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क्या महाराष्ट्र में जातीय हिंसा भाजपा पर भारी पड़ेगी?

    • प्रवीण शेखर
    • Updated: 04 जनवरी, 2018 08:17 PM
  • 04 जनवरी, 2018 08:17 PM
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महाराष्ट्र में 10 फीसदी से ज्यादा दलित मतदाता हैं और 288 विधानसभा सीटों में से करीब 60 सीटें ऐसी हैं जहां दलित मतदाता किसी राजनीतिक खिलाड़ी के लिए अहम् साबित हो सकते हैं. यहां तक कि लोकसभा चुनाव में, 10 से 12 सीटों पर दलित वोट उम्मीदवार की हार जीत का निर्णय करेगा.

महाराष्ट्र, और देखा जाये तो पूरे भारत में, जाति विवादों को लेकर एक विस्फोटक स्थिति बनी हुई है, जिसकी चिंगारी अब सुलग चुकी है. दलितों का क्रोध अब सड़क पर उतर आया है और रिपोर्टों से यह प्रमाणित होता है कि दलित समूहों द्वारा बुलाया गया बंद बड़े पैमाने पर सफल रहा है. यहां तक कि राज्य सभा को दो बार स्थगित कर दिया गया.

जिस झड़प ने पूरे राज्य को अपने चपेट में ले लिया है, उसका संबंध भीम कोरेगांव की 200 साल पुरानी लड़ाई से है. यहां एक ब्रिटिश सेना जिसमें ज्यादातर दलित फौजी थे, उन्होंने महाराष्ट्र में सामाजिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त पेशवाओं को हराया था. इस कहानी को लेकर अलग अलग संस्करण हैं- कुछ ने दलित-पेशवा विरोध की वास्तविकता को खारिज किया है. लेकिन वास्तव में शर्मनाक ये है कि दो शतक से जाति संबंधित विवाद शांत होने का नाम नहीं ले रहा है.

भाजपा के लिए चिंता की लकीरें बननी शुरु हो गई हैं

इससे साफ़ जाहिर होता है कि यह बवंडर 2019 में एक अहम् राजनीतिक मुद्दा रहेगा और खासकर उन राजनीतिक गुटों के लिए जो जातिवादी विवाद के बीज बोते हैं. लोक सभा चुनावों के अलावा, साल 2019 में महाराष्ट्र की जनता यह तय करेगी कि क्या वह 2024 तक भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री के रूप में जनादेश देना चाहती है.

चुनावी दृष्टिकोण से भाजपा कतई नहीं चाहती कि लोगों में ये सन्देश जाये कि वो दलितों के साथ नहीं है. हालांकि महाराष्ट्र में विपक्ष इसी को भुनाना चाहती है. महाराष्ट्र में 10 फीसदी से ज्यादा दलित मतदाता हैं और 288 विधानसभा सीटों में से करीब 60 सीटें ऐसी हैं जहां दलित मतदाता किसी राजनीतिक खिलाड़ी के लिए अहम् साबित हो सकते हैं. यहां तक कि लोकसभा चुनाव में, 10 से 12 सीटों पर दलित वोट उम्मीदवार की हार जीत का निर्णय करेगा. यही कारण है कि विपक्षी...

महाराष्ट्र, और देखा जाये तो पूरे भारत में, जाति विवादों को लेकर एक विस्फोटक स्थिति बनी हुई है, जिसकी चिंगारी अब सुलग चुकी है. दलितों का क्रोध अब सड़क पर उतर आया है और रिपोर्टों से यह प्रमाणित होता है कि दलित समूहों द्वारा बुलाया गया बंद बड़े पैमाने पर सफल रहा है. यहां तक कि राज्य सभा को दो बार स्थगित कर दिया गया.

जिस झड़प ने पूरे राज्य को अपने चपेट में ले लिया है, उसका संबंध भीम कोरेगांव की 200 साल पुरानी लड़ाई से है. यहां एक ब्रिटिश सेना जिसमें ज्यादातर दलित फौजी थे, उन्होंने महाराष्ट्र में सामाजिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त पेशवाओं को हराया था. इस कहानी को लेकर अलग अलग संस्करण हैं- कुछ ने दलित-पेशवा विरोध की वास्तविकता को खारिज किया है. लेकिन वास्तव में शर्मनाक ये है कि दो शतक से जाति संबंधित विवाद शांत होने का नाम नहीं ले रहा है.

भाजपा के लिए चिंता की लकीरें बननी शुरु हो गई हैं

इससे साफ़ जाहिर होता है कि यह बवंडर 2019 में एक अहम् राजनीतिक मुद्दा रहेगा और खासकर उन राजनीतिक गुटों के लिए जो जातिवादी विवाद के बीज बोते हैं. लोक सभा चुनावों के अलावा, साल 2019 में महाराष्ट्र की जनता यह तय करेगी कि क्या वह 2024 तक भाजपा और देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री के रूप में जनादेश देना चाहती है.

चुनावी दृष्टिकोण से भाजपा कतई नहीं चाहती कि लोगों में ये सन्देश जाये कि वो दलितों के साथ नहीं है. हालांकि महाराष्ट्र में विपक्ष इसी को भुनाना चाहती है. महाराष्ट्र में 10 फीसदी से ज्यादा दलित मतदाता हैं और 288 विधानसभा सीटों में से करीब 60 सीटें ऐसी हैं जहां दलित मतदाता किसी राजनीतिक खिलाड़ी के लिए अहम् साबित हो सकते हैं. यहां तक कि लोकसभा चुनाव में, 10 से 12 सीटों पर दलित वोट उम्मीदवार की हार जीत का निर्णय करेगा. यही कारण है कि विपक्षी पार्टियां- कांग्रेस और एनसीपी, संघी तत्वों को राज्य में हिंसा फ़ैलाने के लिए जिम्मेदार ठहरा रही हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में हिंसा को एक राजनीतिक रंग देना शुरू कर दिया है. उन्होंने इसे "भारत के लिए आरएसएस/भाजपा के फांसीवादी दृष्टिकोण" के साथ जोड़ा.

विपक्ष ने भी राजनीतिक रोटिंयां सेंकनी शुरु कर दी

वहीं एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी संघी समूहों को जिम्मेदार ठहराया है. दूसरी तरफ भाजपा बैकफुट पर दिखाई दे रही है और इन दंगों को दलित-मराठा स्पिन लगाने की कोशिश कर रही है. आरएसएस/भाजपा के लिए तब चिंताजनक और हो गया जब संघी समूहों से जुड़े दो नेताओं- संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे पर दंगा फ़ैलाने के आरोप में मुकदमा दायर किया गया.

2019 के चुनावों के मद्देनज़र, यह महाराष्ट्र राजनीति को प्रभावी ढंग से ध्रुवीकरण करने का पहला कदम हो सकता है. यदि इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण नहीं किया गया तो दलितों और फॉरवर्ड जाति के बीच संदेह और शत्रुता की भावना बढ़ने की पूरी संभावना है. भाजपा के राजनीतिक हित में यही होगा कि ये विस्फोटक स्थिति प्रभावी रूप से और तुरंत काबू पाए.

अन्त में, जाति आधारित मुहीम जो सामने आए हैं, चाहे वो हरियाणा में जाट आंदोलन हो, गुजरात में पटेल आंदोलन हो, और पिछले अगस्त में मराठा मार्च- भाजपा सरकार सबका साथ, सबका विकास करने में विफल रही है. भाजपा को जनादेश इसी बात पर मिली थी कि वो युवकों को नौकरी और किसान के समृद्धि के लिए काम करेगी.

यदि भाजपा, लोगों के आशाओं पर खरा नहीं उतरती है तो इसका परिणाम इन पर बहुत भारी पड़ेगा और महाराष्ट्र में वही हाल होगा, जो अभी-अभी गुजरात विधानसभा चुनाव में हुआ है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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