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क्यों अटल बिहारी वाजपेयी का पुनर्जन्म जरूरी है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 16 अगस्त, 2018 06:54 PM
  • 16 अगस्त, 2018 06:54 PM
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अटल बिहारी वाजपेयी ने खुद अपनी शख्सियत ऐसी गढ़ी जिसकी गरिमा कभी प्रधानमंत्री पद की मोहताज नहीं रही. वाजपेयी ने ये तब भी महसूस कराया जब वो पहली बार प्रधानमंत्री बने और बाद में भी - 2004 में एनडीए की चुनावी शिकस्त को भी वाजपेयी ने 'भारत की जीत' बताया था.

राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता की शक्ति हासिल करना नहीं होता, बल्कि अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य से उसका लोक समृद्धि का मूल मकसद हासिल करना होता है - अटल बिहारी वाजपेयी न सिर्फ इसकी मिसाल हैं, बल्कि बेमिसाल भी हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी शख्सियत ऐसी बनायी जो कभी प्रधानमंत्री पद की मोहताज नहीं रही. इस बात का एहसास वाजपेयी ने तब भी कराया जब पहली बार प्रधानमंत्री बने और बाद में भी - 2004 में एनडीए की चुनाव हार को भी वाजपेयी ने 'भारत की जीत' बताया था.

जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक जिस किसी भी प्रधानमंत्री के 'मन की बात' की बात पर गौर फरमाया जाये तो किसी न किसी बात पर आम राय यही बनती है - वाजपेयी जैसा कोई नहीं!

और यही वजह है कि लंबे अरसे तक विपक्ष के नेता, अरसे तक के एकांतवास में भी रहे वाजपेयी देश की राजनीति के प्रसंग-पटल से कभी ओझल नहीं हुए - क्योंकि हर एक दौर में वाजपेयी का होना जरूरी होता है!

आलोचना राजनीतिक होती है, व्यक्तिगत नहीं

राजनीति में एक खास मुकाम हासिल कर लेने के बाद से अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा ही उस ठीहे पर विराजमान रहे जहां से हर कोई उन्हें बराबर नजर आता. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके प्रति सिर्फ उनकी विचारधारा के लोगों की सम्माननीय भावना रही, बल्कि अलग नजरिये वालों ने भी वाजपेयी को कभी अलग नहीं समझा.

'कभी इतनी ऊंचाई मत देना...'

बीजेपी से इतर भी कई नेता हर साल 25 दिसंबर को उनके जन्म दिन पर बधाई देने पहुंचा करते और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी उनमें शामिल है. ये सिलसिला तब शुरू हुआ जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे. वाजपेयी की सोच विशाल ही नहीं व्यापक रही और यही वजह थी कि उनकी बातों का बेजोड़ असर हुआ करता था. ऐसा ही एक वाकया मनमोहन सिंह के...

राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता की शक्ति हासिल करना नहीं होता, बल्कि अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य से उसका लोक समृद्धि का मूल मकसद हासिल करना होता है - अटल बिहारी वाजपेयी न सिर्फ इसकी मिसाल हैं, बल्कि बेमिसाल भी हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी शख्सियत ऐसी बनायी जो कभी प्रधानमंत्री पद की मोहताज नहीं रही. इस बात का एहसास वाजपेयी ने तब भी कराया जब पहली बार प्रधानमंत्री बने और बाद में भी - 2004 में एनडीए की चुनाव हार को भी वाजपेयी ने 'भारत की जीत' बताया था.

जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक जिस किसी भी प्रधानमंत्री के 'मन की बात' की बात पर गौर फरमाया जाये तो किसी न किसी बात पर आम राय यही बनती है - वाजपेयी जैसा कोई नहीं!

और यही वजह है कि लंबे अरसे तक विपक्ष के नेता, अरसे तक के एकांतवास में भी रहे वाजपेयी देश की राजनीति के प्रसंग-पटल से कभी ओझल नहीं हुए - क्योंकि हर एक दौर में वाजपेयी का होना जरूरी होता है!

आलोचना राजनीतिक होती है, व्यक्तिगत नहीं

राजनीति में एक खास मुकाम हासिल कर लेने के बाद से अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा ही उस ठीहे पर विराजमान रहे जहां से हर कोई उन्हें बराबर नजर आता. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके प्रति सिर्फ उनकी विचारधारा के लोगों की सम्माननीय भावना रही, बल्कि अलग नजरिये वालों ने भी वाजपेयी को कभी अलग नहीं समझा.

'कभी इतनी ऊंचाई मत देना...'

बीजेपी से इतर भी कई नेता हर साल 25 दिसंबर को उनके जन्म दिन पर बधाई देने पहुंचा करते और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी उनमें शामिल है. ये सिलसिला तब शुरू हुआ जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे. वाजपेयी की सोच विशाल ही नहीं व्यापक रही और यही वजह थी कि उनकी बातों का बेजोड़ असर हुआ करता था. ऐसा ही एक वाकया मनमोहन सिंह के साथ भी हुआ.

दुष्यंत कुमार की एक लाइन है - 'मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.'

कविहृदय वाजपेयी ने तब मनमोहन सिंह को आलोचना का फर्क समझाया. हर आलोचना व्यक्तिगत नहीं होती और राजनीतिक आलोचना को दिल पर नहीं लेते. हां, दिमाग से कभी उतरने भी नहीं देना चाहिये.

बात 1991 की है. तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने वाजपेयी को फोन किया और बताया कि बजट की उन्होंने इतनी सख्त आलोचना की है कि उनके वित्त मंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह इस्तीफा देने के बारे में सोचने लगे हैं.

वाजपेयी ने फौरन डॉक्टर मनमोहन सिंह से संपर्क किया और मुलाकात होने पर समझाया कि कि आलोचना को व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए. वाजयेपी ने समझाया कि बजट पर उन्होंने जो कुछ कहा वो क राजनीतिक भाषण था.

विरोध के मामले में हमेशा अटल रहे वाजपेयी

जब इंदिरा गांधी ने पेट्रोल और डीजल की कीमत में 80 फीसदी का इजाफा किया तो अटल बिहारी वाजपेयी ने विरोध का अनोखा रास्ता अख्तियार किया. 12 नवंबर 1973 को वाजपेयी बैलगाड़ी पर सवार होकर संसद भवन पहुंचे थे. वाजपेयी के साथ दो और लोग भी बैलगाड़ी पर बैठे हुए थे. वाजपेयी की पहल का सपोर्ट करते हुए कई नेता साइकिल से भी संसद पहुंचे थे. हालांकि, पेट्रोल बचाने का संदेश देने के लिए इंदिरा गांधी भी उन दिनों बग्घी से चलने लगी थीं.

जब बैलगाड़ी से संसद पहुंचे वाजपेयी

पाकिस्तान से जंग में जीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा की संज्ञा दी थी तो, एक वही थे जो इंदिरा गांधी को माकूल जवाब देने का साहस रखते थे.

संसद का ही एक वाकया है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वाजपेयी के बारे में कहा था कि वो हिटलर की तरह भाषण देते हैं और हाथ लहरा लहरा कर अपनी बात रखते हैं.

बाद में सेंस ऑफ ह्यूमर से भरपूर अटल बिहारी वाजपेयी की टिप्पणी थी, 'इंदिरा जी हाथ हिलाकर तो सभी भाषण देते हैं, क्या कभी आपने किसी को पैर हिलाकर भाषण देते हुए भी सुना है?'

यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू भी वाजपेयी के टैलेंट के कायल थे. भारत दौरे पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए नेहरू ने कहा था, "इनसे मिलिये. ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूं."

आपको कश्मीर, हमें पाकिस्तान चाहिए - 'मंजूर है?'

वाजपेयी की विराट स्वीकार्यता का एक वाकया पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के शासनकाल से जुड़ा है. 27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में OIC के जरिये प्रस्ताव रख कर जम्मू-कश्मीर के नाम पर भारत को घेरने की कोशिश की. अगर प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत के लिए मुश्किलें बढ़ जातीं.

राव की तो वैसे भी चुनौतियों से घिरी सरकार रही और मुसीबतें कौन मोल ले. राव ने जिस टीम को जेनेवा भेजा उसमें खास तौर पर विपक्ष के नेता वाजपेयी को भेजा. टीम में तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, ई. अहमद, फारूक अब्दुल्ला और हामिद अंसारी थे तो जरूर लेकिन राव को ज्यादा भरोसा वाजपेयी पर ही था. बात देश की थी, सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति से बहुत ऊपर.

वाजपेयी के राजनैतिक तौर पर दुरूस्त कूटनीतिक जाल में पाकिस्तान ऐसा उलझा कि बगलें झांकने लगा.

पाकिस्तान को घेरते हुए अटल बिहारी वाजपेयी बोले, "आपका कहना है कि कश्मीर के बगैर पाकिस्तान अधूरा है, तो हमारा मानना है कि पाकिस्तान के बगैर हिंदुस्तान अधूरा है, बोलिये, दुनिया में कौन पूरा है? पूरा तो केवल ब्रह्मा जी ही हैं, बाकी सबके सब अधूरे हैं. आपको पूरा कश्मीर चाहिए, तो हमें पूरा पाकिस्तान चाहिए, बोलिये क्या मंजूर है?

बरसों बाद न्यूयॉर्क में वाजपेयी और तब के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ बात कर थे. कुछ ही देर बाद नवाज संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने वाले थे. बातचीत के बीच ही नवाज शरीफ को बुलावे का मैसेज आ गया.

नवाज शरीफ ने चिट पर नजर डाली और कहा - "इजाजत है," जैसे ही बढ़ने को हुए पलट कर दोबारा पूछा, "आज्ञा है?" "इजाज़त है," हंसते हुए वाजपेयी का जवाब था. लाहौर बस यात्रा भी यूं ही नहीं थी, बाद में करगिल और न जाने क्या क्या हुआ, बात अलग है.

एक पर्ची जो पोखरण परमाणु परीक्षण की नींव साबित हुई

वाजपेयी के शपथग्रहण समारोह में मौजूद पीवी नरसिंह राव ने हाथ से लिखी एक पर्ची थमाते हुए उसे अकेले में पढ़ने की सलाह दी. वाजपेयी ने पर्ची को संभाल कर रख लिया.

जब पर्ची खोल कर देखा तो लिखा था - 'एन पर कलाम से जल्द बात करें.'

उस 'एन' का मतलब न्यूक्लियर यानी परमाणु परीक्षण से ही था. अगले ही दिन वाजपेयी ने एपीजे अब्दुल कलाम (जिन्हें बाद में राष्ट्रपति भी बनाया) से मुलाकात की. कहते हैं कलाम को वाजपेयी की हरी झंडी तो मिल गयी, लेकिन महज 13 दिनों में ही वाजपेयी सरकार गिर गयी. बाद में ही सही वाजपेयी जब फिर से प्रधानमंत्री बने तो परमाणु परीक्षण कराकर ही दम लिये.

गठबंधन भी और राजधर्म भी जरूरी होता है

मिली जुली सरकारें तो पहले भी बनीं लेकिन टिक नहीं पायीं. इमरजेंसी के कारण इंदिरा गांधी की हार के बाद जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की बदौलत मोरारजी देसाई की सरकार बनी जरूर लेकिन कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी. इस लिहाज से देखें तो वाजपेयी सरकार ही अपना कार्यकाल पूरा करने में कामयाब रही. ये सही था कि वाजपेयी मौके बे मौके गठबंधन की सरकार चलाने के दर्द का इजहार करते रहे, लेकिन अपनी सर्व स्वीकार्यता के चलते ही वो ऐसा कर पाये.

2004 में जब शाइनिंग इंडिया कैंपेन के बावजूद एनडीए सरकार की शिकस्त हुई, तो टीवी पर बतौर प्रधानमंत्री आखिरी भाषण में बोले, “मेरी पार्टी और गठबंधन हार गया, लेकिन भारत की जीत हुई है.”

गठबंधन और राजधर्म दोनों जरूरी हैं!

ये वाजपेयी ही रहे जिनमें ऐसी आत्मस्वीकारोक्ति की शक्ति रही, वरना अब तो बीजेपी में बीएस येदियुरप्पा जैसे नेता हैं जिन्हें पीछे से पुश करने पर हारी हुई बाजी को येन केन प्रकारेण पलटने की कोशिश कर डालते हैं. मिलीभगत भी ऐसी कि सरकार बनाने का न्योता भी हासिल कर लेते हैं और कुर्सी पर बैठ भी जाते हैं, जबकि पता होता है कि अदालती इंसाफ का डंडा पड़ने पर भाग खड़ा होना ही पड़ेगा.

खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुल्लत ने अपनी किताब 'द वाजपेयी इयर्स' में लिखा है कि 2002 के गुजरात दंगों को वाजपेयी अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी गलती मानते रहे. किंग्शुक नाग के हवाले से बीबीसी ने लिखा है गुजरात दंगों को लेकर वाजपेयी कभी सहज नहीं रहे. वो चाहते थे कि इस मुद्दे पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफा दें.

कहते हैं तब लालकृष्ण आडवाणी खुद मोदी के सपोर्ट में खड़े हो गये और गोवा के राष्ट्रीय सम्मेलन तक बीजेपी के कुछ बड़े नेता मोदी के बारे में वाजपेयी की राय बदलने में कामयाब हो गये.

माना जाता है कि 'पार्टी और गठबंधन की हार को भारत की जीत' बताने के पीछे भी वाजपेयी का आशय गुजरात की घटना से ही रहा. कालांतर में नीतीश कुमार के मोदी विरोध के पीछे कहीं न कहीं अंदर ही अंदर खुद के वाजपेयी जैसे होने का गुमान जरूर रहा होगा, लेकिन बाद की हरकतों ने बहुतों की धारणा बदल दी होगी.

वाजपेयी जैसा बनना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है.

फैन तो बस फैन होता है

सिनेमा के शौकीन तो लाल कृष्ण आडवाणी को भी माना जाता है, लेकिन इस मामले में भी वाजयेपी उनसे कहीं ज्यादा आगे खड़े नजर आते हैं. बकौल बीजेपी सांसद हेमा मालिनी, मालूम होता है कि वाजपेयी उनके कितने बड़े फैन रहे हैं. एक बार हेमा मालिनी ने जैसे तैसे जुगाड़ कर वाजपेयी से मुलाकात की. हेमा मालिनी जब मिलने पहुंचीं तो महसूस किया कि वाजपेयी उनसे बात करने से हिचकिचा रहे हैं. फिर हेमा मालिनी वहीं मौजूद एक महिला से पूछा - अटल जी ठीक से बात क्यों नहीं कर रहे?

महिला ने बताया कि वाजपेयी उनके बहुत बड़े फैन रहे हैं. 1972 में जब हेमा मालिनी की फिल्म 'सीता और गीता' रिलीज हुई तो वाजपेयी ने उसे 25 बार देखी थी, ये भी उस महिला ने ही बताया. वाजपेयी का एक भावलोक ये भी रहा है.

मौत से ठन गई!

"मेरे प्रभु!

मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना.

गैरों को गले न लगा सकूं,

इतनी रुखाई कभी मत देना."

ये विनम्रता ही वाजपेयी को इतनी उस ऊंचाई पर ले गयी जहां पहुंचना तो दूर, उसे एवरेस्ट की तरह छूने भर के लिए भी ताउम्र मशक्कत करनी पड़ सकती है.

वाजपेयी की एक और कविता है - 'मौत से ठन गई'... जिसे सोशल मीडिया पर लगातार लोग शेयर कर रहे हैं.

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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