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बिहार में महागठबंधन की हार की तीन वजहें- जाति ,धर्म और कांग्रेस

    • शरत कुमार
    • Updated: 11 नवम्बर, 2020 03:18 PM
  • 11 नवम्बर, 2020 03:18 PM
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बिहार के नतीजे आ गए हैं जो की कई मायनों में चौकाने वाले हैं. बिहार में महागठबंधन (Mahagathbandhan) और तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) को सफलता क्यों नहीं मिली बात वजहों की हो तो जहां एक तरफ कास्ट फैक्टर था तो वहीं धर्म और कांग्रेस ने भी बिहार के चुनाव परिणाम प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

(Bihar Assembly Elections Results )वोटिंग के दिन बिहार के बक्सर में मैंने अपने एक रिश्तेदार से पूछा कि बिहार चुनाव में क्या रहेगा? तो उन्होंने कहा नीतीश को वोट तो नहीं देना चाहते थे मगर ललुआ के पार्टी को कैसे दे दें. वह 1 साल से नीतीश को गालियां रहे थे. ऐसे में मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाया. दरअसल यह एक सोच है जो बिहार की अगड़ी जातियों के अंदर है. जिसे तेजस्वी का 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा भी डिगा नहीं सका. बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहां पर डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर ,एसपी से लेकर वैज्ञानिक तक सब पैंट के नीचे जाति का लंगोटा पहन कर घूमते हैं. बातें इनसे बुद्ध से ले कर बाइडेन तक करवा लीजिए मगर अपनी जाति का आग्रह छोड़ नहीं पाते हैं. आरा में हमारे एक रिश्तेदार कर्मचारी यूनियन में कट्टर कामरेड हैं. मगर घरवाले बीजेपी को वोट डालकर आए थे. उनका मानना है कि अभी ऐसे बुरे दिन नहीं आए हैं कि हम भाकपा माले को वोट देकर आएं. यह एक बानगी है जो बिहार की तस्वीर को दिखाती है कि आखिर क्यों तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) की जातिवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के लिए सत्ता में आना मुश्किल भरा काम है.

बिहार में तेजस्वी यादव ने म्हणत तो खूब की लेकिन नतीजे सकारात्मक नहीं निकले

बिहार में जीत और हार का गणित किसी मुद्दे का गणित नहीं है. और ना ही किसी नीतीश, मोदी या तेजस्वी के करिश्मा का गणित है. सीधे-सीधे जाति के परमुटेशन और कंबीनेशन की जीत है. जिनके पास संगठन है वह जातियों का संगठन है, जो अपनी जातियों का वोट समूह में दिलवा लेते हैं और फिर उनकी सीटें आ जाती हैं. राष्ट्रीय जनता दल के पास यादव और दूसरे ओबीसी और मुस्लिमों के मजबूत वोट बैंक है, इसमें कुछ दलित भी वोट दे देते हैं.

उसी तरह से बीजेपी के पास अगड़ी...

(Bihar Assembly Elections Results )वोटिंग के दिन बिहार के बक्सर में मैंने अपने एक रिश्तेदार से पूछा कि बिहार चुनाव में क्या रहेगा? तो उन्होंने कहा नीतीश को वोट तो नहीं देना चाहते थे मगर ललुआ के पार्टी को कैसे दे दें. वह 1 साल से नीतीश को गालियां रहे थे. ऐसे में मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाया. दरअसल यह एक सोच है जो बिहार की अगड़ी जातियों के अंदर है. जिसे तेजस्वी का 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा भी डिगा नहीं सका. बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहां पर डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर ,एसपी से लेकर वैज्ञानिक तक सब पैंट के नीचे जाति का लंगोटा पहन कर घूमते हैं. बातें इनसे बुद्ध से ले कर बाइडेन तक करवा लीजिए मगर अपनी जाति का आग्रह छोड़ नहीं पाते हैं. आरा में हमारे एक रिश्तेदार कर्मचारी यूनियन में कट्टर कामरेड हैं. मगर घरवाले बीजेपी को वोट डालकर आए थे. उनका मानना है कि अभी ऐसे बुरे दिन नहीं आए हैं कि हम भाकपा माले को वोट देकर आएं. यह एक बानगी है जो बिहार की तस्वीर को दिखाती है कि आखिर क्यों तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) की जातिवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के लिए सत्ता में आना मुश्किल भरा काम है.

बिहार में तेजस्वी यादव ने म्हणत तो खूब की लेकिन नतीजे सकारात्मक नहीं निकले

बिहार में जीत और हार का गणित किसी मुद्दे का गणित नहीं है. और ना ही किसी नीतीश, मोदी या तेजस्वी के करिश्मा का गणित है. सीधे-सीधे जाति के परमुटेशन और कंबीनेशन की जीत है. जिनके पास संगठन है वह जातियों का संगठन है, जो अपनी जातियों का वोट समूह में दिलवा लेते हैं और फिर उनकी सीटें आ जाती हैं. राष्ट्रीय जनता दल के पास यादव और दूसरे ओबीसी और मुस्लिमों के मजबूत वोट बैंक है, इसमें कुछ दलित भी वोट दे देते हैं.

उसी तरह से बीजेपी के पास अगड़ी जातियों का मजबूत वोट बैंक है और इन्हीं जाति के लोगों को संगठन वोट में तब्दील कर सीटों में तब्दील कर लेता है. इनके साथ नीतीश कुमार के कुर्मी वोटर का साथ मिल जाता है तो सोने पर सुहागा हो जाता है. बिहार का चुनाव कई मायने में काफी अहम रहा है. पहली बार यहां पर जाति के अलावा धर्म का भी कार्ड चला है. सीमांचल के इलाके में असुदीन ओवैसी की एमआईएम की 5 सीटें जितना यह दिखलाता है कि सीमांचल में वोटों का ध्रुवीकरण हुआ है.

ओवैसी की पार्टी को लेकर मुसलमानों में जिस तरह का क्रेज रहा उसे देखते हुए हिंदू वोट भी एकजुट हुए और बीजेपी को सीमांचल में काफी फायदा हुआ है. 2005 के चुनाव में या फिर 2015 के चुनाव में बीजेपी ने हिंदुत्व कार्ड खूब खेला था. मगर वह सफल नहीं हो पाई थी पर ओवैसी की बिहार में एंट्री ने सीमांचल में धर्म के कार्ड को मजबूत कर दिया. बिहार के लोग अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर काफी मगजमारी करते हैं और ऐसे में फ्रांस में हुआ हमला भी बिहार चुनाव के आखिरी चरण में ध्रुवीकरण में काफी काम आया.

सीमांचल के ध्रुवीकरण की आंधी में राष्ट्रीय जनता दल का यादव- मुस्लिम समीकरण धराशाई हो गया और कांग्रेस के लिए तो पहले से ही वहां पर कुछ नहीं था. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस को सीमांचल के मुसलमान वोट देते आते थे, वह इस बार नहीं दिए. सीएए और धारा 370 समेत राम मंदिर के मुद्दे पर कांग्रेस के नरम हिंदूवादी और नरम राष्ट्रवादी रूख को ओवैसी सीमांचल के मुस्लिमों को समझाने में सफल रहे. जिसका नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा.

पिछले चुनाव में महा गठबंधन को भारी बढ़त दिलाने वाला सीमांचल 15 सीटों से लाकर 3 सीटों पर पटक दिया और बीजेपी को 3 से उठकर 15 सीटें मिल गई. यानी महागठबंधन के सेक्युलरिज्म के आगे ओवैसी कि मुस्लिम राजनीति और बीजेपी की हिंदू राजनीति ने कमाल किया. सीमांचल ने इस बार महागठबंधन के सेक्युलरिज्म की अवधारणा को खारिज किया है.

कांग्रेस के पास बिहार में कुछ भी नहीं था इसके बावजूद तेजस्वी ने बहुत कुछ दे दिया. जिसकी वजह से तेजस्वी को घाटा उठाना पड़ा है. जिस दिन यह घोषणा हुई कि कांग्रेस को 70 सीटें दी गई है, लोग अवाक रह गए कि क्या तेजस्वी सचमुच इतने परिपक्व नेता है जो उस कांग्रेस को टिकट दे रहे हैं जिसका कोई बिहार में नाम लेवा नहीं है. कांग्रेस कह रही है कि उन्हें कठिन सीटें दे दी गई मगर कांग्रेस से अगर पूछा जाए कि उनके लिए पूरे बिहार में आसान सीट कौन सी है तो समझ में नहीं आएगा.

जिन सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है उनमें से ज्यादातर राष्ट्रीय जनता दल के वोट बैंक के सहारे उनकी नैया पार लगी है. तेजस्वी यादव जस दमदार के साथ कांग्रेस को जीता कर लाए हैं उसके बनिस्बत कांग्रेस अपने वोट बैंक को राष्ट्रीय जनता दल को ट्रांसफर नहीं करवा पाई है. या यूं समझ लीजिए कि कांग्रेस के पास कोई वोट बैंक था ही नहीं जिसके बल पर वह खुद का भी वोट लेती या फिर किसी वोट बैंक को ट्रांसफर कर पाती.

संगठन के नाम पर बिहार में कांग्रेस के पुराने नेताओं के बाल-बच्चे बचे हैं. जो कैलेंडर में छपे खास दिवसों पर झंडा लेकर घूमने की रस्मअदायगी कर लेते हैं. बक्सर जैसे विधानसभा सीट पर मुन्ना तिवारी ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की है. मगर वहां भी ओवैसी अपने गठबंधन को 30 हजार वोट दिलवाने में सफल रहे तो समझ लीजिए कि कांग्रेस के पास अपना वोट बैंक कौन सा है.

दरअसल, सामाजिक न्याय के आंदोलन के बाद कांग्रेस के पास ब्राह्मण और कुछ मुसलमान वोट बैंक बच गए थे जिसमें से अगड़ी जातियां पिछले 20 सालों में पूरी तरह से बीजेपी के साथ हो लिए हैं और कांग्रेस के पास मुस्लिम वोट बैंक भी नहीं बचा है. यहां तक कि कांग्रेस के पास बिहार में कोई ऐसा नेता नहीं है जो उसके नीति को आगे बढ़ा पाए.

आखिर ऐसा क्यों हो जाता है कि छोटे दल और उनके नेता कम समय में अपना संगठन और जातिगत आधार मजबूत कर लेते हैं. मगर कांग्रेस सबसे पिछड़ती चली जाती है. कन्हैया कुमार ने लेफ्ट की नैया पार लगाई और दिखा दिया है कि संगठन कमजोर भी हो तो अगर नेता के पास भीड़ को रिझाने की कला हो और वह अच्छा ऑरेटर हो तो हवा का रुख अपनी तरफ मोड़ भी सकता है. सबसे अच्छा काम माले का रहा है जिसके पास संगठन था और सक्रिय कार्यकर्ता थे ,जिसकी बदौलत उसने राष्ट्रीय जनता दल के वोट बैंक को अपने पास जोड़कर जीत हासिल की है.

बेगूसराय जैसे इलाकों में भोला प्रसाद सिंह के साथ ही कॉमरेडों का संगठन खत्म हो चुका था. वहां पर जर्जर पर मर्मर कॉमरेड ही बचे थे मगर कम वक्त में कन्हैया ने बेगूसराय के इलाके में कम्युनिस्टों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है. इसी तरह से 10 साल के अंदर ओवैसी ने सीमांचल के इलाकों में अपने संगठन को मजबूत कर अपना वोट बैंक बना लिया है.

मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी और मांझी के हम जैसे पाटिया भी अपना वोट बैंक जाति के आधार पर बना लेती हैं. चिराग पासवान भले ही औंधे मुंह गिरे हो मगर दुसादों का वोट उन्हें मिला है. जातिगत आधार के नेता वही सफल होते हैं जो अपने वोट बैंक को दूसरे के साथ जोड़कर उसे एमप्लीफाई -मल्टीप्लाई कर सकें. इसलिए चिराग पासवान को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है.

मगर कांग्रेस के पास कोई जातिगत आधार वाला नेता भी नहीं है, जो एक जाति का भी वोट कम से कम कांग्रेस को दिलवा पाए. हर चुनाव में इधर-उधर के नेताओं का भानुमति का कुनबा कांग्रेस बटोर लेती है और उनको टिकट देकर चाहती है कि राष्ट्रीय जनता दल का गठबंधन उनकी नैया पार लगा दे. 70 सीटें लेने के बाद भी चुनाव प्रचार में जिस तरह का कांग्रेस का हाल था उसे देखकर पार्टी की स्थिति पर दया आती है.

बिहार में तो कोई नेता बचा नहीं था मगर राष्ट्रीय स्तर का भी कोई नेता ढंग से प्रचार नहीं कर पाया. राहुल गांधी कहने को तो राष्ट्रीय नेता हैं मगर तेजस्वी के साए में रहे. सबसे बड़े रणनीतिकार के रूप में रणदीप सिंह सुरजेवाला को बिहार में लगाया गया था जो खुद लगातार तीन चुनाव हार चुके हैं ऐसे में वह क्या रणनीति बनाते हैं आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं.

हर वक्त बीजेपी पर कटाक्ष करते रहते हैं इसकी वजह से इमेज भी खराब हो गई है और अच्छे ऑरेटर भी नहीं है. दरअसल कांग्रेस में 10 जनपथ में ऐसी नेताओं की पूछ बढ़ी है जो या तो दिन भर चापलूसी करते हैं या फिर पैसे पहुंचाते हैं. पंजाब के नेता नवजोत सिंह सिद्धू चुनाव प्रचार के लिए नहीं निकले क्योंकि कांग्रेस उन्हें चुनाव प्रचार के अलावा किसी काम के लायक नहीं समझती है जबकि सिद्धू अगर हवा किसी दिशा में बहती है तो उसे आंधी में बदलने में सक्षम है भले ही हवा का रुख मोड़ नहीं सकते हैं.

सचिन पायलट के पास युवाओं को मोहने का जादू है मगर उन्हें किनारे लगाने में कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग लगा हुआ है. कर्नाटक जैसे राज्य में जहां पर पार्टी के पास संगठन बचा है वहां पर भी सिद्धारा मैया की जगह डी शिवकुमार जैसे नेताओं को इसलिए प्रदेश अध्यक्ष का पद दे दिया गया क्योंकि पार्टी को पैसे जरूरी है जबकि वहां पर जरूरत है कि कांग्रेस किसी ऐसे नेता को आगे करें जो अपनी सभाओं में भीड़ जुटा सके.

गुजरात में हार्दिक पटेल का नाम लोग भूलने लगे हैं, मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के दो बुजुर्गों की जोड़ी को देखकर लोग हंसने लगे हैं. लोग तो यहां तक लगे हैं कि आखिर कांग्रेस प्रियंका गांधी को छुपाकर किस दिन के लिए रख रही है. ऐसा ना हो कि कांग्रेस के घर में पड़े- पड़े प्रियंका गांधी के एक्सपायरी डेट आ जाए.

इस बीच खबर आई की महागठबंधन की हार के बाद कांग्रेस के अनमने युवराज राहुल गांधी एक बार फिर से एक और हार के बाद छुट्टियां मनाने राजस्थान के जैसलमेर पहुंच रहे हैं. गनीमत है इस बार हार का गम मिटाने के लिए विदेश नहीं जा रहे हैं. तेजस्वी के लिए निराश होने का वक्त नहीं है क्योंकि 32 साल की उम्र में अकेले उन्होंने बहुत कुछ पाया है.

यह सच है कि मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी से जिस तरह का गठबंधन होने करना चाहिए था वह नहीं कर पाए और ओवैसी की एमआईएम की ताकत को भाप नहीं पाए मगर हर मोर्चे पर इतनी कम उम्र के अकेले पड़ गए एक नेता से सब कुछ अपेक्षा करना कई बार बेईमानी हो जाता है. इसलिए तेजस्वी यादव को बिहार की तरफ से फेयर प्ले की ट्रॉफी तो मिल ही चाहिए. लोग बिहार में यह भी चर्चा करने लगे हैं कि क्या वक्त आ गया है कि नीतीश कुमार को फेयर वेल दे दी जाए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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