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पलटू चाचा की अध्यक्षता में JDU का तीर RJD की लालटेन के दम पर निशाना तलाशने की कोशिश में

    • निधिकान्त पाण्डेय
    • Updated: 11 अगस्त, 2022 04:11 PM
  • 11 अगस्त, 2022 04:11 PM
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ये पहली या दूसरी बार नहीं है कि नीतीश पलटे हैं और एक पार्टी या संगठन छोड़ दूसरी पार्टी का साथ लिया है. खैर, बिहार में लोकप्रियता के मामले में नीतीश कुमार के सामने फिलहाल कोई नेता नहीं है. किसी भी पार्टी के पास नहीं है. ये और बात है कि बार बार सियासी पलटी मारने पर खुद तेजस्वी यादव उन्हें ‘पलटू चाचा’ कहते रहे हैं.

इस लेख का हमारा मुद्दा है क्यों पलट गए नेता जी? लेकिन उन नेता जी की बात बताऊं उससे पहले मुझे पलट शब्द से एक संत पलटूदास जी की कुछ बातें याद आ गईं.. वो आपसे शेयर करता चलूं. संतों का जीवन अमूमन रहस्यों से भरा होता है. जैसे 15वीं शताब्दी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर दास जी का जन्म.लोग उनके जन्म को प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं और संत कबीर के देह त्यागने के बारे में भी रहस्य बना हुआ है क्योंकि संत स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे या तो अपनी चर्चा नहीं करते-करवाते या कम से कम करते हैं. संत पलटूदास भी कुछ ऐसे ही थे. उनका नाम जन्म से तो कुछ और था जिसके बारे में जानकारी नहीं मिलती लेकिन सिद्धि प्राप्त करने के बाद उनके गुरु गोविन्ददास ने उन्हें पलटू नाम दिया. ऐसा माना जाता है कि ये अनाम संत साधना लीन हो गए और ऐसे हुए कि फिर सांसारिक मोह जाता रहा और आसक्ति से इनका मन पलट गया.

बिहार में भाजपा का दामन छोड़ने के बाद नीतीश कुमार को पलटू राम की संज्ञा दी जा रही है

उनके इसी कायापलट से प्रसन्न होकर गुरु गोविन्ददास ने कहा– ये तो पलट गया और अपने शिष्य का नाम पलटूदास रख दिया. गुरु के दिए इस नाम को पलटू ने श्रद्धा और आदरपूर्वक धारण किया. पलटूदास की बानी भी इसकी पुष्टि करती है-

पल पल में पलटू रहे, अजपा आठो याम,

गुरु गोबिंद अस जानि के, राखा पलटू नाम...

गुरु के दिए नाम में संत पलटूदास ने अपनी साधना और तपस्या से अर्जित ज्ञान भी भरा और लिखा -

पलटू पलटू क्या करे, मन को डारे धोय,

काम क्रोध को मारि के, सोई पलटू होय...

पलटू तो काम-क्रोध को मारकर, इन्द्रियों पर काबू करके संत पलटूदास बन गए लेकिन जिन नेताजी की हम बात कर रहे हैं वे हैं...

इस लेख का हमारा मुद्दा है क्यों पलट गए नेता जी? लेकिन उन नेता जी की बात बताऊं उससे पहले मुझे पलट शब्द से एक संत पलटूदास जी की कुछ बातें याद आ गईं.. वो आपसे शेयर करता चलूं. संतों का जीवन अमूमन रहस्यों से भरा होता है. जैसे 15वीं शताब्दी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर दास जी का जन्म.लोग उनके जन्म को प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं और संत कबीर के देह त्यागने के बारे में भी रहस्य बना हुआ है क्योंकि संत स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे या तो अपनी चर्चा नहीं करते-करवाते या कम से कम करते हैं. संत पलटूदास भी कुछ ऐसे ही थे. उनका नाम जन्म से तो कुछ और था जिसके बारे में जानकारी नहीं मिलती लेकिन सिद्धि प्राप्त करने के बाद उनके गुरु गोविन्ददास ने उन्हें पलटू नाम दिया. ऐसा माना जाता है कि ये अनाम संत साधना लीन हो गए और ऐसे हुए कि फिर सांसारिक मोह जाता रहा और आसक्ति से इनका मन पलट गया.

बिहार में भाजपा का दामन छोड़ने के बाद नीतीश कुमार को पलटू राम की संज्ञा दी जा रही है

उनके इसी कायापलट से प्रसन्न होकर गुरु गोविन्ददास ने कहा– ये तो पलट गया और अपने शिष्य का नाम पलटूदास रख दिया. गुरु के दिए इस नाम को पलटू ने श्रद्धा और आदरपूर्वक धारण किया. पलटूदास की बानी भी इसकी पुष्टि करती है-

पल पल में पलटू रहे, अजपा आठो याम,

गुरु गोबिंद अस जानि के, राखा पलटू नाम...

गुरु के दिए नाम में संत पलटूदास ने अपनी साधना और तपस्या से अर्जित ज्ञान भी भरा और लिखा -

पलटू पलटू क्या करे, मन को डारे धोय,

काम क्रोध को मारि के, सोई पलटू होय...

पलटू तो काम-क्रोध को मारकर, इन्द्रियों पर काबू करके संत पलटूदास बन गए लेकिन जिन नेताजी की हम बात कर रहे हैं वे हैं नीतीश कुमार जो पार्टी पार्टनर पलटकर आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं. जनता दल यूनाइटेड JD के पार्टी निशान तीर ने एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल RJD की लालटेन की रौशनी में निशाना तलाशने की कोशिश की है. राजद के तेजस्वी यादव ने पिता लालू यादव की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का काम किया है और दूसरी बार डिप्टी सीएम की कुर्सी थाम ली है.

बात हो रही है हमारे पलट गए नेताजी नीतीश कुमार की. ये पहली या दूसरी बार नहीं है कि नीतीश पलटे हैं और एक पार्टी या संगठन छोड़ दूसरी पार्टी का साथ लिया है. कहानी काफी पुरानी है-नीतीश कुमार और लालू यादव पुराने सहयोगी रहे हैं लेकिन 1994 में नीतीश कुमार ने लालू का साथ छोड़ा था तो लोग चौंक गए थे. जनता दल छोड़कर नीतीश ने जॉर्ज फर्नान्डिस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया था.

1995 में नीतीश बिहार विधानसभा चुनाव में लालू के विरोध में उतरे लेकिन बुरी तरह हारे. 1996 में नीतीश ने बीजेपी का साथ लिया और 17 साल निभाया भी. इस बीच, 2003 में समता पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड हो गया. 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करके नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाई. लेकिन 2013 में जब बीजेपी ने लोकसभा चुनाव 2014 के लिए नरेंद्र मोदी का नाम पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित किया तो नीतीश को ये नागवार गुजरा और बीजेपी से गठबंधन तोड़ दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में JD की करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी ही सरकार के मंत्री और दलित नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया. 2015 में नीतीश कुमार ने पुराने दोस्त लालू यादव को याद किया. राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ा. उस चुनाव में भी RJD को JD से ज्यादा सीटें मिलीं लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार और लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव बने उपमुख्यमंत्री और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव बने स्वास्थ्य मंत्री.

लालू यादव के साथ नीतीश की पुरानी दोस्ती सिर्फ 20 महीने ही टिक पाई और 2017 में नीतीश कुमार इस्तीफा दिया और उस वक्त विपक्ष की सबसे सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी का समर्थन लेकर नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बन गए. 2017 में हुआ ये सत्ता के उलट-पलट का नाटकीय घटनाक्रम 15 घंटे के अंदर हो गया था.नीतीश और बीजेपी का साथ तब से कुछ महीनों पहले तक ठीक ही चल रहा था लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि 9 अगस्त 2022 को नीतीश कुमार ने बीजेपी से फिर पलटी मारी सबसे पुराने दोस्त लालू की पार्टी की तरफ और 10 अगस्त 2022 को आठवीं बार मुख्यमंत्री बन गए.

अब बात आती है पूरा मामला जानने की. आखिर पिछले कुछ महीनों में ऐसा क्या हुआ कि नीतीश फिर पलट गए ?

कारण तो बहुत से हो सकते हैं लेकिन एक बड़ा कारण तो यही है कि नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पसंद ही नहीं हैं. सबसे पहले तो 2013 में ही ये बात साफ हो गई थी जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद के रूप में नामित किया था. तथाकथित तौर पर तब नीतीश कुमार ने तर्क दिया कि प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर मोदी उन्हें पसंद नहीं हैं. नीतीश का कहना था कि वे सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं और भाजपा को उन्होंने सांप्रदायिक पार्टी बताया था.

फिर सवाल उठता है कि तो 2017 में बीजेपी का साथ क्यों लिया? क्यों नीतीश अपनी बात से पलट गए? शायद तब ये उनकी राजनीतिक मजबूरी रही होगी? लेकिन फिर से 5 साल में ऐसा क्या हुआ नीतीश बीजेपी से भी पलट गए और RJD के साथ आ गए. नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि जब भ्रष्टाचार बढ़ता है तो वो बीजेपी के साथ हो जाते हैं और जब सांप्रदायिकता बढ़ती है तो वो आरजेडी और महागठबंधन के साथ चले आते हैं.

नीतीश कुमार ने NDA से अलग होकर कहा कि अब NDA के साथ काम करना मुश्किल हो रहा था. NDA लगातार हमारा अपमान कर रही थी. कुछ लोगों का ये मानना है कि नीतीश कुमार को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति नहीं तो उपराष्ट्रपति चुनाव में तो NDA उन्हें चेहरा बनाती लेकिन ऐसा हुआ नहीं. नीतीश के NDA का साथ छोड़ने को उनके पॉलिटिकल ईगो के हर्ट होने के तौर पर भी देखा जा रहा है. वहीं कुछ सियासी पंडितों का ये भी कहना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा पीएम पद का उम्मीदवार बनने की है.

जिसकी नजर पीएम की कुर्सी पर हो वो राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति के पद की लालसा क्यों रखेगा?

नीतीश कुमार की बीजेपी से नाराजगी कुछ और बातों को लेकर भी रही. पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने 6 अगस्त को JD तो छोड़ दिया, लेकिन उन्होंने केंद्रीय मंत्री बनने के लिए नीतीश कुमार को दरकिनार करते हुए सीधे भाजपा नेतृत्व से बातचीत की थी. या यूँ कहें कि उनकी पहले से ही मोदी सरकार से नजदीकी थी जो नीतीश को पसंद नहीं आई और उन्होंने अपनी ही पार्टी के आरसीपी सिंह पर आरोप लगाए.

JD के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन (ललन) सिंह ने रविवार को कहा, 'केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने की क्या जरूरत है? मुख्यमंत्री ने 2019 में फैसला किया था कि हम केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं होंगे. केन्द्रीय कैबिनेट में JD को ज्यादा सीटें न मिलने से भी नीतीश कुमार नाराज थे.'

अब बात कर ली जाए कुछ इतिहास की!

नीतीश कुमार आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके हैं. तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बीजेपी ने राज्य भर में नीतीश कुमार के खिलाफ प्रदर्शन किया. बीजेपी का कहना है कि नीतीश कुमार ने जनादेश का अपमान किया है... खैर बीजेपी की बात करेंगे लेकिन पहले बात मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की. पिछले 22 साल में नीतीश कुमार 8 बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं. एक मुख्यमंत्री का कार्यकाल 5 साल का होता है. इन 22 सालों में नीतीश कुमार ने कई पार्टियों के साथ गठबंधन कर सरकार चलाई है. लेकिन सबसे लंबा साथ रहा बीजेपी का.

नीतीश कुमार और बीजेपी की सोहबत बहुत पुरानी है, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने से. लेकिन नीतीश कुमार ने सियासत में रहकर हर घाट का पानी पिया है. कम से कम पिछले 22 सालों में तो बिहार की राजनीति में यही देखा गया है. चुनाव होते हैं.सरकार बनती है. फिर नीतीश पाला बदल लेते हैं और दूसरी पार्टी के साथ सरकार बना लेते हैं. कुछ दिनों बाद फिर से पार्टी बदल कर सरकार बना लेते हैं. इस दौरान पार्टियां बदलती रहती हैं, एक चीज जो स्थिर और अडिग है वो है नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहना।

अब तो लोग कहने लगे हैं कि बिहार में सरकार बदलती है, मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं. लेकिन इस दौरान नीतीश कुमार ने बहुत कुछ खोया भी है. उन्हें कई नाम भी मिले. पलटूराम, यू टर्न का मास्टर और पलटू चाचा लेकिन वो कहते हैं न कि नाम में क्या रखा है. नाम कुछ भी हो बिहार का मुख्यमंत्री तो नीतीशे कुमार है. आप भी नीतीश कुमार के 22 साल के सफर को जानना चाहते होंगे। ये भी जानना चाहते होंगे कि कैसे इन 22 सालों में नीतीश कुमार ने बिहार की सियासत में खुद को प्रासंगिक बनाए रखा. कैसे आती-जाती सत्ता के बीच वो सरकार के मुखिया बने रहे.

पिछली बार नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था और कम सीटों के बावजूद बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था. उससे पहले आरजेडी की सीटें ज्यादा थीं लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश ही बने चलिए पहले इन दो विधानसभा चुनाव की कहानी बताते हैं. 2015 में नीतीश और लालू साथ मिलकर चुनाव लड़े थे और भारी जीत दर्ज की थी. तब नीतीश बीजेपी से पहली बार अलग हुए थे. आरजेडी के सहयोग से सीएम भी बने थे लेकिन 2017 में बीच रास्ते में आरजेडी को छोड़ बीजेपी के साथ सरकार बना ली थी.

जेडीयू को 2015 विधानसभा चुनाव में मिली 71 सीटों के मुकाबले 2020 में महज 43 सीटें मिली थीं तब नीतीश कुमार ने ट्वीट कर पीएम मोदी का आभार भी जताया था. उन्होंने लिखा था- जनता मालिक है. उन्होंने NDA को जो बहुमत प्रदान किया, उसके लिए जनता-जनार्दन को नमन है. मैं पीएम श्री नरेन्द्र मोदी जी को उनसे मिल रहे सहयोग के लिए धन्यवाद करता हूं. मंडल की राजनीति से नेता बनकर उभरे नीतीश कुमार को एक बेहद ही सधा हुआ राजनेता समझा जाता है.

हालांकि, उनके विरोधी उन पर अवसरवादी होने का आरोप लगाते रहे हैं, हाल के कुछ वर्षों में ये साफ तौर पर दिखता भी है कि वो एक ऐसे नेता बन चुके हैं जिस सत्ता चाहिए और कुर्सी चाहिए. वो खुद को सेकुलर भी दिखाते हैं और दूसरी तरफ भाजपा के साथ कई सालों तक रहकर सत्ता का सुख भी भोगते हैं. उनकी राजनीति में एक विरोधाभास है लेकिन उनकी राजनीति देखकर तो यही लगता है कि वो जिधर पलटते हैं बिहार में उसी की सरकार बनती है.

बात बिहार की सियासत की हो रही है, नीतीश कुमार की हो रही है, लेकिन मैं यहां दिग्विजय सिंह की थोड़ी चर्चा करना चाहूंगा. 2020 में जब बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए तो कांग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक ट्वीट करते हुए लिखा था- ‘भाजपा/संघ अमरबेल के समान हैं, जिस पेड़ पर लिपट जाती है, वो पेड़ सूख जाता है और वो पनप जाती है. नीतीश जी, लालू जी ने आपके साथ संघर्ष किया है आंदोलनों मे जेल गए हैं. भाजपा/संघ की विचारधारा को छोड़ कर तेजस्वी को आशीर्वाद दे दीजिए। इस 'अमरबेल' रूपी भाजपा/संघ को बिहार में मत पनपाओ.’

ऐसा लगता है दो साल बाद नीतीश कुमार को दिग्विजय सिंह की बात समझ आई है या फिर महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसने भी नीतीश कुमार को सोचने पर मजबूर कर दिया कि बीजेपी के साथ अब और नहीं रहना है. कहां मैं आपको बिहार से मध्य प्रदेश लेकर चला गया.. चलिए अब नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के सफर पर आपको लेकर चलते हैं.

सबसे पहले नीतीश कुमार 03 मार्च 2000 को मुख्यमंत्री बने थे. जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उनके पास बहुमत नहीं था. मात्र सात दिन बाद ही उनकी सरकार गिर गई थी. नीतीश को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उस समय वो बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए के साथ थे.

नीतीश कुमार दूसरी बार 24 नवंबर 2005 को मुख्यमंत्री बने थे. एक मुख्यमंत्री के रूप में उनका ये कार्यकाल 24 नवंबर 2010 तक चला.

नवंबर 2010 के चुनाव में नीतीश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. इस समय भी वो एनडीए के साथ ही थे. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने 2013 में चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान नरेंद्र मोदी को सौंप दी जिससे वो नाराज हो गए और उन्होंने एनडीए का साथ छोड़ दिया. मई 2014 में नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत के बाद जेडीयू के खाते में सिर्फ 2 लोकसभा सीट आई इसके बाद नीतीश ने नैतिकता के तौर पर इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया. एक साल पूरा होने से पहले ही मांझी को सीएम का पद छोड़ना पड़ा था.

चौथी बार नीतीश कुमार ने 22 फरवरी 2015 को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी.

पांचवी बार नीतीश कुमार 20 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री बने. नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ ये चुनाव लड़ा था और गठबंधन को महागठबंधन नाम दिया गया. नीतीश सरकार में तेजस्वी पहली बार बिहार के उपमुख्यमंत्री बने.

नीतीश कुमार ने लगभग डेढ़ साल बाद ही तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर आरजेडी के साथ गठंबधन तोड़ दिया. फिर बीजेपी के साथ सरकार बना ली. 27 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार 6वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए.

नीतीश कुमार ने 16 नवंबर 2020 को सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. 2020 विधानसभा का चुनाव उन्होंने बीजेपी के साथ लड़ा था. कम सीट आने के बावजूद बीजेपी ने उन्हें सीएम बनाया इस तरह से नीतीश कुमार बिहार के 7वीं बार सीएम बने थे.

9 अगस्त 2022 को नीतीश ने एक बार फिर बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ दिया. उन्होंने एनडीए से निकलने का ऐलान किया और फिर महागठबंधन में शामिल होकर आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.

नीतीश कुमार की सियासत ऐसी रही है कि ज्यादा किसी को समझ में नहीं आती.. खासकर पिछले कुछ सालों में जिस तरह की राजनीति उन्होंने की है उसके लिए तो वो बिल्कुल भी नहीं जाने जाते थे.

बिहार में जब भी सियासत की बात होती है.चाणक्य और चंद्रगुप्त खुद प्रकट हो जाते हैं...

आपको पता होगा चाणक्य और पोरस की सहायता से चंद्रगुप्त मौर्य मगध की सत्ता पर बैठे थे. 25 साल की आयु में चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध की सत्ता संभाली थी. लेकिन यहां मामला बड़ा पेचीदा है.. नीतीश कुमार इस बार तेजस्वी यादव की सहायता से सत्ता पर काबिज हो रहे हैं या यूं कह लीजिए सीएम बन रहे हैं. इस पूरे खेल में कई चाणक्य हैं. लेकिन बिहार न तो अब मगध है और न ही नीतीश कुमार चंद्रगुप्त मौर्य. क्योंकि हर बार दूसरे का साथ पाकर सत्ता हासिल करना या फिर सत्ता के लिए हर बार किसी दूसरे से हाथ मिला लेने की बात, न तो चाणक्य को लेख भती है न ही चंद्रगुप्त मौर्य को.

पिछली दफा जब 2015 में महा गठबंधन की सरकार बनी थी तो तेजस्वी यादव राजनीति में एक तरह से बच्चे थे लेकिन अब वक्त के साथ उनमें काफी परिपक्वता आई है... खासकर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद उनका कद बढ़ा है और मौजूदा विधानसभा में उनके विधायकों की संख्या भी बोलती है... कभी लालटेन को लेकर बिहार में दहशत होती थी, तेजस्वी के जिम्मे उस लालटेन को रौशन करने की जिम्मेदारी है. साथ ही नीतीश चचा से निपटने की चुनौती भी है. तेजस्वी राजनीति में इतना तो सीख ही गए होंगे कि चचा से कैसे निपटना है.

माना जा रहा है कि नीतीश कुमार महागठबंधन में ये पारी लंबी खेलने वाले हैं. क्योंकि अब बीजेपी अपने दम पर बिहार में सरकार बनाना चाहेगी. वैसे भी बीजेपी की जो रणनीति रही है उसे देखते हुए तमाम सहयोगी पार्टियां उससे किनारा कर रही है. जानकारों का मानना है कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे मामले से नीतीश डर गए थे. इसलिए पहले आरसीपी को पार्टी से बाहर किया और फिर एनडीए के साथ गठबंधन तोड़ लिया.

जेडीयू की तरफ से बीजेपी पर पार्टी तोड़ने का आरोप लगाया गया है. हालांकि बीजेपी ने इस बात का खंडन किया है. और साथ ही कहा कि नीतीश प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं.नीतीश के एनडीए से निकलने के बाद विपक्ष में एक नया जोश पैदा हुआ है.. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने ट्वीट करते हुए लिखा है- मैं बिहार में हुए घटनाक्रम को देख रहा हूं. इसने मुझे मेरे उन दिनों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया जब जनता दल परिवार एक साथ था. इस परिवार ने देश को तीन पीएम दिए. मैं अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हूं लेकिन अगर नई पीढ़ी तय करले तो ये (जनता दल) देश को एक अच्छा विकल्प दे सकती है.

सब अपनी तरह से बिहार की इस घटना को देख रहे हैं. 2024 में आमचुनाव के नतीजे बहुत कुछ तय करने वाले हैं. अगर नीतीश पीएम पद के लिए विपक्ष का चेहरा बनते हैं तो बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव का उदय होगा. एक दिलचस्प बात ये है कि नीतीश कुमार ने 2004 के बाद कोई भी संसदीय चुनाव नहीं लड़ा है. जब वे विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मदीवार होंगे तो उनपर लोकसभा चुनाव लड़ने का भी दबाव होगा। ये सब भविष्य की बातें हैं, वर्तमान तो यही है कि बिहार में बहार है...नीतीशे कुमार है...

अब वक्त हो चला है हमारे विश्लेषण का...

सत्ता के लिए बार-बार पलटना और किसी दूसरे दल के साथ सरकार बनाना क्या सही है? ये सवाल बिहार की जनता में मन में शायद उठ रहा हो. आप दर्शकों के भी कुछ सवाल होंगे शायद. क्या इससे नीतीश कुमार को फायदा होगा या ये फायदा तेजस्वी यादव को मिलेगा? पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने जनता से अपील की थी उन्हें समर्थन दें, वोट दें क्योंकि ये उनका आखिरी चुनाव है.

क्या वाकई इसके बाद वो चुनाव नहीं लड़ेंगे या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे और अब पीएम की कुर्सी के लिए लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे. जो भी हो लेकिन वो इमोशनल अपील आखिरी चुनाव की तो नहीं हो सकती क्योंकि सीएम रहते हुए उन्हें कोई हटा नहीं रहा था तो फिर तेजस्वी को डिप्टी बनाकर उन्होंने कहीं कोई आफत तो मोल नहीं ले ली. वो खेल में कहते हैं ना कि बेंच स्ट्रेंथ मजबूत होनी चाहिए और वो तभी होती है जब खिलाडी को खेलने का मौका मिले.

अब जब तेजस्वी को पिच पर उतरने का मौका मिलेगा तो उनके साथ और खिलाड़ी भी जुटेंगे.. उनका सपोर्ट भी बढ़ेगा तो नीतीश के लिए ये कहीं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात तो नहीं होगी क्योंकि उन्हें तेजस्वी जैसे तेजी से उभरते नेता से सावधान रहना होगा. इन सबके बावजूद ये भी कहना होगा कि बिहार में लोकप्रियता के मामले में नीतीश कुमार के सामने फिलहाल कोई नेता नहीं है. किसी भी पार्टी के पास नहीं है. ये और बात है कि बार बार सियासी पलटी मारने पर खुद तेजस्वी यादव उन्हें ‘पलटू चाचा’ कहते रहे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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