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योगी सरकार में हुए इस्तीफों से अखिलेश यादव को मिला फायदा टिकाऊ है क्या?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 13 जनवरी, 2022 10:04 PM
  • 13 जनवरी, 2022 10:04 PM
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स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) के बाद दारा सिंह चौहान (Dara Singh Chauhan) के योगी कैबिनेट से हुए इस्तीफे का अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) कनेक्शन कितना मजबूत लगता है - और हां, यूपी विधानसभा चुनावों में असर भी होगा क्या?

स्वामी प्रसाद मौर्या (Swami Prasad Maurya) को ओबीसी की वैसी ही फिक्र लगती है जैसी कभी हरसिमरत कौर बादल को किसानों की रही. स्वामी प्रसाद मौर्य का इस्तीफा भी हरसिमरत कौर बादल से हूबहू मिलता है.

जैसे कृषि कानूनों के बहाने हरसिमरत कौर में मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया था, स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी ओबीसी हितों का नाम लेकर योगी कैबिनेट से रिजाइन किया है - और दारा सिंह चौहान (Dara Singh Chauhan) ने भी वही रास्ता अख्तियार किया है.

मौर्या और चौहान के इस्तीफों से बीजेपी और अखिलेश यादव की सेहत पर जो भी तात्कालिक असर हो रहा है, निजी तौर पर दोनों नेताओं का नफे-नुकसार का आकलन भी अकाली नेता हरसिमरत कौर बादल के ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर किया जा सकता है.

कभी लगता है भगदड़ मची है. फिर लगता है जैसे छीनाझपटी चल रही हो. ये तो हर चुनाव के दौरान होता है - बहरहाल, जो भी हो. जैसे भी हो, यूपी चुनाव धीरे धीरे काफी दिलचस्प होता जा रहा है।

खास बात ये है कि जो काम अब तक बीजेपी की तरफ से होता रहा, वही बीजेपी के घर के भीतर होने लगा है. एक फर्क ये भी है कि जैसे ही उसे लगता है कि उसका कोई नेता अखिलेश यादव के खेमे में जा रहा है, लखनऊ से दिल्ली तक हड़कंप मच जाता है - और भरपाई के लिए कुछ सपा और कुछ कांग्रेस नेताओं को बीजेपी ज्वाइन करा कर मैसेज देने की कोशिश होती है कि बीजेपी भरपाई भले न कर पाये, कुछ न कुछ इंतजाम तो कर ही लेती है.

ये बात अलग है कि बीजेपी सरकार के मंत्रियों के छोड़ कर चले जाने के बाद अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की तरफ से हाशिये पर भेज दिये गये नेताओं से ही काम चलाना पड़ता है. हादसे के शिकार कांग्रेस हो जाती जब उसके मौजूदा विधायक ही हाथ से फिसल जाते हैं.

फिर भी कुछ सवाल तो उठेंगे ही - क्या बीजेपी के खिलाफ किसी...

स्वामी प्रसाद मौर्या (Swami Prasad Maurya) को ओबीसी की वैसी ही फिक्र लगती है जैसी कभी हरसिमरत कौर बादल को किसानों की रही. स्वामी प्रसाद मौर्य का इस्तीफा भी हरसिमरत कौर बादल से हूबहू मिलता है.

जैसे कृषि कानूनों के बहाने हरसिमरत कौर में मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया था, स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी ओबीसी हितों का नाम लेकर योगी कैबिनेट से रिजाइन किया है - और दारा सिंह चौहान (Dara Singh Chauhan) ने भी वही रास्ता अख्तियार किया है.

मौर्या और चौहान के इस्तीफों से बीजेपी और अखिलेश यादव की सेहत पर जो भी तात्कालिक असर हो रहा है, निजी तौर पर दोनों नेताओं का नफे-नुकसार का आकलन भी अकाली नेता हरसिमरत कौर बादल के ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर किया जा सकता है.

कभी लगता है भगदड़ मची है. फिर लगता है जैसे छीनाझपटी चल रही हो. ये तो हर चुनाव के दौरान होता है - बहरहाल, जो भी हो. जैसे भी हो, यूपी चुनाव धीरे धीरे काफी दिलचस्प होता जा रहा है।

खास बात ये है कि जो काम अब तक बीजेपी की तरफ से होता रहा, वही बीजेपी के घर के भीतर होने लगा है. एक फर्क ये भी है कि जैसे ही उसे लगता है कि उसका कोई नेता अखिलेश यादव के खेमे में जा रहा है, लखनऊ से दिल्ली तक हड़कंप मच जाता है - और भरपाई के लिए कुछ सपा और कुछ कांग्रेस नेताओं को बीजेपी ज्वाइन करा कर मैसेज देने की कोशिश होती है कि बीजेपी भरपाई भले न कर पाये, कुछ न कुछ इंतजाम तो कर ही लेती है.

ये बात अलग है कि बीजेपी सरकार के मंत्रियों के छोड़ कर चले जाने के बाद अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की तरफ से हाशिये पर भेज दिये गये नेताओं से ही काम चलाना पड़ता है. हादसे के शिकार कांग्रेस हो जाती जब उसके मौजूदा विधायक ही हाथ से फिसल जाते हैं.

फिर भी कुछ सवाल तो उठेंगे ही - क्या बीजेपी के खिलाफ किसी लहर का इशारा है? या फिर बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने की राजनीतिक विरोधियों की कोई रणनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश?

सवाल तो ये भी है कि क्या ये राजनीति के मौसम विज्ञान के तहत किसी शोध का विषय है? क्या स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान और कुछ संभावित साथियों को यकीन हो चला है कि अखिलेश यादव के फिर से अच्छे दिन आने वाले हैं - या चुनावी मौसम में हाशिये पर पहुंचने से पहले कोई सुरक्षित ठिकाना बदलने का प्रयास भर है?

1. ये वारंट जांच एजेंसियों के छापों जैसा नहीं है

स्वामी प्रसाद मौर्या भी नसीमुद्दीन सिद्दीकी की तरह ही बीएसपी में मायावती के मुख्य कर्ताधर्ता नेताओं में शुमार हुआ करते थे. बहुजन समाज पार्टी में तब उनकी हैसियत मायावती के बाद नंबर दो की थी. स्वामी प्रसाद मौर्य 2016 में बहुजन समाज पार्टी से बीजेपी में आये थे. आगे पीछे दोनों ही बीएसपी से हट गये - हटाये गये या खुद हटे, ये अलग मामला हो सकता है, लेकिन बीएसपी की सेहत पर कोई फर्क पड़ा हो, कभी ऐसा तो नहीं लगा.

ओबीसी मंत्रियों और विधायकों के निशाने पर योगी आदित्यनाथ ही पहले लगते हैं, बीजेपी का नंबर तो बाद में आता है!

बीएसपी न तो ऊपर उठ सकी, न ही जहां थी वहां से नीचे ही गिरी. समाजवादी पार्टी के मुकाबले 2017 में मायावती के नाम पर चुन कर आये विधायकों की संख्या लगभग एक तिहाई ही थी, लेकिन वोट शेयर में मामूली अंतर ही रहा.

स्वामी प्रसाद मौर्य जिस मकसद के साथ बीजेपी ज्वाइन किये थे, पूरा भी हुआ. पूरे परिवार की राजनीति चमचमाती रही है - और अब भी सिर्फ मंत्री पद से इस्तीफा दिया है, न बीजेपी छोड़ी है, न समाजवादी पार्टी ज्वाइन ही किया है.

ऐसा क्यों लगता है जैसे सब कुछ तयशुदा हो. अचानक खबर आती है कि यूपी की बीजेपी सरकार से इस्तीफा देने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ वारंट जारी हो गया. हेडलाइन से तो ऐसा ही लगता है जैसे ये भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के छापों की तरह ही हो.

लेकिन ध्यान देने पर मालूम होता है कि मौर्य के खिलाफ जारी वारंट और कनौज-कानपुर में पड़े छापों में जमीन आसमान नहीं, बल्कि आकाशा और पाताल जैसा फर्क है.

2. जैसे वारंट भी स्क्रिप्ट का हिस्सा हो

वारंट की सच्चाई जानने के बाद लगता तो ऐसा है जैसे इस्तीफे तारीख भी स्वामी प्रसाद मौर्य ने सोच समझ कर चुनी हो. कोर्ट न जाने पर वारंट तो जारी होना ही है, लिहाजा हाइलाइट होने के लिए ठीक एक दिन पहले इस्तीफा दे डाला.

दरअसल, 12 जनवरी को स्वामी प्रसाद मौर्य को एमपी-एमएलए कोर्ट में हाजिर होना था. ये आदेश भी अदालत की तरफ से हफ्ता भर पहले ही 6 जनवरी को मिला था. जब मौर्य अदालत में हाजिर नहीं हुए तो तय प्रक्रिया के तहत वारंट जारी कर दिया गया. जिस केस में वारंट जारी हुआ है वो भी 2014 का मामला है, जब मौर्या यूपी विधानसभा में विपक्ष के नेता और बीएसपी के महासचिव हुआ करते थे. तभी मौर्य के खिलाफ धार्मिक भावना भड़काने का केस दर्ज हुआ था.

बाद में मौर्य ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से केस स्टे ले रखा था - और बाकी कहानी आप अपने कॉमन सेंस से आसानी से समझ सकते हैं.

3. मौर्य को खरमास के बाद मुहूर्त का इंतजार

देख कर तो ऐसा ही लगता है जैसे यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी को लगातार दूसरे दिन भी बहुत बड़ा झटका लगा हो, लेकिन दारा सिंह चौहान के इस्तीफे की वजह भी मिलती जुलती ही हो सकती है. मौर्य और दारा सिंह के साथ साथ करीब आधा दर्जन बीजेपी विधायकों के भी पार्टी छोड़ने की खबर है. हालांकि, उनमें से कई ऐसे भी हैं जो अलग अलग बयान जारी कर सफाई पेश करते हुए बता रहे हैं कि बीजेपी के साथ तो उनका जन्म जन्म का रिश्ता है.

हिसाब बराबर करने की कोशिश में बीजेपी ने भी फिरोजाबाद से सपा विधायक हरिओम यादव और पूर्व विधायक धर्मपाल यादव के साथ साथ सहारनपुर के बेहट से कांग्रेस विधायक नरेश सैनी को भगवा चोला पहना कर मैसेज दे ही दिया है. थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा.

ये सभी नेता यूपी के दोनों डिप्टी सीएम केशव मौर्य और दिनेश शर्मा के साथ यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह की मौजूदगी में पाला बदलने का ऐलान कर चुके हैं. खास बात ये है कि तीनों में से किसी का ताजा स्टेटस अपडेट वैसा नहीं है जैसा बीजेपी छोड़ने वाले विधायकों के बारे में पता चला है. बीजेपी विधायक रविंद्र नाथ त्रिपाठी की तरफ से तो अपने इस्तीफे की अफवाह उड़ाने को लेकर पुलिस में शिकायत भी दर्ज करायी जा चुकी है.

ऐसा लगता है जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस्तीफे के लिए तो सिर्फ तारीख तय कर ली थी, लेकिन अब आगे के लिए मुहूर्त का इंतजार कर रहे हैं. मौर्य की बेटी बीजेपी सांसद संघमित्रा मौर्य जो भी दावा करें, लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य तो बीजेपी के ताबूत में आखिरी कील तक ठोक डालने जैसे दावे कर रहे हैं - लेकिन इसकी घोषणा वो खरमास बीत जाने के बाद 14-15 जनवरी तक करेंगे.

4. काम किया या टाइमपास किया

बाकी नेता तो चुप हैं लेकिन केशव प्रसाद मौर्य खुल कर ट्विटर पर आये हैं और स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ साथ दारा सिंह चौहान से भी फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील कर रहे हैं - ये बात अलग है कि जन्नत की हकीकत से तो वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ हैं ही. केशव मौर्य ने ट्वीट किया है , 'आदरणीय स्वामी प्रसाद मौर्य जी ने किन कारणों से इस्तीफा दिया है, मैं नहीं जानता हूं... उनसे अपील है कि बैठ कर बात करें जल्दबाजी में लिए हुए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं.'

स्वामी प्रसाद मौर्य की ही तरह दारा सिंह चौहान भी खुद को आहत महसूस कर रहे हैं - लिखा है, 'सरकार की पिछड़ों, वंचितों, दलितों, किसानों और बेरोजगार नौजवानों की घोर उपेक्षात्मक रवैये के साथ-साथ पिछड़ों और दलितों के आरक्षण के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है.'

स्वामी प्रसाद मौर्य की बातें तो विरोधाभासी लगती हैं. एक तरफ कह रहे हैं कि वो काम करते रहे, दूसरी तरफ ये जता रहे हैं जैसे कोई काम ही नहीं होता रहा - अगर वास्तव में ऐसा ही रहा तो वो काम करते रहे या काम के नाम पर टाइमपास करते रहे?

5. बीजेपी नहीं, लेकिन योगी के लिए मुश्किल

स्वामी प्रसाद मौर्य बड़े मौके से बीजेपी ज्वाइन किये थे. चुनाव तो जीत ही जाते मंत्री भी बने और पूरे पांच साल बने भी रहे. स्वामी प्रसाद मौर्य के लिए बीजेपी के भीतर इससे ज्यादा मुमकिन भी कहां था.

कितना भी कद बढ़ता, लेकिन जगह तो केशव मौर्य के पीछे ही रहती. मुख्यमंत्री बनने के लिए तमाम पापड़ बेलने के बावजूद केशव मौर्य डिप्टी सीएम से आगे जगह नहीं बना पा रहे हैं, तो स्वामी प्रसाद मौर्य के सामने भी रीता बहुगुणा जोशी जैसा खतरा मंडरा रहा होगा.

एक दौर रहा जब कांग्रेस का वोट बैंक खिसकने के बाद भी मुलायम सिंह यादव ओबीसी और मायावती दलितों की नेता बनी रहीं, लेकिन कालांतर में बीजेपी ने सबका खेल बिगाड़ दिया. जैसे कांग्रेस मुस्लिम पार्टी के ठप्पे से निकलने में जुटी हुई है, वैसे ही अखिलेश यादव भी महज यादवों के नेता बन कर रह गये हैं.

अखिलेश यादव को भी मालूम है की खाली यादवों के नेता बन कर यूपी में सबसे बड़ी पार्टी से आगे कुछ मिलने वाला नहीं है. लिहाजा स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे कुछ नेताओं की बदौलत अगर गैर यादव ओबीसी वोट हाथ लग गया तो चुनाव नतीजे काफी अलग भी हो सकते हैं - ऐसे ये भी हो सकता है कि बीएसपी जैसी हैसियत स्वामी प्रसाद मौर्य को अखिलेश यादव की छत्रछाया में भी हासिल हो जाये - और ज्यादा कुछ नहीं तो मौका हाथ लगने पर एक बार डिप्टी सीएम की कुर्सी भी मिल जाये. पूरी कवायद का मकसद तो यही लगता है.

ध्यान देने वाली एक और चीज है. स्वामी प्रसाद मौर्या और दारा सिंह चौहान के इस्तीफे की भाषा. बीजेपी की तरफ से दोनों नेताओं को मैनेज करने का टास्क तो सुना है खुद अमित शाह दिल्ली में बैठे बैठे हैंडल कर रहे हैं, लेकिन मोर्चे पर केशव मौर्य के साथ साथ स्वतंत्रदेव सिंह और सुनील बंसल को लगाया गया है. कोई बीजेपी छोड़ता है या बने रहता है, उससे कहीं बड़ा चैलेंज यूपी की जनता के बीच जो मैसेज जा रहा है उसे न्यूट्रलाइज करना है.

बाकी सब तो ठीक है, लेकिन जिस तरीके से ओबीसी नेताओं ने मोर्चा खोल रखा है. बीजेपी से ज्यादा ये सब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ जा रहा है. ओबीसी का मुद्दा उठाना और मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना, लेकिन बीजेपी में बने रहने का संकेत देना - आखिर ये सब क्या कहलाता है?

ओबीसी वोटों को मैनेज करना बीजेपी के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है. वैसे भी यूपी चुनाव में भी बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट मांग रही है - और वो बीजेपी के सबसे बड़े ओबीसी फेस हैं.

यूपी बीजेपी के लिए चुनाव में धर्मेंद्र प्रधान से लेकर ऐसे तमाम नेता हैं जिनके जरिये पहले से ही जातीय राजनीतिक संतुलन कायम रखने के संदेश देने की कोशिश है - लेकिन ये जो बगावत है, वो योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ठाकुरवाद की राजनीति के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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