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कांग्रेस का न बदलना समस्या है, केजरीवाल तो बने ही बदल जाने के लिए थे!

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 27 अक्टूबर, 2021 12:17 PM
  • 27 अक्टूबर, 2021 12:17 PM
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आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) के मुखिया अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) राजनीतिक तौर पर मजबूत होने के लिए विचारधारा में बदलाव के फैसले ले रहे हैं. राम मंदिर (Ram Temple) के दर्शन कर केजरीवाल अपनी छवि को बदलने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, कांग्रेस (Congress) इस मामले में पिछड़ती हुई नजर आती है.

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) अयोध्या में सरयू आरती करते नजर आए. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly Elections 2022) के मद्देनजर दिल्ली के मुख्यमंत्री की इस अयोध्या यात्रा (Ayodhya) का सुर्खियों में आना कोई बड़ी बात नहीं है. वो अलग बात है कि यूपी भाजपा के प्रवक्ता शलभमणि त्रिपाठी ने केजरीवाल की इस यात्रा पर सवाल भी उठाए हैं. इन सबसे इतर अहम सवाल ये है कि 2014 में उत्तर प्रदेश में एक रैली के दौरान अपनी नानी का उदाहरण देते हुए राम मंदिर पर सवाल उठाने वाले अरविंद केजरीवाल अब सरयू आरती के बाद रामलला के दर्शन की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन, यूपी चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए मेहनत में जुटी कांग्रेस इस मामले में पूरी तरह से पिछड़ती हुई नजर आती है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस का न बदलना समस्या है, केजरीवाल तो बने ही बदल जाने के लिए थे.

केजरीवाल की चतुराई से भाजपा भी चकराई

आम आदमी पार्टी के उदय के साथ ही अरविंद केजरीवाल ने अपने दल का सियासी भविष्य तय कर दिया था. दिल्ली में पहली बार बिना बहुमत के 49 दिनों तक कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चलाने वाले केजरीवाल ने इस्तीफे के बाद सीधे लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को चुनौती दी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने पर केजरीवाल को भले ही हार मिली हो. लेकिन, मोदी के सामने मिली इसी हार ने उन्हें दिल्ली की सत्ता पर काबिज करवाया था. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने उस समय ही नरेंद्र मोदी के सामने खुद को एक विकल्प के तौर पर स्थापित कर दिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए मोदी लहर के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को मिली अभूतपूर्व जीत इसकी एक झलक भर था.

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) अयोध्या में सरयू आरती करते नजर आए. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly Elections 2022) के मद्देनजर दिल्ली के मुख्यमंत्री की इस अयोध्या यात्रा (Ayodhya) का सुर्खियों में आना कोई बड़ी बात नहीं है. वो अलग बात है कि यूपी भाजपा के प्रवक्ता शलभमणि त्रिपाठी ने केजरीवाल की इस यात्रा पर सवाल भी उठाए हैं. इन सबसे इतर अहम सवाल ये है कि 2014 में उत्तर प्रदेश में एक रैली के दौरान अपनी नानी का उदाहरण देते हुए राम मंदिर पर सवाल उठाने वाले अरविंद केजरीवाल अब सरयू आरती के बाद रामलला के दर्शन की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन, यूपी चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए मेहनत में जुटी कांग्रेस इस मामले में पूरी तरह से पिछड़ती हुई नजर आती है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस का न बदलना समस्या है, केजरीवाल तो बने ही बदल जाने के लिए थे.

केजरीवाल की चतुराई से भाजपा भी चकराई

आम आदमी पार्टी के उदय के साथ ही अरविंद केजरीवाल ने अपने दल का सियासी भविष्य तय कर दिया था. दिल्ली में पहली बार बिना बहुमत के 49 दिनों तक कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चलाने वाले केजरीवाल ने इस्तीफे के बाद सीधे लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को चुनौती दी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने पर केजरीवाल को भले ही हार मिली हो. लेकिन, मोदी के सामने मिली इसी हार ने उन्हें दिल्ली की सत्ता पर काबिज करवाया था. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने उस समय ही नरेंद्र मोदी के सामने खुद को एक विकल्प के तौर पर स्थापित कर दिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए मोदी लहर के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को मिली अभूतपूर्व जीत इसकी एक झलक भर था.

अरविंद केजरीवाल अयोध्या में सरयू आरती के दूसरे दिन रामलला के दर्शन भी करने पहुंचे थे. (फोटो साभार:Twitter/@ArvindKejriwal)

दूसरी बार दिल्ली की सत्ता में आने से पहले अयोध्या में राम मंदिर, तीन तलाक, धारा 370, सर्जिकल स्ट्राइक, सीएए जैसे हर मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी (AAP) की विचारधारा को देश का राजनीतिक माहौल भांपते हुए धीरे-धीरे बदलाव की ओर बढ़ाया. कंप्यूटर की भाषा में कहें, तो अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की विचारधारा को 'ऑटो करेक्ट' मोड में डाल दिया है. जो भाजपा के हिंदुत्व के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए स्वत: ही अरविंद केजरीवाल को 'हनुमान भक्त' बना देता है. इतना ही नहीं भाजपा के राष्ट्रवादी विचार को काउंटर करने के लिए आसानी से दिल्ली के स्कूलों 'देशभक्ति पाठ्यक्रम' को लागू करने की ओर आगे बढ़ जाता है. दिल्ली की जनता के बीच ये उनकी इस विचारधारा की स्वीकार्यता ही है, जो उन्हें दोबारा सत्ता में लाने में मदद करती है.

यहां इस बात को ध्यान में भी रखना जरूरी है कि अरविंद केजरीवाल ने बीते कुछ वर्षों में पार्टी में जो कुछ भी बदलाव किए हैं, वो तात्कालिक फायदे से ज्यादा भविष्य में हो सकने वाले लाभ पर निर्भर हैं. आम आदमी पार्टी की कोशिश है कि वो खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करे. इसके लिए वह भाजपा के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दों के लाइट वर्जन के साथ आगे बढ़ रही है. और, इसमें कामयाब भी साबित हो रही है. इतना ही नहीं केजरीवाल के पास 'दिल्ली मॉडल' के रूप में एक ऐसा सियासी हथियार है, जिसका सामना करने से कांग्रेस ही नहीं भाजपा भी बचती हुई दिखाई देती है.

आखिर क्यों कांग्रेस बदलना ही नहीं चाहती?

कांग्रेस इस समय वैचारिक रूप से एक ऐसे फुलस्टॉप पर रुकी हुई है, जहां से उसे आगे बढ़ने का रास्ता ही नजर नहीं आ रहा है. बीते तीन दशकों में केंद्र की सत्ता पाकर ही खुश रहने वाली कांग्रेस से ही अलग होकर कई क्षेत्रीय दलों ने पार्टी की नाक के नीचे से राज्यों में अपना प्रभाव बना लिया. हालात ये हो गए कि महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड जैसे राज्यों में जहां कांग्रेस सत्ताधारी दल या मुख्य विपक्ष हुआ करती थी, वहां अब सहयोगी की भूमिका निभा रही है. केंद्र की सत्ता को ही नजर में रखते हुए कांग्रेस आगे बढ़ी और धीरे-धीरे उसका प्रभाव घटता गया. 2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद भी कांग्रेस ने खुद में किसी तरह का बदलाव लाने की कोशिश नहीं की. हाल ही में कांग्रेस के सदस्यता संबंधी आवेदन पत्र में पार्टी की ओर से रखी गई शर्तों में से एक यह है कि सार्वजनिक मंचों पर कभी भी पार्टी की नीतियों एवं कार्यक्रमों की आलोचना नहीं की जाएगी. कहा जा रहा है कि कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के जी-23 गुट से सीख लेते हुए पार्टी ने ये रणनीति अपनाई है. लेकिन, सवाल ये है कि आखिर कांग्रेस बदलना क्यों नहीं चाहती है?

राजनीतिक दुविधा में फंसी कांग्रेस के सामने आगे का सियासी सफर तय करना मुश्किलों से भरा है.

यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सूबे में अपना डेरा जमाया हुआ है. सोनभद्र, हाथरस, लखीमपुर खीरी, आगरा जैसे सभी मामलों पर सीधे योगी आदित्यनाथ सरकार को घेरकर प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को संजीवनी देने की भरपूर कोशिश कर रही हैं. लेकिन, कांग्रेस यानी गांधी परिवार का कोई भी सदस्य राम मंदिर, सीएए, धारा 370, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दों पर किसी भी तरह का कोई संदेश देने से सीधे तौर पर बचने की कोशिश कर रही है. 10 सालों तक यूपीए सरकार चलाने वाली पार्टी का पूरा फोकस केवल भाजपा और पीएम नरेंद्र मोदी के विरोध पर टिका है. जबकि, ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जिनसे हर भारतीय कहीं न कहीं खुद से जुड़ाव महसूस करता है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो चीनी सेना के साथ गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के दौरान पार्टी हितों से ऊपर कांग्रेस को देशहित में केंद्र की मोदी सरकार का साथ देना चाहिए था. लेकिन, मोदी और भाजपा विरोध में राहुल गांधी लगातार सवाल उठा रहे थे. जो एक बड़े परिदृश्य में कांग्रेस के खिलाफ ही गया.

इतना ही नहीं कांग्रेस राज्यों में अपने कमजोर प्रदर्शन पर चिंतन करने की बजाय भाजपा को हराने वाली राजनीतिक पार्टी को बधाईयां देने में जुट जाती है. शाहबानो मामले पर पीएम राजीव गांधी के फैसले से लेकर सुप्रीम कोर्ट में भगवान राम के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाले यूपीए के हलफनामे तक कांग्रेस ने कदम-कदम पर गलतियां की हैं. कहना गलत नहीं होगा कि जब तमाम विपक्षी दल इन मुद्दों पर अपनी राय खुलकर जाहिर कर रहे हैं, तो कांग्रेस आक्रामक होने के बजाय दुविधा में घिरकर खुद को ही नुकसान पहुंचा रही है. आसान शब्दों में कहें, तो राम मंदिर से लेकर धारा 370 जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की चुप्पी या तटस्थ रहने की सोच कांग्रेस को कमजोर कर रही है. और, क्षेत्रीय दलों को आगे बढ़ने का मौका दे रही है. ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, अखिलेश यादव समेत अन्य नेताओं का कांग्रेस को आंखें दिखाना तो फिलहाल यही साबित कर रहा है.

केजरीवाल के पास तैयार है पूरा रोडमैप

अरविंद केजरीवाल 2024 से पहले होने वाले हर विधानसभा चुनाव में खुद को भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं. 2022 की पहली तिमाही में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव की बात करें, तो मणिपुर को छोड़कर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में आम आदमी पार्टी खुद को स्थापित करने के लिए पूरा दमखम लगा रही है. वहीं, पंजाब कांग्रेस में जारी सियासी घमासान को देखते हुए बहुत हद तक संभावना है कि सूबे में आम आदमी पार्टी कोई कमाल कर जाए. अगले साल की आखिरी तिमाही में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी अरविंद केजरीवाल का एकसूत्रीय एजेंडा कांग्रेस के विकल्प के रूप में खुद को सामने लाना ही नजर आता है. 2023 के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की भरपूर कोशिश करेगी. वहीं, अगर पंजाब विधानसभा चुनाव के बाद नतीजे आम आदमी पार्टी के पक्ष में आते हैं, तो कहना गलत नहीं होगा कि देश का राजनीतिक माहौल काफी हद तक कांग्रेस रहित चुनावों की ओर बढ़ सकता है. और, साझा विपक्ष का नेतृत्व निर्विवाद रूप से अरविंद केजरीवाल के हाथों में होगा. 


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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