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अमरनाथ यात्रियों पर हमले से बुरहान वानी ब्रिगेड की मुहिम ध्‍वस्‍त !

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 12 जुलाई, 2017 03:28 PM
  • 12 जुलाई, 2017 03:28 PM
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अलगाववादी नेताओं की मंशा थी कि बुरहान वानी मामले को अंतर्राष्‍ट्रीय बनाया जाए, लेकिन अमरनाथ यात्रा पर हुए आतंकी हमले ने उनकी कोशिशों को बेनकाब कर दिया है.

क्या अलगाववादी नेताओं का दांव उल्टा पड़ रहा है? क्या उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आने लगी है? अगर अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले के बाद उनके बयान देखें तो इन सवालों के जवाब 'हां' में मिलते हैं.

हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी की मौत की बरसी पर ये अलगाववादी नेता जोर शोर से विरोध प्रदर्शन करना चाहते थे, लेकिन उन्हें अमरनाथ यात्रा पर हमले की निंदा करने को मजबूर होना पड़ा है.

अलगाववादियों को क्या ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि हमले के साये में कश्मीरियत पर बहस छिड़ गयी और आम कश्मीरी इसके विरोध में खड़े हो गये?

अगर इतना कुछ हो रहा है तो कश्मीर में गवर्नर रूल जैसे बेतूके मांग क्यों उठ रही हैं? कहीं महबूबा सरकार को हटाने के लिए माहौल तो नहीं तैयार किया जा रहा है?

फीकी पड़ रही दुकान

अमरनाथ यात्रियों पर हमले और उनमें से सात की मौत के सिलसिल में सुरक्षा बलों को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मोहम्मद अबू इस्माइल की तलाश है. 26 साल का पाकिस्तानी नागरिक इस्माइल दो साल से दक्षिण कश्मीर में सक्रिय है और उसे ही इस हमले का मास्टरमाइंड माना जा रहा है. ताज्जुब की बात ये है कि लश्कर-ए-तैयबा की ओर से इस हमले की जिम्मेदारी नहीं ली गयी.

टाइम्स ऑफ इंडिया में एक इंटेलिजेंस ऑफिसर के हवाले से छपी रिपोर्ट के मुताबिक हाफिज सईद और लश्कर के आतंकी नेटवर्क पर कार्रवाई के लिए पाकिस्तान पर दबाव की आशंका हो सकती है. हाफिज 30 जनवरी से नजरबंद है और इसे 30 जुलाई तक बढ़ाना पड़ा है.

चौतरफा विरोध का असर...

दरअसल, सुरक्षा बलों पर अटैक की बात और है लेकिन ये निहत्थे लोगों पर हमला हुआ है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी तीखी निंदा हो सकती है. अभी ब्रिटेन के बर्मिंघम में बुरहान वानी के पक्ष में कश्मीरियों को एक रैली की अनुमति...

क्या अलगाववादी नेताओं का दांव उल्टा पड़ रहा है? क्या उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आने लगी है? अगर अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले के बाद उनके बयान देखें तो इन सवालों के जवाब 'हां' में मिलते हैं.

हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी की मौत की बरसी पर ये अलगाववादी नेता जोर शोर से विरोध प्रदर्शन करना चाहते थे, लेकिन उन्हें अमरनाथ यात्रा पर हमले की निंदा करने को मजबूर होना पड़ा है.

अलगाववादियों को क्या ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि हमले के साये में कश्मीरियत पर बहस छिड़ गयी और आम कश्मीरी इसके विरोध में खड़े हो गये?

अगर इतना कुछ हो रहा है तो कश्मीर में गवर्नर रूल जैसे बेतूके मांग क्यों उठ रही हैं? कहीं महबूबा सरकार को हटाने के लिए माहौल तो नहीं तैयार किया जा रहा है?

फीकी पड़ रही दुकान

अमरनाथ यात्रियों पर हमले और उनमें से सात की मौत के सिलसिल में सुरक्षा बलों को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मोहम्मद अबू इस्माइल की तलाश है. 26 साल का पाकिस्तानी नागरिक इस्माइल दो साल से दक्षिण कश्मीर में सक्रिय है और उसे ही इस हमले का मास्टरमाइंड माना जा रहा है. ताज्जुब की बात ये है कि लश्कर-ए-तैयबा की ओर से इस हमले की जिम्मेदारी नहीं ली गयी.

टाइम्स ऑफ इंडिया में एक इंटेलिजेंस ऑफिसर के हवाले से छपी रिपोर्ट के मुताबिक हाफिज सईद और लश्कर के आतंकी नेटवर्क पर कार्रवाई के लिए पाकिस्तान पर दबाव की आशंका हो सकती है. हाफिज 30 जनवरी से नजरबंद है और इसे 30 जुलाई तक बढ़ाना पड़ा है.

चौतरफा विरोध का असर...

दरअसल, सुरक्षा बलों पर अटैक की बात और है लेकिन ये निहत्थे लोगों पर हमला हुआ है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी तीखी निंदा हो सकती है. अभी ब्रिटेन के बर्मिंघम में बुरहान वानी के पक्ष में कश्मीरियों को एक रैली की अनुमति प्रशासन ने दे दी थी, लेकिन भारतीय उच्चायोग के विरोध के बाद उसे रद्द कर दिया गया.

सुरक्षा एजेंसियों को लश्कर के जिम्मेदारी न लेने के पीछे एक और बात का शक हो रहा है. असल में अमरनाथ यात्री लोकल लोगों के लिए बरसों से आमदनी का बड़ा जरिया रहे हैं ऐसे में उनका गुस्सा और भड़क सकता है. वैसे भी स्थानीय लोगों को आतंकवादियों की ये करतूत बहुत बुरी लगी है और मीडिया से बातचीत में उन्होंने इसका इजहार भी किया है.

स्थानीय लोग भी हमले के खिलाफ हुए...

अलगाववादियों के भी नरम पड़ने की एक बड़ी वजह भी यही हो सकती है. हुर्रियत नेता चाहते थे कि बुरहान की मौत का मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर भारत के पक्ष में बन रहे माहौल को चुनौती दी जाये, लेकिन उनकी अपील तकरीबन बेअसर साबित हुई. अगर, पीओके में हुए प्रदर्शनों को नजरअंदाज कर दिया जाये तो.

इसी मसले पर एक रिपोर्ट में बीबीसी ने राजनीतिक विश्लेषक पीजी रसूल की राय ली है. रसूल कहते हैं, "कश्मीर के हवाले से अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर जो हालात हैं, वो पहले से भी खराब हैं. पाकिस्तान तो अपने मसलों में उलझा हुआ है और उसकी अंतरराष्ट्रीय साख पहले से भी नीचे गिर चुकी है."

कश्मीरियत पर बहस

अमरनाथ यात्रियों पर हमले ने कश्मीरियत को लेकर बहस को काफी आगे बढ़ा दिया है. एक ट्रेवेल ब्लॉगर शुचि सिंह कालरा ने अपने ट्वीट में कश्मीरियत पर सवाल उठाया और गृह मंत्री राजनाथ सिंह को सलाह दी, "लोगों को सांत्वना देना आपका काम नहीं है. आप उन कायरों को ढूंढें और उनका सफाया करें." ट्विटर पर ही राजनाथ सिंह ने जवाब दिया. और अब कालरा का ट्वीटर अकाउंट ही नदारद है.

राजनाथ सिंह ने कहा, "मिस कालरा, निश्चित रूप से मुझे इसकी परवाह है. देश के हर हिस्से में शांति और सौहार्द्र सुनिश्चित करना मेरा काम है. हर कश्मीरी आतंकवादी नहीं है."

हिफाजत तो हर हाल में जरूरी है...

राजनाथ के इस जवाब की खूब तारीफ हुई. जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तो सलामी ही ठोक डाली, "शाबाश राजनाथ जी. आपका सम्मान करता हूं और आपका आभार. मैं आपको सलाम करता हूं. ऐसे राजनैतिक नेतृत्व के लिए आपका शुक्रिया."

उमर अब्दुल्ला ही नहीं गुजरात को लेकर मोदी सरकार और बीजेपी पर हरदम हमलावर रहने वाली पत्रकार राणा अय्यूब पर राजनाथ के बयान का कितना असर हुआ उनका ट्वीट ही बताता है, "राजनाथ सिंह आज के दिन मेरे हीरो हैं. हमारे दौर की राजनीति में ऐसी बातें बड़ी दुर्लभ हैं."

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के बयान में भी कश्मीरियत का ही जिक्र है, "यह सिर्फ अतिथियों पर ही हमला नहीं है, बल्कि कश्मीर व कश्मीरियत पर भी हमला है."

हमले के बाद जम्मू-कश्मीर की गठबंधन वाली महबूबा सरकार विपक्ष के साथ साथ बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी के भी निशाने पर है.

गवर्नर रूल या लोकतांत्रिक सरकार?

सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने सूबे की सत्ता में हिस्सेदार बीजेपी से जवाब मांगा है तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सीधे मोदी सरकार को टारगेट किया है. बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने बिलकुल अलग लाइन ली है और लगे हाथ ट्विटर पर अपनी मांगों की फेहरिस्त ही दे डाली है. स्वामी का ट्वीट बड़ा ही दिलचस्प है, "अब क्या? 1. जम्मू-कश्मीर सरकार बर्खास्त करो और राज्यपाल हटाओ. 2. राज्य में AFSPA लगाओ. 3. धारा 370 हटाओ. 4. 10 लाख पूर्व सैनिकों को एयरलिफ्ट कर कश्मीर पहुंचाओ."

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोरक्षा के नाम पर उत्पात मचाने वालों का डोजियर तैयार करने की बात करते हैं, लेकिन शिवसेना चीफ उद्धव ठाकरे ने उन्हें सबसे अच्छी सलाह दी है. उद्धव का कहना कहना है कि गोरक्षक आतंकवादियों से लड़ें. आइडिया कहीं से भी बुरा नहीं है. कहां किसी निहत्थे इंसान को बीच सड़क पर घसीट कर पीट पीट कर मार डालना और कहां आतंकवादियों से मुकाबला! अगर गोरक्षक वाकई उद्धव की सलाह मान लेते हैं तो गायों को भी काफी सुकून मिलेगा. आखिर उनके नाम पर हो रही राजनीति का देश को कुछ तो फायदा हो.

कश्मीर समस्या से निजात पाने में सबसे अहम कड़ी है अलगाववादियों और उनके जरिये आतंकवादियों को स्थानीय लोगों का सपोर्ट मिलना. क्या आतंकी सुरक्षा बलों की पकड़ से बाहर रह पाते अगर उन्हें लोगों की सहानुभूति नहीं मिलती. हाल के दिनों में स्टिंग ऑपरेशनों में अलगाववादी नेताओं का पर्दाफाश हुआ है. लोगों को भी धीरे धीरे समझ आ रहा है कि किस तरह वे पाकिस्तान से पैसे लेकर अपने लाडलों को तो बाहर के स्कूलों में पढ़ाते हैं और उनके बच्चों के हाथों में पत्थर थमा देते हैं.

इसी क्रम में दैनिक भास्कर का संपादकीय भी गौर करने लायक है - "अगर मोदी ने इसे कश्मीरियत पर हमला बताया है तो निंदा की लगभग वही भाषा मीरवाइज फारूक, सैयदअली शाह गिलानी, यासिन मलिक भी बोल रहे हैं. मीरवाइज का कहना कि तीर्थयात्री हमेशा हमारे मेहमान रहे हैं और रहेंगे तो महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि आज हर कश्मीरी का सिर शर्म से झुक गया है, प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाने जैसा है." कश्मीर की सियासत को थोड़ी देर के लिए अलग रख कर देखें तो अलगाववादियों नेताओं के खिलाफ महबूबा ने हाल के दिनों में कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है और इसकी वजह गठबंधन में बीजेपी का होना भी एक खास बात है.

अलगाववादियो के खिलाफ कड़ा रुख...

क्या स्वामी को लगता है कि गवर्नर रूल इससे ज्यादा असरदार होगा? वैसे भी माना जा रहा है कि महबूबा को तीन महीने की मोहलत मिली हुई है और उसके भी आखिरी दौर चल रहे हैं. सत्ता में होने के चलते ही महबूबा के स्टैंड में बदलाव महसूस किया गया है. जो नेता कभी आतंकवादियों से सहानुभूति रखनेवालों को कंधा देता रहा हो वो अलगाववादियों को चैलेंज करने लगे - क्या स्वामी को इसमें कोई भी सकारात्मक बात नहीं दिखती? ये समझना होगा कि गवर्नर रूल एक अस्थाई उपाय है, हर हाल में महबूबा सरकार में ही कश्मीरियत को बचाने के तरीके ढूंढने होंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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