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सुच्चा सिंह, काश सच पहले समझ पाते

    • स्नेहांशु शेखर
    • Updated: 28 अगस्त, 2016 10:53 AM
  • 28 अगस्त, 2016 10:53 AM
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एक अपराध- जो घटा या नहीं, या सिर्फ चर्चा में है, पता नहीं. लेकिन आरोपी तो नप गए. पंजाब में आप के संयोजक सुच्चा सिंह छोटेपुर, जब तक सच समझ पाते, अपना स्टिंग देख पाते, सफाई दे पाते, तब तक पद से ही बाहर हो गए.

एक अपराध- जो घटा या नहीं, या सिर्फ चर्चा में है, पता नहीं! पर आरोपी तो नप गए. पंजाब में आप के संयोजक सुच्चा सिंह छोटेपुर, जब तक सच समझ पाते, अपना स्टिंग देख पाते, सफाई दे पाते, तब तक पद से ही बाहर हो गए. दरअसल, जो इतिहास से सबक नहीं लेते, इतिहास में दिलचस्पी नहीं रखते, उनसे ऐसी गलतियां हो जाती है. लेकिन राजनीति में इन गतलियों के लिए कोई जगह नहीं होती.

आम आदमी पार्टी एक ऐसी पार्टी है जिनकी कम समय में मीडिया में खूब चर्चा और समीक्षा हुई. एक दौर था जब देश ने राजनीतिक आंदोलनों का दौर देखा था. चाहे जयप्रकाश रहे हों या फिर डॉ. लोहिया. राजनारायण से लेकर कर्पूरी ठाकुर तक, चंद्रशेखर और आडवाणी, अलग-अलग मुद्दों पर लोगों ने इनके आंदोलन देखें. देशव्यापी पद यात्राएं और रथ यात्राएं देखीं. फिर ऐसा दौर भी आया कि सारी राजनीति दिल्ली में ही सिमट गई.

गरीब, मजदूर, किसान के हितैषी वामपंथी और समाजवादी विचारधारा से जुड़े दल या संगठन अब तो दिल्ली में ही चर्चा करते हैं. मीडिया से संवाद करते हैं. चैनलों पर बहस कर लेते हैं. दिल्ली से ही सारी समस्याओं का शर्तिया हल ढूंढ निकालते हैं.

ऐसे सुविधाजनक राजनीतिक माहौल में लोगों ने काफी अंतराल के बाद रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन देखा था. मुद्दा भ्रष्टाचार का था और मांग स्वराज और लोकपाल की थी. सच भी था कि यूपीए-2 में जिस कदर भ्रष्टाचार के मामले उजागर हो रहे थे उससे लोगों में निराशा थी और जब एक झंडा उठा, आवाज उठी, तो उम्मीदें भी बढ़ गईं.

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वापस लौटे तो, अन्ना आंदोलन की कोख से जन्मीं यह आम आदमी पार्टी. ये पार्टी जब से पैदा हुई तब से विवाद से जुड़ी रही. पार्टी के गठन से जो विवाद शुरू हुआ, अब तक जारी है. पहले अन्ना अलग हुए, फिर किरण बेदी सरीखे उनसे...

एक अपराध- जो घटा या नहीं, या सिर्फ चर्चा में है, पता नहीं! पर आरोपी तो नप गए. पंजाब में आप के संयोजक सुच्चा सिंह छोटेपुर, जब तक सच समझ पाते, अपना स्टिंग देख पाते, सफाई दे पाते, तब तक पद से ही बाहर हो गए. दरअसल, जो इतिहास से सबक नहीं लेते, इतिहास में दिलचस्पी नहीं रखते, उनसे ऐसी गलतियां हो जाती है. लेकिन राजनीति में इन गतलियों के लिए कोई जगह नहीं होती.

आम आदमी पार्टी एक ऐसी पार्टी है जिनकी कम समय में मीडिया में खूब चर्चा और समीक्षा हुई. एक दौर था जब देश ने राजनीतिक आंदोलनों का दौर देखा था. चाहे जयप्रकाश रहे हों या फिर डॉ. लोहिया. राजनारायण से लेकर कर्पूरी ठाकुर तक, चंद्रशेखर और आडवाणी, अलग-अलग मुद्दों पर लोगों ने इनके आंदोलन देखें. देशव्यापी पद यात्राएं और रथ यात्राएं देखीं. फिर ऐसा दौर भी आया कि सारी राजनीति दिल्ली में ही सिमट गई.

गरीब, मजदूर, किसान के हितैषी वामपंथी और समाजवादी विचारधारा से जुड़े दल या संगठन अब तो दिल्ली में ही चर्चा करते हैं. मीडिया से संवाद करते हैं. चैनलों पर बहस कर लेते हैं. दिल्ली से ही सारी समस्याओं का शर्तिया हल ढूंढ निकालते हैं.

ऐसे सुविधाजनक राजनीतिक माहौल में लोगों ने काफी अंतराल के बाद रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन देखा था. मुद्दा भ्रष्टाचार का था और मांग स्वराज और लोकपाल की थी. सच भी था कि यूपीए-2 में जिस कदर भ्रष्टाचार के मामले उजागर हो रहे थे उससे लोगों में निराशा थी और जब एक झंडा उठा, आवाज उठी, तो उम्मीदें भी बढ़ गईं.

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वापस लौटे तो, अन्ना आंदोलन की कोख से जन्मीं यह आम आदमी पार्टी. ये पार्टी जब से पैदा हुई तब से विवाद से जुड़ी रही. पार्टी के गठन से जो विवाद शुरू हुआ, अब तक जारी है. पहले अन्ना अलग हुए, फिर किरण बेदी सरीखे उनसे जुड़े लोग, फिर प्रशांत-योगेन्द्र, साजिया इल्मी जैसे नेता, फिर मयंक गांधी जैसे दर्जनों कार्यकर्ता, फिर कुछ अपने विधायक. सबके अपने कारण हो सकते हैं. शिकायतें हो सकती हैं. पर जो बिंदु कॉमन रही, वह ये कि पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल वो नहीं रहे जैसे पहले थे.

सुच्चा सिंह छोटेपुर समय रहते इनके अनुभव समझ लेते तो शायद वह नहीं होता, जो आज उनके साथ हुआ.

 फंसे या फंसाए गए सुच्चा सिंह?

अब केजरीवाल वह रहे या नहीं और जो अब हैं. ज्यादातर लोगों को अब सत्य समझ में आ रहा है. जन भागीदारी और स्वराज की चर्चा करते करते कब पार्टी में एक-राज की स्थापना हो गई, लोग समझ नहीं पाएं. पार्टी के अंदर स्टिंग और सेटिंग कल्चर के जनक और प्रणेता भी केजरीवाल ही माने जाते हैं. 2014 विधानसभा चुनावों से पहले और उसके दौरान तो बाकायदा खुले मंच से इस कल्चर की पैरवी की थी. उन्हें लगा कि सेटिंग के दांव और स्टिंग से ही भ्रष्टाचार पर लगाम लगाया जा सकता है. इसी स्टिंग की बदौलत दिल्ली में एक मंत्री की नौकरी गई. दूसरे की जाते-जाते बची. पार्टी में कुछ का कद बढ़ा तो कुछ हाशिए पर चले गए.

दो-तीन ऑडियो स्टिंग उन्हें पहले ही विवादों में डाल चुके हैं. पार्टी में कितनों ने कितनों का स्टिंग कर रखा है और उचित मौके की तलाश में हैं यह तो अलग कौतूहल का विषय है. दिल्ली के चुनावों के पहले भी टिकटों की खरीद-ब्रिकी और सेटिंग के आरोप लगे और खुद प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने खुले मंच से इस मुद्दें को भी उठाया. उनका क्या हुआ, सुच्चा सिंह को थोड़ा समझना चाहिए था.

अब सुच्चा सिंह तो पहले किरदार नहीं जो दगा पाने की शिकायत कर रहे हैं. धर्मवीर गांधी हो या फिर हरिंदर सिंह खालसा दोनों सांसद पहले ही इस तरह की शिकायत कर चुके हैं और अब उनका पार्टी से वास्ता खत्म सा हो चुका है. इनकी भी शिकायत यही थी कि पंजाब को दिल्ली से चलाने की कोशिश हो रही है और दिल्ली के नेताओं से पंजाब चलाया जा रहा है.

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हालांकि इन शिकायतों का क्या कर लीजिएगा. आरोप तो विरोधी यह भी लगाते है और लगाते क्या हैं कोर्ट तक चले गए कि दिल्ली से वह पूरा देश चलाते हैं. दिल्ली की खबर को पूरे देश में विज्ञापनों से पहुंचाते हैं और दिल्ली की जनता के कर का पैसा बेवजह इस्तेमाल कर रहे हैं.

लेकिन अब वो भी क्या करें, जब हाथ में दिल्ली ही है तो पैसा भी तो खूब सारा होगा. लिहाजा सुच्चा सिंह को भी थोड़ा सावधान रहना चाहिए था. सुच्चा सिंह अब जांच की मांग कर रहे है. लेकिन पार्टी में तो अब कोई इंटरनल लोकपाल भी न रहा जो इस मामले की निष्पक्ष जांच करे. ये अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिल्ली के पीएससी, जहां केजरीवाल ही हैं जो पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक भी है और प्रशासक भी.

सुच्चा सिंह को यह भी समझना चाहिए था कि पार्टी की नीति और समझ भी अब पहले सरीके ना रही. जो पार्टी कॉमनवेल्थ, कोलगेट और 2-जी पर कैग रिपोर्ट को ब्रह्मसत्य मान नेताओं से इस्तीफा मांगते फिरती थी. उसकी दशा ये हो गई है कि कैग जब यह कहता है कि विज्ञापन देने में आप सरकार ने गड़बड़ी की है और पैसे का बेवजह इस्तेमाल किया है तब कैग को यह समझाया जाता है कि सीएजी और दिल्ली सरकार दोनों संवैधानिक संस्थाएं हैं.

दोनों को एक-दूसरे की संप्रभुता का खयाल रखना चाहिए और कोई अतिक्रमण घातक हो सकता है. ये बातें छोटी लग सकती हैं. लेकिन राजनीति में इनके मायने बड़े होते है. जैसा कि कहा भी जाता है कि राजनीति में तथ्य कम, परसेप्शन ही मायने रखता है. वही जिंदा रहता है.

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अब आप करते रहिए सीबीआई से जांच की मांग, राजनीतिक साजिश की बात, खबर तो फैल गई या फैला दी गई कि टिकटों के बंटवारे को लेकर पैसे के लेन--देन का उनका स्टिंग है. अब वह स्टिंग है भी या नहीं क्या फर्क पड़ता है. काश सुच्चा सिंह थोड़ा सच पहले ही समझ पाते. 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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