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उमेश का 'दोस्त' था यूसुफ, कटवा डालने के बाद गंगा जमुनी तहजीब के लिए अंतिम यात्रा में भी गया!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 04 जुलाई, 2022 02:05 PM
  • 04 जुलाई, 2022 01:53 PM
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अमरावती और उदयपुर के आतंकी हमलों में बिल्कुल अंतर नहीं है. 'उमेशों' का मरना तय है, क्योंकि उसे बचपन का दोस्‍त यू‍सुफ नहीं मारेगा तो कोई अनजान मोहम्मद रियाज निबटा देगा. और सुप्रीम कोर्ट के लिबरल जज ऐसी हत्याओं का 'जायज कारण' भी समझा देंगे.

उदयपुर से अमरावती तक इस्लामिक आतंकियों ने जिस तरह देश को सीरिया बनाने की दिशा में झोकने का काम किया, वह कितना गंभीर है इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. दोनों घटनाओं को जानने समझने के बाद कुछ बचता नहीं बात करने के लिए बावजूद कोई सबक लेने के लिए पाखंडियों की भीड़ राहत और बचाव कार्य में जुटी हुई है. भले ही सम्मानित सुप्रीम कोर्ट के माननीय जज दोनों मामलों की वजह नुपुर शर्मा को बता दें, लेकिन आतंकी साजिश की खुल रही परतें अलग तरह के सड़ांध की मुनादी के लिए काफी हैं. पड़ोसी और दोस्त ही जान का दुश्मन बन जाए तो गैर मजहबी इंसानी रिश्तों में भरोसे लायक बचता क्या है. गलती भी महज किसी का समर्थन और विरोध करना भर है.

देश के अंदर एक छोटे तबके में 'सांगठनिक धार्मिक विद्वेष' भयावह स्तर तक पहुंच चुका है. इतना कि सबसे करीबी दोस्त और मुश्किल में मददगार को मारा जा सकता है. उदयपुर की घटना के बारे में आतंकियों ने जो कुछ किया, शायद ही बताने की जरूरत बची हो. अमरावती की घटना में बताने को बहुत कुछ है. पड़ोसी दोनों जगह हैं और दोनों ही जगह विश्वास की हत्या हुई है. हालांकि अमरावती में 'इस्लाम' के नाम पर दोस्त की हत्या करवाने वाला मास्टरमाइंड में इतना साहस है कि वह अगले दिन अंतिम संस्कार में भी शामिल होता है. अमरावती की कहानी में कई सबक हैं.

उमेश कोल्हे पेशे से केमिस्ट थे और एक दुकान चलाते थे. उनकी हत्या 21 जून को हुई. वह भी तब जब वे रात में केमिस्ट की दुकान बंदकर बाइक से घर लौट रहे थे. उनके पीछे दूसरी बाइक से बेटा और पत्नी भी आ रहे थे. हालांकि उमेश जैसे ही आगे बढ़े- रास्ते में पहले से ही बाइक सवार आतंकी ताक में थे. शिकार देखते ही रोका और बिना सवाल जवाब के गला रेत दिया. खून से लथपथ केमिस्ट जमीन पर गिरकर तड़पने लगा. जब तक पीछे से आ रहा बेटा पहुंचता, कोल्हे के शरीर से बहुत सारा खून बह चुका था. कोल्हे को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उनकी जान नहीं बच पाई.

उदयपुर से अमरावती तक इस्लामिक आतंकियों ने जिस तरह देश को सीरिया बनाने की दिशा में झोकने का काम किया, वह कितना गंभीर है इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. दोनों घटनाओं को जानने समझने के बाद कुछ बचता नहीं बात करने के लिए बावजूद कोई सबक लेने के लिए पाखंडियों की भीड़ राहत और बचाव कार्य में जुटी हुई है. भले ही सम्मानित सुप्रीम कोर्ट के माननीय जज दोनों मामलों की वजह नुपुर शर्मा को बता दें, लेकिन आतंकी साजिश की खुल रही परतें अलग तरह के सड़ांध की मुनादी के लिए काफी हैं. पड़ोसी और दोस्त ही जान का दुश्मन बन जाए तो गैर मजहबी इंसानी रिश्तों में भरोसे लायक बचता क्या है. गलती भी महज किसी का समर्थन और विरोध करना भर है.

देश के अंदर एक छोटे तबके में 'सांगठनिक धार्मिक विद्वेष' भयावह स्तर तक पहुंच चुका है. इतना कि सबसे करीबी दोस्त और मुश्किल में मददगार को मारा जा सकता है. उदयपुर की घटना के बारे में आतंकियों ने जो कुछ किया, शायद ही बताने की जरूरत बची हो. अमरावती की घटना में बताने को बहुत कुछ है. पड़ोसी दोनों जगह हैं और दोनों ही जगह विश्वास की हत्या हुई है. हालांकि अमरावती में 'इस्लाम' के नाम पर दोस्त की हत्या करवाने वाला मास्टरमाइंड में इतना साहस है कि वह अगले दिन अंतिम संस्कार में भी शामिल होता है. अमरावती की कहानी में कई सबक हैं.

उमेश कोल्हे पेशे से केमिस्ट थे और एक दुकान चलाते थे. उनकी हत्या 21 जून को हुई. वह भी तब जब वे रात में केमिस्ट की दुकान बंदकर बाइक से घर लौट रहे थे. उनके पीछे दूसरी बाइक से बेटा और पत्नी भी आ रहे थे. हालांकि उमेश जैसे ही आगे बढ़े- रास्ते में पहले से ही बाइक सवार आतंकी ताक में थे. शिकार देखते ही रोका और बिना सवाल जवाब के गला रेत दिया. खून से लथपथ केमिस्ट जमीन पर गिरकर तड़पने लगा. जब तक पीछे से आ रहा बेटा पहुंचता, कोल्हे के शरीर से बहुत सारा खून बह चुका था. कोल्हे को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उनकी जान नहीं बच पाई.

उमेश कोल्हे और उसका पुराना दोस्त युसूफ, जो अब उसका हत्‍यारा है.

युसूफ उस दोस्त की भी जान ले सकता है जिसने मुश्किल वक्त में भी साथ नहीं छोड़ा

घटना के इतने दिन बीत जाने के बावजूद कोल्हे परिवार अभी तक यह समझ नहीं पा रहा कि क्या हत्या की वजह यह भी हो सकती है? जांच में जब नुपुर शर्मा का एंगल आया- और पता चला कि नुपुर शर्मा को समर्थन करने वाले एक मैसेज की वजह से कोल्हे की जान गई, समूचा राज्य हैरान-परेशान और डर के साए में खड़ा है. लोग इस बात पर और ज्यादा हैरान हैं कि कोल्हे के मामले में भी उकसाने वाला पहला दोषी उनका सबसे करीबी और पारिवारिक दोस्त डॉक्टर युसूफ है. कोल्हे दोस्त भी ऐसे वैसे नहीं हैं. युसूफ को जब भी जरूरत पड़ती है- कोल्हे हर तरह से उपलब्ध होते हैं.

कोल्हे के भाई ने इंडिया टुडे को बताया कि युसूफ की बहन की शादी से लेकर बच्चों के एडमिशन तक में उमेश ने बढ़-चढ़कर मदद की. हमेशा मदद के लिए तैयार रहे. जब लोग भाई बहनों की मदद नहीं करते उमेश ने रुपयों से भी मदद की. उन्होंने यह भी बताया कि जिस ग्रुप "ब्लैक फ्राइडे" में नुपुर शर्मा के कथित मैसेज को समर्थन देने का सामने आया है- असल में उमेश और युसूफ दोनों उसके एडमिन थे. युसूफ को नुपुर के लिए दोस्त का समर्थन करना पसंद नहीं आया.

अमरावती और उदयपुर की घटना में सिर्फ एक चीज का फर्क

युसूफ को इतना बुरा लगा कि उसने मैसेज को "रहबरिया" नाम के एक और ग्रुप में आगे बढ़ा दिया. जिसके बाद मुख्य आरोपी इरफान खान ने उमेश खान की हत्या के लिए कुछ और लोगों को हायर किया. आतंकियों ने सिर तन से जुदा करने की पूरी योजना बनाई. योजना के मुताबिक़ हत्यारों को दस-दस हजार रुपये देना और भागने के लिए कार देने की बातेंन तय हुई थीं. 21 जून को सबकुछ योजना के मुताबिक़ ही हुआ. मामले में अब तक कुल छह लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इसमें से ज्यादातर 25 साल की उम्र से नीचे के हैं. और दुर्भाग्य से सभी मुसलमान. बस वीडियो साझा नहीं किया. शायद इसलिए कि युसूफ ने तय किया था कि वह अंतिम संस्कार में शामिल होने के बाद 'दोस्त' की ही भूमिका में रहेगा आतंकी बनकर नहीं. अमरावती और उदयपुर की घटना में बस इतना भर फर्क है. लोकल मीडिया में कहा यह भी जा रहा है कि उमेश कोल्हे केस में आतंकियों का नेक्सस और भी ज्यादा बड़ा हो सकता है. इनका कनेक्शन दूसरे शहरों-जिलों में भी हो सकता है.

युसूफ ने एक मिनट के लिए भी अपने दोस्त के किए एहसानों को याद नहीं किया. बेदर्दी से मारे गए कोल्हे के अंतिम संस्कार में उसके पहुंचने से पेशेवर पैशाचिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मामला उदयपुर की तरह ही साफ़-साफ़ रेडिकलाइजेशन का है. मगर युसूफ या उस जैसे आतंकियों के लिए हमारे देश में वकीलों और मददगारों की कोई कमी नहीं. लोगों का वश चले तो हिंदुओं के अंधविरोध के बहाने आतंकियों को भारत रत्न तक बांट दें. कोल्हे केस के लिए अच्छा यही है कि इस वक्त महाराष्ट्र में पालघर जैसी घटनाओं पर खामोश रहने वाली उद्धव ठाकरे का एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन, सरकार में नहीं है.

फ्रांस नहीं है भारत, उमेशों को चाहिए कि खामोशी से आने वाली आतंकी मौतें चुनें

लेकिन भाजपा से भी क्या ही उम्मीद की जाए. जब समूचे देश में बार-बार सांगठनिक आतंकी घटनाओं के संकेत मिल रहे हैं बावजूद मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. याद करिए फ्रांस या दूसरे देशों को. जब वहां इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आईं रातोंरात उन्हें रोकने के कठोरतम इंतजाम किए गए. पक्ष विपक्ष लगभग सभी दलों के नेताओं ने एकजुट होकर ना सिर्फ फ्रांस के अल्पसंख्यकों को स्पष्ट संदेश दिया बल्कि दुनियाभर में उनके रहनुमाओं को भी हद में ही रहने की चेतावनी दे दी. फ्रांस के लेफ्ट-राइट-सेंटर हर तरह के नेता देश की संप्रभुता और बेक़सूर नागरिकों की सुरक्षा के लिए एक आवाज में बोल रहे थे.

अब यह सवाल मत करिए कि देश में राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने सबक लेते हुए क्या किया और हिंदुओं के सुरक्षा का जिम्मा लेने वाली मोदी सरकार ने क्या किया? किसी ने कोई सबक नहीं लिया.

हमारे यहां उलटा है. दोनों घटनाओं में जिस तरह आतंकियों के बचाव में दलीलें गढ़ी जा रही हैं, उसमें 'उमेशों' का मारा जाना ही तय दिख रहा है. क्योंकि अगर उसे बचपन का कोई दोस्‍त युसूफ नहीं मारेगा तो कोई अंजान मोहम्मद रियाज या गौस मोहम्मद भी निबटाने में संकोच नहीं दिखाएगा. वह वीडियो भी साझा करेगा. सुप्रीम कोर्ट का कोई लिबरल जज ऐसी हत्याओं का 'जायज कारण' भी समझा देगा और आखिर में मान लीजिए कि दो-चार-दस साल में आतंकियों को कोर्ट से सजा मिल भी गई तो कोई मौलाना मदनी सुप्रीम कोर्ट में उसकी जान बचाने की पैरवी में खड़ा हो जाएगा. और इस तरह 56 इंची छाती वाले घोर फासिस्ट करार दिए गए प्रधानमंत्री के रहते कोई मौलाना देवबंद में धमाकता मिलेगा- हम तो ऐसे ही रहेंगे, तुमको दिक्कत है तो कहीं और चले जाओ.

उमेशों और कन्हैयालालों को खामोशी से आने वाली आतंकी मौतों को चुन लेना चाहिए. क्योंकि देश की कोई भी पार्टी वोट पाने की मजबूरी में उमेशों और कन्हैयालालों को बचाने के लिए तो नहीं आने वाली है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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