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Delhi Riots: अरविंद केजरीवाल ने चुनाव में जो कमाया, दंगे में गंवा दिया!

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 फरवरी, 2020 08:23 PM
  • 28 फरवरी, 2020 08:23 PM
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अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने चुनावों की पूरी कमाई दिल्ली दंगे (Delhi Riots) में गंवा दी है. एक आंतरिक आंकलन (Internal Assessment of Kejriwal’s Popularity) में केजरीवाल के घर बैठे रहने से लोग बहुत नाराज हैं. दिल्ली चुनाव में लोगों ने जिस बेटे को हाथों हाथ लिया था - कुर्सी पर बैठते ही वो भूल गया.

सिर्फ दिल्लीवाले ही नहीं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) भी दंगे (Delhi Riots) के सियासी शिकार हो गये हैं. केजरीवाल शायद भूल गये कि चुनाव प्रबंधन के कौशल मुख्यधारा की सियासत का हिस्सा भर होता है, राजकाज का संपूर्ण राजनीति शास्त्र नहीं. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद से अरविंद केजरीवाल ने कुर्सी तो बचा ली, लेकिन आगे की राजनीतिक लड़ाई में बुरी तरह फंस चुके हैं.

बिहार चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी के भीतर या फिर प्रशांत किशोर के साथ जो भी खिचड़ी पकायी जा रही हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में तो संजय सिंह ने पार्टी का चुनावी बिगुल बजा ही दिया है - और दिल्ली में जीते विधायकों को उनके गृह जनपदों में सम्मानित किये जाने का कार्यक्रम भी तय हो चुका है.

लेकिन दिल्ली में दंगों के दौरान अरविंद केजरीवाल का लगभग मूकदर्शक बने रहना बहुत भारी पड़ा (Internal Assessment of Kejriwal’s Popularity) है और आम आदमी पार्टी को मीलों पीछे धकेल दिया है - वो भी तब जबकि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में तकरीबन उतनी ही सीटों पर जीत के साथ सत्ता में लौटे हैं.

अपने बेटे से बहुत नाराज हैं दिल्लीवाले

दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने खुद को लायक बेटे के तौर पर प्रोजेक्ट किया था और उसी भरोसे बीजेपी के हमलों को काउंटर किया था. जब बीजेपी नेताओं अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी बताना शुरू किया तो वो रिएक्ट नहीं किये, बल्कि आरोपों को ही पलटवार का हथियार बना डाला. काफी हद तक वैसे ही जैसे आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के 'चौकीदार चोर है' स्लोगन के साथ नाम के पहले 'चौकीदार' लिख कर किया था. अरविंद केजरीवाल ने भी साफ साफ बोल दिया था अगर दिल्लीवालों को लगता है कि वो आतंकवादी हैं तो बीजेपी को वोट दे दें. दिल्लीवालों को अपने बेटे पर पूरा भरोसा रहा और फैसला भी वैसा ही सुनाया.

सिर्फ दिल्लीवाले ही नहीं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) भी दंगे (Delhi Riots) के सियासी शिकार हो गये हैं. केजरीवाल शायद भूल गये कि चुनाव प्रबंधन के कौशल मुख्यधारा की सियासत का हिस्सा भर होता है, राजकाज का संपूर्ण राजनीति शास्त्र नहीं. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद से अरविंद केजरीवाल ने कुर्सी तो बचा ली, लेकिन आगे की राजनीतिक लड़ाई में बुरी तरह फंस चुके हैं.

बिहार चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी के भीतर या फिर प्रशांत किशोर के साथ जो भी खिचड़ी पकायी जा रही हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में तो संजय सिंह ने पार्टी का चुनावी बिगुल बजा ही दिया है - और दिल्ली में जीते विधायकों को उनके गृह जनपदों में सम्मानित किये जाने का कार्यक्रम भी तय हो चुका है.

लेकिन दिल्ली में दंगों के दौरान अरविंद केजरीवाल का लगभग मूकदर्शक बने रहना बहुत भारी पड़ा (Internal Assessment of Kejriwal’s Popularity) है और आम आदमी पार्टी को मीलों पीछे धकेल दिया है - वो भी तब जबकि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में तकरीबन उतनी ही सीटों पर जीत के साथ सत्ता में लौटे हैं.

अपने बेटे से बहुत नाराज हैं दिल्लीवाले

दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने खुद को लायक बेटे के तौर पर प्रोजेक्ट किया था और उसी भरोसे बीजेपी के हमलों को काउंटर किया था. जब बीजेपी नेताओं अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी बताना शुरू किया तो वो रिएक्ट नहीं किये, बल्कि आरोपों को ही पलटवार का हथियार बना डाला. काफी हद तक वैसे ही जैसे आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के 'चौकीदार चोर है' स्लोगन के साथ नाम के पहले 'चौकीदार' लिख कर किया था. अरविंद केजरीवाल ने भी साफ साफ बोल दिया था अगर दिल्लीवालों को लगता है कि वो आतंकवादी हैं तो बीजेपी को वोट दे दें. दिल्लीवालों को अपने बेटे पर पूरा भरोसा रहा और फैसला भी वैसा ही सुनाया.

मगर, अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के 10 दिन के भीतर ही सब गड़बड़ हो चुका है - दिल्लीवाले खुद पर अफसोस करने लगे हैं कि जिस बेटे पर भरोसा किया वो तो फिर से भगोड़ा साबित हो गया - दिल्ली में हिंसा और उपद्रव के दौरान अरविंद केजरीवाल को लोगों ने शिद्दत से मिस किया है. मुसीबत के वक्त अरविंद केजरीवाल को साथ न पाकर वे काफी अफसोस कर रहे हैं.

खास बात ये है कि ये सब कोई बाहरी नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी के इंटरनल सर्वे में मालूम हुआ है. अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ ने आप के आंतरिक सर्वे से जुड़े एक पदाधिकारी के हवाले से इस सिलसिले में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है.

रिपोर्ट के मुताबिक, एक ऑनलाइन सर्वे में 80 फीसदी लोगों ने नकारात्मक फीडबैक दिया है - और ये तब की बात है जब लंबी खामोशी के बाद अरविंद केजरीवाल ने शांति की अपील के साथ साथ पीड़ितों के लिए कई तरह की राहत और मुआवजे की घोषणा भी की है. 10 लाख तक नकद मुआवजे के साथ ही अरविंद केजरीवाल ने बीमा कंपनियों से क्लेम दिलाने में मदद का भी भरोसा भी दिलाया है.

सिख दंगे पर कांग्रेस और गुजरात दंगे पर बीजेपी को घेरने वाले अरविंद केजरीवाल खुद ही शिकार हो गये हैं

आंतरिक सर्वे में पता चला है कि दिल्ली के लोग ताजा हिंसा और उपद्रव की तुलना 1984 के सिख दंगों करने लगे हैं, जब पूरी दिल्ली में सिखों को खोज खोज कर दंगाइयों ने निशाना बनाया था. 84 दंगों का जिक्र तब शुरू हुआ जब सोनिया गांधी ने हिंसा रोक पाने में नाकामी के लिए गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा मांगा और फिर राष्ट्रपति से उन्हें पद से हटाने को लेकर ज्ञापन भी दे डाला. बीजेपी ने कांग्रेस को 84 दंगों के साथ साथ राजीव गांधी के बयान की भी याद दिलायी - 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती...'

AAP के एक पदाधिकारी के हवाले से अखबार लिखता है, 'हमने भरोसा खो दिया है. ज्यादातर लोग हमे अप्रभावी और अवसरवादी मानने लगे हैं. ये हालत इसलिए हुई क्योंकि हम बैठे रह गये और पूरा मौका BJP के हवाले कर दिया.'

देखा जाये तो अरविंद केजरीवाल को लेकर दिल्लीवालों की ये धारणा यूं ही नहीं बनी है. असल बात तो ये है कि जो बात बीजेपी केजरीवाल के बारे में लोगों को समझाने की कोशिश कर रही थी, आप नेता ने खुद को बिलकुल उसी पैमाने पर एक्सपोज कर दिया है.

हो सकता है अरविंद केजरीवाल को लगा हो कि कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी तो दिल्ली पुलिस पर आएगी और वो केंद्र सरकार में अमित शाह को रिपोर्ट करती है, दिल्ली सरकार साफ बच जाएगी. अरविंद केजरीवाल ये सोच कर बैठे रहे कि सारे सवाल तो अमित शाह पर उठेंगे और उनकी सरकार साफ बच जाएगी. जब मामला शांत होगा तो थोड़ा बहुत मौका मुआयना कर लेंगे - और अस्पतालों में जाकर लोगों से मुलाकात कर लेंगे - मीडिया और सोशल मीडिया के जरिये तस्वीरें और बयान तो लोगों तक पहुंच ही जाएंगे. मगर, कोई भी हो सोचे समझे अनुसार घटनाएं होती कब हैं.

जगह जगह आग लगाते जान लेने पर उतारू दंगाइयों की भीड़ से घिरे लोग घरों में इंतजार करते रहे - और मुख्यमंत्री सरकारी आवास में बैठे सही मौके का इंतजार करते रहे - कब लोहा गर्म हो और वार करें. किया भी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. दिल्ली के लोग अपने दुलरुवा बेटे के इरादे भांप चुके थे - बेटा उनके बीच गया जरूर लेकिन तब जब सब कुछ लुट चुका था.

अरविंद केजरीवाल पर मतलब निकल जाने पर मुंह मोड़ लेने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं. RTI की लड़ाई में अरविंद केजरीवाल के साथ रहे लोगों की भी वही धारणा है, जैसी योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास या जैसा अब दिल्ली के लोग महसूस कर रहे हैं - ये तो मानना पड़ेगा अरविंद केजरीवाल बिलकुल नहीं बदले हैं.

बाहर कौन कहे - अब तो दिल्ली में भी फजीहत है

अरविंद केजरीवाल भी ये मान कर चल रहे होंगे कि जिस तरह केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 2024 तक कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता, 2025 तक उनका भी कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. संभव है ऐसा ही हो, लेकिन तभी जब कोई कर्नाटक या कुछ देर के लिए महाराष्ट्र जैसी राजनीतिक अनहोनी न हो. कोई ऑपरेशन लोटस न शुरू हो.

दिल्ली चुनाव में जीत के साथ ही अरविंद केजरीवाल देश की बात करने लगे थे. नये तरीके की राजनीति की बात करने लगे थे. काम की राजनीति की बात करने लगे थे. अब तो सवाल ये उठता है कि अरविंद केजरीवाल के काम की राजनीत वाले बयान को समझा कैसे जाये? केजरीवाल के काम की राजनीति की कोई खास राजनीतिक परिभाषा भी है क्या जिसे भाव नहीं बल्कि शब्दों से ही समझा जा सकता है?

क्या मुसीबत में इंतजार कर रहे दिल्लीवालों की खबर लेना अरविंद केजरीवाल के लिए कोई काम की राजनीति नहीं थी? क्या गोली लगने पर उन्हें अस्पताल भेजने के लिए अरविंद केजरीवाल के पास शुरुआती तीन दिनों तक एक भी 'दिल्ली के फरिश्ते' नहीं थे?

क्या अरविंद केजरीवाल ने दिल्लीवालों को यही दिन दिखाने के लिए टीवी चैनल पर हनुमान चालीसा का पाठ किया था? क्या अरविंद केजरीवाल ने हनुमान मंदिर में यही प्रार्थना की थी कि जब शहर के लोगों पर मुसीबत आये तो बचा लेना प्रभु? क्या महज राजनीति चमकाने के लिए नतीजे आने के बाद शुक्रिया कहा था?

दिल्ली से बाहर पांव पसारने से पहले अरविंद केजरीवाल के सामने MCD चुनावों में AAP का प्रदर्शन बड़ा चैलेंज है. आम आदमी पार्टी ने यूपी विधानसभा चुनाव के साथ साथ स्थानीय निकाय के चुनावों की भी तैयारी कर रखी है. 2017 में अरविंद केजरीवाल की पार्टी जहां दिल्ली में एक भी नगर निगम का चुनाव नहीं जीत पायी, वहीं यूपी में तीसरी पोजीशन भी नसीब न हो सकी.

और क्या ऐसी ही राजनीति के बूते MCD चुनावों में केजरीवाल और उनके साथी वोट मांगने जाएंगे? और क्या ऐसी ही मंशा के साथ अरविंद केजरीवाल और उनके साथी देश की राजनीति को बदलने का ख्वाब देख रहे हैं?

25 फरवरी की बात है. दिल्ली में बवाल बेकाबू हो चुका था. दंगाइयों के आगे बेबस दिल्ली पुलिस के अलावा कोई और कहीं नजर नहीं आ रहा था. तभी बॉलीवुड डायरेक्टर हंसल मेहता ने ट्विटर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को टैग करते हुए एक सवाल पूछा था - 'गुड मॉर्निंग. उम्मीद है आपको अच्छी नींद आयी होगी.' लगता है इसके बाद ही अरविंद केजरीवाल की नींद टूटी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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