अपना दलित वोट दिलाकर बीजेपी को टक्कर देने का संदेश देना चाहती हैं, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू देखें तो वो अखिलेश यादव का वोट काट कर बीजेपी के लिए सेफ पैसेज मुहैया करा रही हैं.

रामपुर लोकसभा उपचुनाव के लिए बीजेपी ने समाजवादी पार्टी से ही आये घनश्याम लोधी को टिकट दिया है. वैसे तो वो पहले से ही समाजवादी पार्टी से दूरी बना कर चल रहे थे, लेकिन विधानसभा चुनावों के दौरान अखिलेश यादव ने घनश्याम लोधी को बाहर का रास्ता दिखा दिया. स्वामी प्रसाद मौर्या के बीजेपी छोड़ने के बाद पार्टी को पहले से ही ओबीसी नेताओं की जरूरत रही. दो बार विधान परिषद सदस्य रह चुके घनश्याम लोधी चाहते तो विधानसभा का टिकट थे, लेकिन थोड़ा इंतजार करा कर बीजेपी ने संसद पहुंचने का टिकट दे दिया है.

घनश्याम लोधी का मुकाबला आजम खान की पत्नी तजीन फातिमा से होने वाला है. रामपुर में हिंदू और मुस्लिम आबादी करीब बराबर ही है. बस थोड़ा सा फर्क है. हिंदू जहां 8.30 लाख हैं, वहीं मुस्लिम 8.50 लाख यानी करीब 20 हजार का फर्क है.

हिंदू वोटों में भी लोधी समुदाय की आबादी सबसे ज्यादा है, 1.25 लाख. 2014 में बीजेपी के टिकट पर संसद पहुंचने वाले नेपाल सिंह भी लोधी समुदाय से ही आते हैं. मई, 2020 में हार्ट अटैक के चलते 80 साल की उम्र में नेपाल सिंह का निधन हो गया था - बीजेपी के उपचुनाव में लोधी समुदाय से ही उम्मीदवार चुनने की वजह भी यही लगती है.

2024 के लिए भी संदेश होगा

तमाम चुनौतियों के बावजूद अगर समाजवादी पार्टी आजमगढ़ और रामपुर दोनों ही सीटें जीतने में सफल हो पाती है, फिर तो बल्ले बल्ले. अगर ऐसा नहीं हो पाता या दोनों में से कोई एक सीट गंवा देती है तो अखिलेश यादव को लेकर यूपी की राजनीति में कम से कम दो संदेश पक्के तौर पर जाएंगे.

समाजवादी पार्टी की हार में पहला मैसेज तो यही जाएगा कि मुस्लिम समुदाय समर्थन से पीछे हट रहा है - और गैर-यादव ओबीसी समुदाय अखिलेश यादव को अपना नेता मानने को तैयार नहीं है. 2024 के आम चुनाव के लिए उपचुनावों का मैसेज काफी महत्वपूर्ण हो सकता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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