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'राम मंदिर वहीं बनेगा, हमलावरों का कोई पक्ष नहीं होता !'

    • सुशोभित सक्तावत
    • Updated: 22 मार्च, 2017 02:53 PM
  • 22 मार्च, 2017 02:53 PM
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सवाल ऐतिहासिक न्याय का है, जातीय अस्मिता का है. कुछ चीजों का प्रतीकात्मक महत्व होता है.

सन् 1528 में मीर बाक़ी ने अयोध्या में बाबरी ढांचा बनवाया था, सन् 1528 में भारत के इतिहास की शुरुआत नहीं हुई थी!

कथा इससे बहुत बहुत पुरानी है, बंधु. श्रीराम के मिथक से जुड़े लोक और शास्त्र के संपूर्ण वांग्मय में अहर्निश उल्लेख है अवधपुरी और सरयू सरिता का. पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अटल साक्ष्य हैं. परंपरा की साखी है. कोई इससे चाह कर भी इनकार नहीं कर सकता.

मंदिर वहीं बनाएंगे

विवाद किस बात पर है? सन् 1528 में राम जन्मभूमि पर बाबरी ढांचे का बलात् निर्माण ही एक आक्रांताजनित दुर्भावना का परिचायक था. वह स्वयं एक भूल थी. भूलसुधार का तो स्वागत किया जाना चाहिए ना.

अदालत कहती है, दोनों पक्ष थोड़ा दें और थोड़ा लें. लेकिन दो पक्ष हैं ही कहां? एक ही पक्ष है. हमलावर का पक्ष कब से होने लगा? रामायण की रचना क्या अदालत ने की थी? लोकभावना का सृजन अदालत ने किया था? अदालतें इतिहास की पुनर्रचना कब से करने लगीं?

हर चीज की एक सीमा होती है. हर बात पर पीछे हटने की भी. आपको सल्तनत की हुक़ूमत भी चाहिए, आपको लूट के ऐवज में हिंदुस्तान का बंटवारा भी चाहिए, आपको बदले में भाईचारे की नीयत और सेकुलरिज़्म की शर्त भी चाहिए, आपको कश्मीर और हैदराबाद भी चाहिए, आपको तीन तलाक़ भी चाहिए, आपको बाबरी की निशानी भी चाहिए. हवस की एक हद होती है!

इतिहास भी देख लो एक बार

वे कहते हैं हज़ार साल पुरानी कड़वाहट दिल में रखकर क्या होगा, आज तो हम एक हैं. मैं कहता हूं ये नेक ख्याल है. तो क्यों नहीं आप जख्मों को हरा करने वाली कड़वाहट की एक गैर जायज निशानी से अपना दावा...

सन् 1528 में मीर बाक़ी ने अयोध्या में बाबरी ढांचा बनवाया था, सन् 1528 में भारत के इतिहास की शुरुआत नहीं हुई थी!

कथा इससे बहुत बहुत पुरानी है, बंधु. श्रीराम के मिथक से जुड़े लोक और शास्त्र के संपूर्ण वांग्मय में अहर्निश उल्लेख है अवधपुरी और सरयू सरिता का. पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अटल साक्ष्य हैं. परंपरा की साखी है. कोई इससे चाह कर भी इनकार नहीं कर सकता.

मंदिर वहीं बनाएंगे

विवाद किस बात पर है? सन् 1528 में राम जन्मभूमि पर बाबरी ढांचे का बलात् निर्माण ही एक आक्रांताजनित दुर्भावना का परिचायक था. वह स्वयं एक भूल थी. भूलसुधार का तो स्वागत किया जाना चाहिए ना.

अदालत कहती है, दोनों पक्ष थोड़ा दें और थोड़ा लें. लेकिन दो पक्ष हैं ही कहां? एक ही पक्ष है. हमलावर का पक्ष कब से होने लगा? रामायण की रचना क्या अदालत ने की थी? लोकभावना का सृजन अदालत ने किया था? अदालतें इतिहास की पुनर्रचना कब से करने लगीं?

हर चीज की एक सीमा होती है. हर बात पर पीछे हटने की भी. आपको सल्तनत की हुक़ूमत भी चाहिए, आपको लूट के ऐवज में हिंदुस्तान का बंटवारा भी चाहिए, आपको बदले में भाईचारे की नीयत और सेकुलरिज़्म की शर्त भी चाहिए, आपको कश्मीर और हैदराबाद भी चाहिए, आपको तीन तलाक़ भी चाहिए, आपको बाबरी की निशानी भी चाहिए. हवस की एक हद होती है!

इतिहास भी देख लो एक बार

वे कहते हैं हज़ार साल पुरानी कड़वाहट दिल में रखकर क्या होगा, आज तो हम एक हैं. मैं कहता हूं ये नेक ख्याल है. तो क्यों नहीं आप जख्मों को हरा करने वाली कड़वाहट की एक गैर जायज निशानी से अपना दावा वापस लेकर नेकनीयती का सबूत देते? भाईचारे की बुनियादी शर्त है, इसका निर्वाह आपने ही करना है. सो प्लीज़, ले-ऑफ़!

कुछ लोग कहते हैं वहां अस्पताल बनवा दीजिए. अजब अहमक़ हैं. आप अपने घर की रजिस्ट्री सरेंडर करके उस पर अस्पताल बनवा दीजिए ना. राम जन्मभूमि पर ही यह मेहरबानी किसलिए?

कुछ कहते हैं ये कोई इश्यू नहीं है, गरीबी बेरोजगारी इश्यू हैं. हद है! दादरी इश्यू है, वेमुला इश्यू है, जेएनयू इश्यू है, बस एक यही इश्यू नहीं है. दुनिया जहान की चीजों पर आप बात करेंगे, इसके उल्लेख पर आपको गरीबी बेरोजगारी याद आ जाएगी.

आप क्यों नहीं दावा छोड़ देते

सनद रहे : सवाल मंदिर का है ही नहीं. मैं यूं भी घोर अनीश्वरवादी हूं और देव स्थलों की देहरी नहीं चढ़ता. किंतु सवाल ऐतिहासिक न्याय का है, जातीय अस्मिता का है. कुछ चीजों का प्रतीकात्मक महत्व होता है. यह संदेश देना जरूरी होता है कि हम हर बार पीछे नहीं हट सकते. कोई भी स्वाभिमानी क़ौम ऐसा नहीं कर सकती न.

आप अपना दावा छोड़िए, आपका दावा नाजायज है. अवधपुरी का इतिहास 1528 में प्रारंभ नहीं हुआ था, 1528 में तो उस पर कालिख लगी थी.

मंदिर वहीं बनेगा.

(यह पोस्‍ट लेखक के फेसबुक वॉल पर पहले प्रकाशित हुई है)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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