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अशोक गहलोत तो अमरिंदर जैसे बागी हो चले - अब राहुल गांधी कंट्रोल कैसे करेंगे?

    • आईचौक
    • Updated: 31 जुलाई, 2018 11:26 AM
  • 31 जुलाई, 2018 11:26 AM
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हरियाणा में तो भूपिंदर हुड्डा की दाल अब तक नहीं गल पायी, लेकिन राजस्थान कांग्रेस में पंजाब वाली कहानी दोहरा दी गयी है. 2019 की चुनौतियों से हर रोज जूझ रहे राहुल गांधी के लिए नयी मुसीबत खड़ी हो गयी है.

कांग्रेस नेतृत्व दिन प्रति दिन 2019 की चुनौतियों से दो चार तो हो ही रहा है - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव अलग चैलेंज बने हुए हैं. मायावती की बीएसपी के साथ गठबंधन भी भरपूर टेंशन दे रहा है. हाल ये हो चली है कि 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती और ममता के नाम पर भी राहुल गांधी राजी होने की बात करने लगे हैं.

बाहर तो बाहर कांग्रेस के भीतर भी कोई राहुल गांधी को चैन से बैठने देने को तैयार नहीं है. हरियाणा की गुटबाजी से सबक लेते हुए कांग्रेस नेतृत्व को मध्य प्रदेश की ज्यादा फिक्र थी, इसलिए पहले राजस्थान की कमान सचिन पायलट को सौंप दी. जब लग रहा था कि सचिन के हिसाब से एमपी की जिम्मेदारी तो माधवराव सिंधिया को मिलनी चाहिये - मालूम हुआ कमलनाथ बाजी मार ले गये.

राजस्थान की गुटबाजी खत्म करने के लिए राहुल गांधी ने काफी सोच विचार कर अशोक गहलोत को दिल्ली लाये - और राजस्थान को सचिन के हवाले कर दिया. बस पेंच एक छूट गया - मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया. अब मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर फिर से बवाल शुरू हो गया है.

चुनाव से पहले कांग्रेस में किचकिच

राजस्थान में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावे में कैप्टन अमरिंदर सिंह की बगावत का अक्स साफ नजर आता है. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव से काफी पहले ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के समर्थकों की ओर से खबरें लीक की जाने लगी कि वो नयी पार्टी बनाने की तैयारी कर रहे हैं. दरअसल, कैप्टन अमरिंदर अपने विरोधी को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज थे. राहुल गांधी तब कांग्रेस के उपाध्यक्ष हुआ करते थे, लेकिन सोनिया की सक्रियता घटाने से उनकी चलनी शुरू हो गयी थी. राहुल गांधी प्रताप सिंह बाजवा को पसंद करते थे. फिर क्या था एक दिन प्रताप सिंह बाजवा को पीसीसी का अध्यक्ष बना दिया गया. पीसीसी अध्यक्ष होना चुनाव जीतने पर मुख्यमंत्री होने की गारंटी नहीं होती, लेकिन अगर किसी नेता को पहले से मालूम हो जाये कि उसके की दुश्मन की सीएम की कुर्सी पर नजर है तो वो राह आसान कैसे रहने देगा भला. कैप्टन अमरिंदर को इसी बात का डर था. आखिरकार, दबाव बनाकर कैप्टन अमरिंदर ने न सिर्फ सूबे की कमान अपने हाथ में ली, राहुल गांधी से खुद को मुख्यमंत्री कैंडिडेट भी घोषित कराया - और मुख्यमंत्री बने हुए...

कांग्रेस नेतृत्व दिन प्रति दिन 2019 की चुनौतियों से दो चार तो हो ही रहा है - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव अलग चैलेंज बने हुए हैं. मायावती की बीएसपी के साथ गठबंधन भी भरपूर टेंशन दे रहा है. हाल ये हो चली है कि 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती और ममता के नाम पर भी राहुल गांधी राजी होने की बात करने लगे हैं.

बाहर तो बाहर कांग्रेस के भीतर भी कोई राहुल गांधी को चैन से बैठने देने को तैयार नहीं है. हरियाणा की गुटबाजी से सबक लेते हुए कांग्रेस नेतृत्व को मध्य प्रदेश की ज्यादा फिक्र थी, इसलिए पहले राजस्थान की कमान सचिन पायलट को सौंप दी. जब लग रहा था कि सचिन के हिसाब से एमपी की जिम्मेदारी तो माधवराव सिंधिया को मिलनी चाहिये - मालूम हुआ कमलनाथ बाजी मार ले गये.

राजस्थान की गुटबाजी खत्म करने के लिए राहुल गांधी ने काफी सोच विचार कर अशोक गहलोत को दिल्ली लाये - और राजस्थान को सचिन के हवाले कर दिया. बस पेंच एक छूट गया - मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया. अब मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर फिर से बवाल शुरू हो गया है.

चुनाव से पहले कांग्रेस में किचकिच

राजस्थान में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावे में कैप्टन अमरिंदर सिंह की बगावत का अक्स साफ नजर आता है. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव से काफी पहले ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के समर्थकों की ओर से खबरें लीक की जाने लगी कि वो नयी पार्टी बनाने की तैयारी कर रहे हैं. दरअसल, कैप्टन अमरिंदर अपने विरोधी को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज थे. राहुल गांधी तब कांग्रेस के उपाध्यक्ष हुआ करते थे, लेकिन सोनिया की सक्रियता घटाने से उनकी चलनी शुरू हो गयी थी. राहुल गांधी प्रताप सिंह बाजवा को पसंद करते थे. फिर क्या था एक दिन प्रताप सिंह बाजवा को पीसीसी का अध्यक्ष बना दिया गया. पीसीसी अध्यक्ष होना चुनाव जीतने पर मुख्यमंत्री होने की गारंटी नहीं होती, लेकिन अगर किसी नेता को पहले से मालूम हो जाये कि उसके की दुश्मन की सीएम की कुर्सी पर नजर है तो वो राह आसान कैसे रहने देगा भला. कैप्टन अमरिंदर को इसी बात का डर था. आखिरकार, दबाव बनाकर कैप्टन अमरिंदर ने न सिर्फ सूबे की कमान अपने हाथ में ली, राहुल गांधी से खुद को मुख्यमंत्री कैंडिडेट भी घोषित कराया - और मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

गहलोत ने राजस्थान कांग्रेस में बवाल नहीं बवंडर ला दिया है

अशोक गहलोत की दावेदारी भी कैप्टन अमरिंदर से ही प्रेरित लगती है. राजस्थान में स्थिति पंजाब से थोड़ी अलग है. राजस्थान में राहुल गांधी सचिन पायलट के साथ साथ अशोक गहलोत को भी उतना ही पसंद करते हैं - और भरोसा भी. गुजरात चुनाव प्रचार की तस्वीरें देखिये तो बगैर अशोक गहलोत के राहुल गांधी का शायद ही कोई फोटो गूगल पर देखने को मिलेगा.

अशोक गहलोत के बयान के बाद राजस्थान कांग्रेस में बवाल मचना स्वाभाविक था. अब तो अशोक गहलोत और सचिन पायलट के समर्थक भी आमने सामने आ चुके हैं.

क्या अमरिंदर वाली कहानी दोहरा पाएंगे अशोक गहलोत

राजस्थान कांग्रेस में शुरू हो चुके इस बवाल की नींव रख दी है पूर्व केंद्रीय मंत्री लालचंद कटारिया ने. गहलोत से दिल्ली में मुलाकात के बाद कटारिया जब जयपुर पहुंचे तो बोल दिया कि अगर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं घोषित किया गया तो कांग्रेस जीती हुई बाजी हार जाएगी. कटारिया की दलील रही कि बीजेपी सरकार से लोगों में जबरदस्त नाराजगी है जो कांग्रेस के लिए बेहतरीन मौका साबित हो सकती है.

गुजरात में साये की तरह हर कदम पर राहुल गांधी के साथ रहे अशोक गहलोत को जनार्दन द्विवेदी की जगह संगठन महासचिव बनाया गया था. बाकियों के साथ साथ अशोक गहलोत को भी ये राजस्थान से उनकी विदायी समझ आया. वैसे भी सचिन पायलट ने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए उपचुनावों के नतीजे कांग्रेस की झोली में भर दिये थे. मीडिया के पूछने पर अब गहलोत कह रहे हैं - 'मैंने राजस्थान छोड़ा ही कब था?'

उदयपुर में जब अशोक गहलोत मीडिया से मुखातिब हुए तो कांग्रेस के मुख्यमंत्री फेस को लेकर सवाल पूछा गया. अशोक गहलोत को ये मौका मन की बात करने के लिए बेहद माकूल लगा.

गहलोत तपाक से बोले, "राजस्थान के लोग एक चेहरे से परिचित हैं, जो 10 बरसों तक मुख्यमंत्री रह चुका है. मुख्यमंत्री के इस चेहरे पर इससे अधिक और क्या स्पष्टीकरण क्या हो सकता है?"

कुर्सी के साथ साथ अशोक गहलोत ने ये भी दावा किया कि वो जनता के सेवक हैं और अंतिम सांस तक सेवक रहेंगे - वो दिल्ली रहें, पंजाब रहें या गुजरात, लेकिन सेवा राजस्थान की जनता की ही करेंगे.

हरियाणा में तो गुटबाजी चरम पर रही ही, राजस्थान में भी शुरू हो गयी. वैसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भी बहुत अच्छी खबरें नहीं आ रही हैं. मुश्किल ये है कि इस समस्या का हल भी राहुल गांधी को ही ढूंढना है. अब इसके लिए भी वो सोनिया गांधी का मुंह देखेंगे तो विपक्षी दलों के साथ डील पक्की कौन करेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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