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दलित दिवाली और बाबा साहेब वाहिनी से नहीं सध पाएंगे उत्तर प्रदेश में वोट

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 14 अप्रिल, 2021 11:47 PM
  • 14 अप्रिल, 2021 04:10 PM
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अखिलेश यादव अकेले दम पर दलित वोटों को सहेजने की मेहनत जरूर कर रहे हैं, लेकिन यह उत्तर प्रदेश की तमाम छोटी पार्टियों और संगठनों को साधे बगैर पूरा होता नहीं दिख रहा है. 2019 में सपा के साथ गठबंधन में रही निषाद पार्टी भाजपा के खेमे में शामिल हो चुकी है.

संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 14 अप्रैल को जन्म जयंती है. पूरे देश में इसे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी जयंती मनाई जाएगी, लेकिन इसमें समाजवादी पार्टी ने राजनीति का तड़का लगा दिया है. 2022 में यानी अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और राजनीतिक दलों ने अपने समीकरण साधने शुरू कर दिए हैं. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कुछ समय पहले आंबेडकर जयंती पर समाजवादियों से 'दलित दिवाली' मनाने की अपील कर चुके हैं. अखिलेश यादव ने आंबेडकर जयंती पर ही 'बाबा साहेब वाहिनी' का गठन करने की भी घोषणा कर दी है. उत्तर प्रदेश के 22 फीसदी दलित मतदाताओं को साधने के लिए अखिलेश का ये दांव भाजपा को पटखनी दे सकता है. लेकिन, उत्तर प्रदेश में सत्ता के सिंहासन पर दोबारा काबिज होने का सपना देख रहे सपा मुखिया की राह में रोड़े बहुत हैं.

एक समय में बसपा सुप्रीमो मायावती का कोर वोटबैंक कहा जाने वाला दलित समाज दो हिस्सों में बंटा हुआ है. पहला हिस्सा जाटव मतदाताओं का है, जो आज भी मायावती का कोर वोटबैंक हैं. जाटव मतदाताओं की आबादी करीब 12 फीसदी है. मायावती को जाटव मतदाताओं की वजह से ही 'बसपा सुप्रीमो' का खिताब मिला हुआ है. बसपा के इस कोर वोटबैंक में सेंध लगाना राज्य के किसी भी विपक्षी दल के बस की बात नहीं है. हालांकि, भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद की नजर भी मायावती के इस वोटबैंक पर है, लेकिन वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित हैं. दूसरा हिस्सा है गैर-जाटव मतदाताओं का. करीब 10 फीसदी की आबादी वाला यह वोटबैंक भी लंबे समय तक बसपा के साथ जुड़ा रहा, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में इसने भाजपा की ओर रुख कर लिया. 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यह भाजपा के साथ ही रहा.

संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 14 अप्रैल को जन्म जयंती है. पूरे देश में इसे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी जयंती मनाई जाएगी, लेकिन इसमें समाजवादी पार्टी ने राजनीति का तड़का लगा दिया है. 2022 में यानी अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और राजनीतिक दलों ने अपने समीकरण साधने शुरू कर दिए हैं. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कुछ समय पहले आंबेडकर जयंती पर समाजवादियों से 'दलित दिवाली' मनाने की अपील कर चुके हैं. अखिलेश यादव ने आंबेडकर जयंती पर ही 'बाबा साहेब वाहिनी' का गठन करने की भी घोषणा कर दी है. उत्तर प्रदेश के 22 फीसदी दलित मतदाताओं को साधने के लिए अखिलेश का ये दांव भाजपा को पटखनी दे सकता है. लेकिन, उत्तर प्रदेश में सत्ता के सिंहासन पर दोबारा काबिज होने का सपना देख रहे सपा मुखिया की राह में रोड़े बहुत हैं.

एक समय में बसपा सुप्रीमो मायावती का कोर वोटबैंक कहा जाने वाला दलित समाज दो हिस्सों में बंटा हुआ है. पहला हिस्सा जाटव मतदाताओं का है, जो आज भी मायावती का कोर वोटबैंक हैं. जाटव मतदाताओं की आबादी करीब 12 फीसदी है. मायावती को जाटव मतदाताओं की वजह से ही 'बसपा सुप्रीमो' का खिताब मिला हुआ है. बसपा के इस कोर वोटबैंक में सेंध लगाना राज्य के किसी भी विपक्षी दल के बस की बात नहीं है. हालांकि, भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद की नजर भी मायावती के इस वोटबैंक पर है, लेकिन वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित हैं. दूसरा हिस्सा है गैर-जाटव मतदाताओं का. करीब 10 फीसदी की आबादी वाला यह वोटबैंक भी लंबे समय तक बसपा के साथ जुड़ा रहा, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में इसने भाजपा की ओर रुख कर लिया. 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यह भाजपा के साथ ही रहा.

2022 विधानसभा चुनाव से पहले इस 10 फीसदी वोटबैंक के लिए अखिलेश यादव का आंबेडकर प्रेम जागा है.

2022 विधानसभा चुनाव से पहले इस 10 फीसदी वोटबैंक के लिए अखिलेश यादव का आंबेडकर प्रेम जागा है. यह वोटबैंक अगर सपा के साथ आ जाता है, तो वह सत्ता की कुर्सी तक पहुंच सकती है. लेकिन, ऐसा होना आसान नहीं है. उत्तर प्रदेश में राजनीति के 'रथ' के मात्र दो ही पहिये हैं धर्म और जाति. इन दो पहियों को जिसने साध लिया, वह सियासी कुरुक्षेत्र में 'अर्जुन' बन जाता है. विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा के पास राम मंदिर निर्माण का 'ब्रह्मास्त्र' है और इसकी काट फिलहाल किसी विपक्षी दल के पास नहीं है. उत्तर प्रदेश में राम मंदिर निर्माण इकलौता ऐसा मुद्दा है, जो धर्म के साथ जाति के समीकरण को भी आसानी से भाजपा की ओर मोड़ सकता है. राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को किसी भी हाल में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

अखिलेश यादव अकेले दम पर दलित वोटों को सहेजने की मेहनत जरूर कर रहे हैं, लेकिन यह उत्तर प्रदेश की तमाम छोटी पार्टियों और संगठनों को साधे बगैर पूरा होता नहीं दिख रहा है. 2019 में सपा के साथ गठबंधन में रही निषाद पार्टी भाजपा के खेमे में शामिल हो चुकी है. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर उनके जन्मदिन पर उन्हें शुभकामनाएं कम और नसीहत ज्यादा देते नजर आते हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव की नाराजगी भी सपा मुखिया को 'चोट' दे ही जाएगी. अन्य छोटे दलों पर भाजपा ने पकड़ बना रखी है. भाजपा ने अपने एजेंडे के तहत सपा मुखिया को हिंदुत्व के फेर में फंसा लिया है. जिसकी वजह से उनका मुस्लिम वोटबैंक छिटक सकता है. बीते साल ही समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटबैंक को साधने के लिए भगवान परशुराम की मूर्तियां लगवाने का दांव खेला था.

समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में गठबंधन के तकरीबन सभी सियासी प्रयोग अपना चुकी है. 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने मायावती के साथ गठबंधन में दलित-ओबीसी गठजोड़ कर जिस जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की थी, वह बुरी तरह विफल रहा था. हालांकि, इस गठबंधन से मायावती को फायदा मिला था. 2014 में शून्य का आंकड़ा पाने वाली बसपा ने 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया था, लेकिन सत्ता से बाहर हो गए. एक अंतिम सियासी समीकरण सपा-बसपा-कांग्रेस का एक साथ आना बचा हुआ है और वो शायद कभी हो भी न पाएगा. कुल मिलाकर 'दलित दिवाली' या 'बाबा साहेब वाहिनी' से समाजवादी पार्टी की सत्ता में वापसी मुश्किल है. वैसे, अखिलेश यादव की राजनीतिक आकांक्षा को यूपी के मतदाता भी समझते ही होंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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