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अखिलेश-प्रियंका की उन्नाव 'स्ट्रैटेजी' बीजेपी के लिए स्वामी प्रसाद से ज्यादा खतरनाक

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 15 जनवरी, 2022 05:09 PM
  • 15 जनवरी, 2022 05:09 PM
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अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) का दावा है कि योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) उनकी स्टैटेजी में फंस गये, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) को समर्थन उन्नाव सीट तक ही है या आगे भी - क्या ये परदे के पीछे विपक्षी एकजुटता का कोई संकेत है?

मानना पड़ेगा अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को झकझोर कर रख दिया है. वैसे ही तोड़फोड़ मचायी है, जैसे बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में - और यही वजह है कि अखिलेश यादव के फैसले को लेकर भी बीजेपी को बंगाल में मिले सबक जैसी आशंका भी पहले से जतायी जाने लगी है.

हो सकता है स्वामी प्रसाद मौर्य को लाल पगड़ी पहनाने को वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेड अलर्ट का जवाब देने जैसा समझ रहे हों. हो सकता है अखिलेश यादव को भी वैसा ही महसूस हो रहा हो जैसा शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी ज्वाइन कराने पर अमित शाह को लगा होगा - लेकिन उसके आगे क्या हुआ ये भी नहीं भूलना चाहिये.

स्वामी प्रसाद मौर्य पीछे छूट चुके सियासी साथ के मिट्टी में मिल जाने जैसी मिसाल देकर अखिलेश यादव को जोश से भर दे रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य की बातों से उत्साहित अखिलेश यादव योगी आदित्यनाथ को टारगेट करते हुए कहने लगे हैं, 'इस बार हमारे नेताओं की स्ट्रेटेजी भी समझ नहीं पाये.'

बीजेपी निश्चित तौर पर हद से ज्यादा परेशान है. लेकिन लगता नहीं कि स्वामी प्रसाद मौर्य वाली अखिलेश यादव की स्ट्रैटेजी योगी आदित्यनाथ के लिए उतना खतरनाक है, जितना उन्नाव में प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) की तरफ से पेश कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन - योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के लिए आगे भी उन्नाव मॉडल जैसे प्रयोग कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकते हैं.

ये कौन सी स्ट्रैटेजी है

स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती और योगी आदित्यनाथ के बाद अखिलेश यादव को...

मानना पड़ेगा अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को झकझोर कर रख दिया है. वैसे ही तोड़फोड़ मचायी है, जैसे बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में - और यही वजह है कि अखिलेश यादव के फैसले को लेकर भी बीजेपी को बंगाल में मिले सबक जैसी आशंका भी पहले से जतायी जाने लगी है.

हो सकता है स्वामी प्रसाद मौर्य को लाल पगड़ी पहनाने को वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेड अलर्ट का जवाब देने जैसा समझ रहे हों. हो सकता है अखिलेश यादव को भी वैसा ही महसूस हो रहा हो जैसा शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी ज्वाइन कराने पर अमित शाह को लगा होगा - लेकिन उसके आगे क्या हुआ ये भी नहीं भूलना चाहिये.

स्वामी प्रसाद मौर्य पीछे छूट चुके सियासी साथ के मिट्टी में मिल जाने जैसी मिसाल देकर अखिलेश यादव को जोश से भर दे रहे हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य की बातों से उत्साहित अखिलेश यादव योगी आदित्यनाथ को टारगेट करते हुए कहने लगे हैं, 'इस बार हमारे नेताओं की स्ट्रेटेजी भी समझ नहीं पाये.'

बीजेपी निश्चित तौर पर हद से ज्यादा परेशान है. लेकिन लगता नहीं कि स्वामी प्रसाद मौर्य वाली अखिलेश यादव की स्ट्रैटेजी योगी आदित्यनाथ के लिए उतना खतरनाक है, जितना उन्नाव में प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) की तरफ से पेश कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन - योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के लिए आगे भी उन्नाव मॉडल जैसे प्रयोग कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकते हैं.

ये कौन सी स्ट्रैटेजी है

स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती और योगी आदित्यनाथ के बाद अखिलेश यादव को आधिकारिक तौर पर नेता मान लिया है. कुछ ही दिन पहले शिवपाल सिंह यादव ने भी कहा था कि वो अखिलेश यादव को नया नेताजी मान चुके हैं.

अगर अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी मिल कर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ किसी बड़ी स्ट्रैटेजी पर काम कर रहे हैं तो स्वामी प्रसाद का मामला बहुत छोटा है

स्वामी प्रसाद मौर्य का कहना है कि अखिलेश यादव नौजवान हैं, पढ़े लिखे हैं और नयी ऊर्जा है, इसीलिए वो हाथ मिला रहे हैं. ये बताना नहीं भूले कि भले ही वो पार्टी नहीं बना रहे हों, लेकिन वो खुद भी किसी पार्टी से कम हैसियत नहीं रखते.

और बीजेपी को जो सबसे बड़ा मैसेज दिया है, वो है - 'जिसका साथ छोड़ता हूं उसका अता पता नहीं रहता है, बहन जी इस बात का उदाहरण हैं!'

मौर्य से ज्यादा उम्मीद पालना ठीक नहीं: अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य दावा कर रहे हैं कि वो बीजेपी को उसकी पुरानी स्थिति में पहुंचा देंगे - 2012 में बीजेपी के पास 47 विधायक हुआ करते थे. ये तब की बात है जब बीएसपी के पास भी 80 विधायक ही जीत कर आये थे - और स्वामी प्रसाद मौर्य विधानसभा में बीएसपी की तरफ से उनके नेता हुआ करते थे.

बेशक स्वामी प्रसाद मौर्य के बीजेपी ज्वाइन करने के बाद बीएसपी को 2017 में 19 सीटें ही मिल पायी थीं - और 325 सीटें जीत कर बीजेपी ने यूपी में बड़े दिनों बाद सरकार बनायी थी. स्वामी प्रसाद मौर्य को ये भी याद होगा ही कि जिस समाजवादी पार्टी का वो हिस्सा बने हैं वो भी 2017 में 50 सीटों तक नहीं पहुंच पायी थी.

अखिलेश यादव भले ही स्वामी प्रसाद मौर्य को बीजेपी के खिलाफ बड़े फायदे की नजर से देख रहे हों, लेकिन फील्ड में भी वैसा ही असर दिखे जरूरी तो नहीं. स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर अखिलेश यादव से पहले ही हाथ मिला चुके महान दल के नेता केशव देव मौर्य कहते हैं, 'जब चुनाव आते हैं... ऐसे लोग एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाते हैं... जब वो बीएसपी और बीजेपी में थे, तो हमारे समाज के लिए आवाज नहीं उठाई... अब वो समाजवादी पार्टी में... हम उनका स्‍वागत करते हैं, लेकिन चाहते हैं कि हमारे लोगों के लिए आवाज उठायें.'

आगे से स्वामी प्रसाद मौर्य अलग ही चुनौती बनने वाले हैं. सबसे बड़ा चैलेंज उनके लोगों को टिकट देना भी होगा. ऐसे में जबकि समाजवादी पार्टी के पास पहले से ही 403 से ज्यादा उम्मीदवार कतार में हों, कई दलों के साथ गठबंधन हो रखा हो, अखिलेश यादव के लिए टिकटों का बंटवारा मुश्किलों भरा होने वाला है.

अगर अखिलेश यादव बीजेपी से स्वामी प्रसाद मौर्य को झटक लेने के बाद हद से ज्यादा उम्मीद पाल रहे हैं तो निराश भी होना पड़ सकता है. अखिलेश यादव के लिए मौर्य का जो सबसे बड़ा फायदा मिल सकता था, मिल चुका है. वो अपने वोटर को मैसेज देने में सफल हो गये हैं - और बस यही अखिलेश यादव के स्ट्रैटेजी की जीत भी है.

विपक्ष का उन्नाव मॉडल: जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच गठबंधन के कयास लगाये जा रहे थे, अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा की एक हवाई मुलाकात भी काफी चर्चित रही - लगता है उस मुलाकात के रुझान भी अब आने लगे हैं.

अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी उन्नाव विधानसभा सीट पर अपने उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी. प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन्नाव सदर सीट से आशा सिंह को कांग्रेस का टिकट दिया है. आशा सिंह 2017 के उन्नाव गैंगरेप पीड़ित की मां हैं और प्रियंका गांधी वाड्रा का कहना है कि उनको टिकट इसलिए दिया गया है ताकि वो अपनी लड़ाई लड़ सकें.

उन्नाव गैंग रेप में बीजेपी विधायक रहा कुलदीप सेंगर जेल में उम्र कैद की सजा काट रहा है. 2017 में कुलदीप सेंगर को बीजेपी ने बांगरमऊ सीट से टिकट दिया था और जीत भी मिली थी. कुलदीप को सजा मिल जाने के बाद से उन्नाव की घटना को लेकर बीजेपी बचाव की मुद्रा में होती है, सिवा उसके सांसद साक्षी महाराज के. साक्षी महाराज तो डंके की चोट पर कुलदीप सेंगर से मिलने जेल तक चले जाते हैं.

2017 में समाजवादी पार्टी ने मनीषा दीपक को उन्नाव सदर सीट पर उम्मीदवार बनाया था लेकिन वो बीजेपी उम्मीदवार पंकज गुप्ता से चुनाव हार गयी थीं. कोरोना वायरस की दूसरी लहर में मनीषा दीपक भी शिकार हो गयीं और अप्रैल, 2021 में उनका निधन हो गया.

उन्नाव की ही तरह प्रियंका गांधी ने और भी कई सीटों पर ऐसे ही संघर्षों की मिसाल बने लोगों को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया है. हालांकि, समाजवादी पार्टी की तरफ से अभी उन्नाव में ही कांग्रेस उम्मीदवार के सपोर्ट में अपना प्रत्याशी न खड़ा करने की घोषणा की गयी है.

फिलहाल तो सवाल यही है कि अखिलेश यादव कांग्रेस के प्रति ऐसी दिलदारी सिर्फ उन्नाव सीट तक ही दिखा रहे हैं या उसके आगे की भी कोई स्ट्रैटेजी परदे के पीछे बन चुकी है - अगर वास्तव में ऐसा कुछ है तो योगी आदित्यनाथ के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ छोड़ देने से भी बड़ा खतरा हो सकता है.

योगी के खिलाफ किलेबंदी कितनी मजबूत

क्या योगी आदित्यनाथ के खिलाफ परदे के पीछे विपक्ष किसी खास स्ट्रैटेजी पर काम कर रहा है. बिलकुल वैसी ही स्ट्रैटेजी जिसकी बात अखिलेश यादव कर रहे हैं. जिस स्ट्रैटेजी के तहत गैर-यादव ओबीसी नेताओं को बीजेपी से तोड़ना मुमकिन हुआ है.

पवार-ममता की यूपी में दस्तक: समाजवादी पार्टी ने यूपी में जो पहला उम्मीदवार घोषित किया है वो हैं, एनसीपी नेता केके शर्मा. वो अनूपशहर विधानसभा सीट से अखिलेश यादव के नेतृत्व में बने गठबंधन के उम्मीदवार होंगे.

अगर राष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से देखें तो शरद पवार अखिलेश यादव का सपोर्ट करते नजर आते हैं, जो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के खिलाफ जाता है - और उत्तर प्रदेश में ममता बनर्जी की भी ऐसी ही रणनीति देखने को मिल सकती है.

ममता बनर्जी ने तो कांग्रेस से ललितेशपति त्रिपाठी को ही झटक लिया है. अपने जमाने में कांग्रेस के बड़े नेता रहे कमलापति त्रिपाठी के परिवार के ललितेशपति अब तृणमूल कांग्रेस के नेता बन चुके हैं - और समझा जाता है कि ममता बनर्जी के लिए अखिलेश यादव अपने सिंबल पर ललितेशपति को विधानसभा चुनाव लड़ा भी सकते हैं.

ये स्ट्रैटेजी योगी आदित्यनाथ को चौकन्ना करने वाली है, बशर्ते वो भी इसे सीरियसली ले रहे हों - बशर्ते वो भी परदे के पीछे का असली खेल समझ पा रहे हों.

उन्नाव से आगे की स्ट्रैटेजी क्या है: 2018 में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उपचुनावों में बीजेपी को लगातार शिकस्त देने के बाद यूपी में सपा-बसपा गठबंधन बना था. गठबंधन उम्मीदों के मुताबिक सफल भले न रहा हो, लेकिन फेल तो नहीं ही कहा जा सकता. 2014 में सपा और बसपा अलग अलग लड़े थे, लेकिन जब गठबंधन करके लड़े तो 10 सीटों का फायदा हुआ. सपा के हिस्से में तो 2019 में भी पांच ही लोक सभा सीटें आयीं, लेकिन मायावती को पूरे 10 सीटों का फायदा हुआ क्योंकि पांच साल पहले तो वो जीरो बैलेंस पर ही पहुंच गयी थीं.

गठबंधन तोड़ने की घोषणा भी मायावती की तरफ से ही हुई, अखिलेश यादव ने बस स्वीकार कर लिया था. ऐसा होने के पीछे जिन वजहों की चर्चा रही, उनमें से एक रही जांच एजेंसियों की दहशत. दिग्विजय सिंह जैसे नेता तो मायावती पर मोदी सरकार की जांच एजेंसियों के दबाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का इल्जाम भी लगा चुके हैं. असल में 2018 में कांग्रेस चाह रही थी कि मायावती मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी गठबंधन कर लें, लेकिन मायावती ने ऐसा नहीं किया.

हो सकता है सीधे सीधे बीजेपी के निशाने पर आने से बचने के लिए ही अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी और मायावती ने आपस में किसी भी तरह का चुनावी गठबंधन न करने का फैसला किया हो - लेकिन परदे के पीछे वे एक दूसरे को सपोर्ट तो कर ही सकते हैं.

जैसे कोई अघोषित गठबंधन हो: ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे नेता तो 2019 से ही एक खास लाइन पर बीजेपी को शिकस्त देने की स्ट्रैटेजी बनाने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस नेतृत्व ही, खास तौर पर राहुल गांधी पीछे हट जाते हैं.

विपक्ष की कोशिश बीजेपी विरोधी वोटों को बंटने से रोकना है. ये तभी हो सकता है जब बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार चुनाव मैदान में हो. गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उपचुनाव में ये प्रयोग सफल भी रहा है.

सपा-बसपा गठबंधन रहा हो या सपा-कांग्रेस गठबंधन, माना गया कि वोट ट्रांसफर भी बड़ी समस्या रही - लेकिन जब मैदान में एक ही उम्मीदवार होगा तो वोट तो बीजेपी के खिलाफ ही पड़ेंगे.

घोषित तौर पर न सही, अघोषित रूप से परदे के पीछे ये स्ट्रैटेजी तो अपनायी ही जा सकती है. ये भी जरूरी नहीं कि विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार ही हो, ऐसा भी तो हो सकता है कि एक पार्टी का कोई मजबूत उम्मीदवार हो और बाकियों की तरफ से किसी से भी नामांकन दाखिल करा दिया जाये.

क्या योगी आदित्यनाथ और बीजेपी को अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा के उन्नाव मॉडल की स्ट्रैटेजी समझ में आ रही है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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