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क्या आजम खान, शिवपाल के साथ अखिलेश को बर्बाद करने का प्लान लेकर निकले हैं?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 23 मई, 2022 05:07 PM
  • 23 मई, 2022 05:00 PM
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आजम खान समाजवादी पार्टी में रहते हुए अखिलेश यादव के खिलाफ लगभग वैसे ही चुनौतियां पेश करने की कोशिश में दिख रहे हैं जैसे कभी शिवपाल ने की थी. शिवपाल के तमाम पुराने सवालों से आज तक अखिलेश पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं. अब आजम पूर्व मुख्यमंत्री को बर्बाद करने की कोशिश या फर्जी बात मनवाने के तिकड़म में लगे हैं.

आजम खान बेल पर जेल से तो रिहा हो चुके हैं, बावजूद उनमें पुराने वाले आजम खान की झलक बिल्कुल नहीं है. वो आक्रामकता नहीं दिख रही जिसकी वजह से नोएडा से गोरखपुर तक मुस्लिम सियासत को खादपानी मिलता था. उलटे वे भावुक दिख रहे हैं. जिस पार्टी ने उन्हें एक सामान्य नेता से मुलायम सिंह के कद का नेता बनाया, उसके खिलाफ उनकी अनुशासनहीनता साफ़ दिख रही है. उनके परिवार, दोस्त, कुर्ते, जैकेट और स्टाइलिश टोपी को छोड़ भी दिया जाए तो उनके बालों के रंग में भी बदलाव प्रत्यक्ष नजर आ रहा है. बाल थोड़ा सा कम हुए हैं और उनका रंग भी अब काले की बजाय नारंगी है. तय रहा कि आजम अब वो नहीं हैं. वे लगातार बड़े संकेत दे रहे हैं.

गौर से देखें तो आखिलेश यादव के खिलाफ आजम की राजनीतिक लाइन ठीक उसी दिशा में है जहां से खड़े होकर कभी भाजपा ने भारतीय राजनीति के सबसे बड़े युवा तुर्क को लगातार दो बार पटखनी दी है. वह लाइन थी- गैर यादव गैर मुस्लिम विरोधी राजनीति. अभी मार्च में संपन्न हुए चुनावी नतीजों में यह साफ़ नहीं दिख पा रहा था. जो दिख भी रहा था उसपर राजनीतिक समीकरणों के बादल थे और यही वजह थी कि जानकार चीजों का विश्लेषण थोड़ा सा इधर या थोड़ा सा उधर कर रहे थे. अब बादल नहीं हैं. स्पष्ट दिख रहा है कि आजम, अखिलेश को राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक करने या यूं कहें कि बर्बाद करने का फूलप्रूफ प्लान लेकर बाहर निकले हैं. यह प्लान एक ही झटके में आरपार की लड़ाई करने वाला नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी और अखिलेश को रोजना, हफ्ता दर हफ्ता और महीनों तक अंदर ही अंदर खोखला करने का है. ऐसा नहीं होता तो वे इस्तीफ़ा देकर एक झटके में बाहर जा सकते हैं. लोग ऐसे ही जाते हैं.

आजम खान और अखिलेश यादव.

आजम भी शिवपाल के रास्ते पर, कुछ साल पहले इसी संकट से गुजरे थे अखिलेश  

इसके लिए आजम,...

आजम खान बेल पर जेल से तो रिहा हो चुके हैं, बावजूद उनमें पुराने वाले आजम खान की झलक बिल्कुल नहीं है. वो आक्रामकता नहीं दिख रही जिसकी वजह से नोएडा से गोरखपुर तक मुस्लिम सियासत को खादपानी मिलता था. उलटे वे भावुक दिख रहे हैं. जिस पार्टी ने उन्हें एक सामान्य नेता से मुलायम सिंह के कद का नेता बनाया, उसके खिलाफ उनकी अनुशासनहीनता साफ़ दिख रही है. उनके परिवार, दोस्त, कुर्ते, जैकेट और स्टाइलिश टोपी को छोड़ भी दिया जाए तो उनके बालों के रंग में भी बदलाव प्रत्यक्ष नजर आ रहा है. बाल थोड़ा सा कम हुए हैं और उनका रंग भी अब काले की बजाय नारंगी है. तय रहा कि आजम अब वो नहीं हैं. वे लगातार बड़े संकेत दे रहे हैं.

गौर से देखें तो आखिलेश यादव के खिलाफ आजम की राजनीतिक लाइन ठीक उसी दिशा में है जहां से खड़े होकर कभी भाजपा ने भारतीय राजनीति के सबसे बड़े युवा तुर्क को लगातार दो बार पटखनी दी है. वह लाइन थी- गैर यादव गैर मुस्लिम विरोधी राजनीति. अभी मार्च में संपन्न हुए चुनावी नतीजों में यह साफ़ नहीं दिख पा रहा था. जो दिख भी रहा था उसपर राजनीतिक समीकरणों के बादल थे और यही वजह थी कि जानकार चीजों का विश्लेषण थोड़ा सा इधर या थोड़ा सा उधर कर रहे थे. अब बादल नहीं हैं. स्पष्ट दिख रहा है कि आजम, अखिलेश को राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक करने या यूं कहें कि बर्बाद करने का फूलप्रूफ प्लान लेकर बाहर निकले हैं. यह प्लान एक ही झटके में आरपार की लड़ाई करने वाला नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी और अखिलेश को रोजना, हफ्ता दर हफ्ता और महीनों तक अंदर ही अंदर खोखला करने का है. ऐसा नहीं होता तो वे इस्तीफ़ा देकर एक झटके में बाहर जा सकते हैं. लोग ऐसे ही जाते हैं.

आजम खान और अखिलेश यादव.

आजम भी शिवपाल के रास्ते पर, कुछ साल पहले इसी संकट से गुजरे थे अखिलेश  

इसके लिए आजम, शिवपाल के साथ मिलकर भावनाओं को हवा नहीं देते और सपा की भीतरघाती ताकतों का बेजा इस्तेमाल नहीं करते. साथ ही साथ सवर्ण मुस्लिमों की वजह से यूपी की सियासी जमीन पर लगभग पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी मुस्लिम राजनीति को बिना "पसमांदा" के दोबारा जिंदा करने की बेवकूफाना कोशिश नहीं करते. आजम उसी बेवकूफाना "सवर्ण मुस्लिम राजनीति" के लिए "पसमांदा के टूल" को भोथरा करने की कोशिश में निकले हैं. जबकि यह राजनीति 90 में मंडल आंदोलन के वक्त ही ख़त्म हो जानी चाहिए थी. वे शायद कर भी इसलिए रहे हैं कि भाजपा को जवाब देने के लिए अखिलेश असल में इन्हीं भावी योजनाओं पर प्राथमिकता से काम करना चाहेंगे. मार्च में नतीजों के बाद वे खामोशी से इस पर काम करते देखें जा सकते हैं. उन्होंने संकेत भी दिए हैं.

यह अनायाश नहीं है कि शिवपाल, आजम के साथ खड़े हैं. याद करिए 2016 से पहले जब अखिलेश लोकप्रियता के चरम पर थे और यूथ आइकन बनकर उभरे थे- कैसे शिवपाल यादव ने भावुकता का सहारा लेकर उन्हें गैर जिम्मेदार, परिवार द्रोही, बड़ों का असम्मान करने वाला नेता सबित कर दिया था. सिर्फ एक झटके में. अखिलेश आज भी शिवपाल के उस भूत से पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं और भाजपा ने इन्हीं मुद्दों के सहारे निर्णायक बढ़त पाई. कुछ बिंदुओं पर जरूर गौर करना चाहिए.

शिवपाल जो सिर्फ सपा के सिम्बल पर जीतकर विधायक बने, बावजूद सपा विधायकों की मीटिंग में नहीं बुलाए जाने का बड़ा सवाल खड़ा कर दिया. जब शिवपाल की पार्टी का विलय ही नहीं हुआ था उन्हें ऐसे सवाल उठाने की क्या जरूरत थी. क्या यह अखिलेश पर हार का ठीकरा फोड़कर पार्टी के अंदर असंतोष को बढ़ावा देना नहीं था. जबकि डिप्टी सीएम केशव मौर्य को हराने वाली अपना दल (कृष्णा पटेल) की विधायक भी इसी तरह जीती थीं, बावजूद उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाया.  इसलिए नहीं उठाया क्योंकि गठबंधन की शर्त ही यही था. कोई तुक नहीं था इसका.

आजम, जिन्ना से बड़ा चेहरा नहीं; हालात में जो सही था उससे भागे कहां अखिलेश 

समूचा विपक्ष यहां तक कि एआईएमआईएम-कांग्रेस-बसपा ने भी कोशिशें कीं कि कुछ भी हो जाए सपा ना जीत पाए. यह यूपी चुनाव की वो हकीकत है जिससे बच्चा-बच्चा वाकिफ है. बावजूद जितनी सीटें अखिलेश के नेतृत्व में आईं क्या वह यूपी जैसे प्रायोगिक राज्य में भाजपा के खिलाफ एक उपलब्धि नहीं है. दूसरी ओर यूपी में भाजपा के खिलाफ अखिलेश को मजबूत नेता बनाने के लिए महबूबा मुफ्ती, ममता बनर्जी और शरद पवार आदि तक कोशिश कर रहे थे फिर भाजपा विरोधी नेताओं को क्या चीज परेशान कर रही थी. क्यों ना माना जाए कि वे सपा, कांग्रेस की आड़ में भाजपा के लिए ही बैटिंग कर रहे थे.

असदुद्दीन ओवैसी और कांग्रेस नेताओं ने भी आजम और उनके परिवार के बहाने अखिलेश को सार्वजनिक बदनाम करने की कोशिश में कुछ बाकी नहीं रखा. जैसे उनकी गिरफ्तारी की वजह अखिलेश ही रहे. जबकि मसला भ्रष्टाचार और दूसरे हैं. अब न्यायालय में चल रहे मुद्दे को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री से क्या अपेक्षा की जा सकती है? जिस राज्य में योगी आदित्यनाथ जैसा नेता भाजपा का चेहरा है भला वहां अखिलेश की मुस्लिम विरोधी छवि से क्या ही हासिल हो सकता है- आजम की पीड़ा से परेशान बुद्धिजीवी यह नहीं बता पाएंगे. सोचने वाली बात यह भी है कि अगर पूर्व मुख्यमंत्री बच रहे थे तो फिर उन्होंने सरेआम मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नाम लेकर किसे संदेश देने की कोशिश की थी. भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम सियासत में आजम खान क्या जिन्ना से बड़ा चेहरा हैं?

आजम खान, शिवपाल के इशारों पर दबाव बना रहे, अखिलेश से क्या चाहते हैं दोनों  

एक बात साफ है कि आजम, अब पुराने समाजवादी तो नहीं रहे. हैं भी तो वे अखिलेश पर भारी दबाव बना रहे हैं. साफ़ यह होना है कि वे कब कैसे और किस चीज के लिए सपा से अलग होंगे. या दबाव बना रहे हैं तो उन्हें सपा से क्या चाहिए? आजम के दो तीन दिन के बयान यही बता रहे कि उनकी सारी परेशानियों की वजह अखिलेश हैं. और संकेतों में यह साबित करना चाहते हैं कि मुस्लिम विरोध की राजनीति में उन्हें राजनीति का आसान चारा बनाया गया. क्या भाजपा के खिलाफ मुस्लिम विरोधी पार्टी के रूप में जमने का मौका अखिलेश के पास है? हंसी आती है जो लोग ऐसा सोचते हैं. शिवसेना तक भाजपा से अलग होकर वह मौका गंवा चुकी है. एक तरह से आजम खुद को बलि का बकरा ही साबित करते फिर रहे हैं. यह तो घोर अनुशासनहीनता है कि सपा की मीटिंग में ना आजम खुद गए ना परिजनों को जाने दिया और ना ही रिश्तेदारों दोस्तों को. बगावत है यह. और बगावत किसलिए. शिवपाल के लिए.

क्या आजम का यह विरोधाभास लोग नहीं देख पा रहे कि शिवपाल- डॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. आंबेडकर का हवाला देकर भाजपा के कॉमन सिविल कोड के मुद्दे को जायज बता चुके हैं. अभी कुछ ही दिन पहले. यह मुद्दा सवर्ण मुस्लिम राजनीति को बहुत नापसंद है. फिर तो समझा जाना चाहिए कि शिवपाल को पुराने दोस्त की सहमति है. असल मुद्दा यही है. मुस्लिम राजनीति में पसमांदा का मुद्दा अब खड़ा हो चुका है. भाजपा कई साल से इस पर काम करते नजर आ रही है. उनकी रणनीति और तैयारियां देखिए. जिसे मुस्लिम सियासत के तौर पर प्रचारित किया जाता है हकीकत में वह सवर्ण मुस्लिम सियासत है. उसपर दलित पिछड़े मुस्लिम नेताओं का कोई नियंत्रण नहीं है.

जयंत चौधरी और अखिलेश यादव.

योगी के खिलाफ मुस्लिम विरोधी नेता की छवि बनाकर अखिलेश क्या हासिल कर लेते?

मुझे लगता है कि अपनी पराजयों और भाजपा की तैयारियों से अखिलेश उसे लगातार महसूस कर रहे हैं. सपा के खिलाफ भाजपा, एआईएमआईएम, कांग्रेस, बसपा और ना जाने कितने नेताओं ने सीधे-सीधे या फिर संकेतों में अखिलेश पर मुस्लिम परस्त राजनीति का आरोप लगाया. सोचने वाली बात है कि जब अखिलेश मुसलमानों के इतने ही गुनहगार थे फिर छह-आठ प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मत किस राज्य के थे जो योगी के पक्ष में गिर गए और दूसरे विपक्षी उसे अपनी टोकरी में संभाल नहीं पाए. मुस्लिम सियासत में पसमांदा की जो राजनीति खड़ी हो रही है वह भला सवर्ण तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है?

जिन्ना का नाम लेने वाला इसीलिए आजम से मिलने जेल नहीं गया. उसे सिक्के के दोनों पहलुओं को देखना है किसी के व्यक्तिगत नफे नुकसान को नहीं. उन्हें जाना भी नहीं चाहिए था. क्या अखिलेश एक कानूनी मुद्दे को सड़क पर लाकर दंगा करवा दें? आजम किसी जनांदोलन की वजह से जेल में बंद नहीं हैं. अखिलेश के कद का नेता वहां उनसे मिलने जाता तो भारी नुकसान उठाना पड़ता. शिवपाल अब जिस कद के नेता हैं जा सकते हैं. किसी ने सुना क्या कि महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री देशमुख और मंत्री नवाब मालिक से जेल में मिलने शरद पवार पहुंचे. क्यों नहीं पहुंचे इसे जानने के लिए कहानियां गढ़ने की जरूरत नहीं है.

राजनीति केवल भावुकता से नहीं होती. आजम भावुकता में सपा को पौधे से वृक्ष बनाने का बयान दे रहे हैं. बयान यह दे रहे हैं कि उन्होंने मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी को बनाया. आजम गलत हैं. मुलायम को मंडल की राजनीति ने बनाया. और उसी मंडल के प्रभाव को मुस्लिम सियासत में घुसने से रोकने के लिए आजम उनके साथ हुए थे. आजम को मुलायम ने बनाया. वैसे ही जैसे मुलायम ने ही कभी अमर सिंह जैसे ना जाने कितनों को बनाया था. आजम को एक वक्त बेहद ताकतवर रहे अमर का हश्र नहीं भूलना चाहिए. सपा से बाहर जाकर उनका कुछ शेष नहीं बचा था.

मुस्लिम पसमांदा राजनीति सपा, उत्तर प्रदेश और देश के भविष्य के लिए हर लिहाज से बेहतर है. अखिलेश को उसी दिशा में बढ़ना चाहिए. यह उनकी पार्टी की विचारधारा और वक्त की भी जरूरत है. जिन्हें उस राजनीति से नुकसान है वे बौखालाएंगे ही और मुस्लिम नारा देकर ही बौखलाएंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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