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मोदी के लिए चुनाव में सिरदर्द हैं ये 6 फैक्टर

    • गिरिजेश वशिष्ठ
    • Updated: 14 मार्च, 2019 04:01 PM
  • 14 मार्च, 2019 03:53 PM
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वो गलतियां जो पीएम मोदी के लिए लोकसभा चुनाव 2019 के लिए सिरदर्द बनी हई हैं, उसे मार्केटिंग के दिग्गज बेहद खतरनाक बता रहे हैं.

2019 के चुनाव में पीएम मोदी के पक्ष में परसेप्शन या कहें कि उनकी छवि विजेता वाली है. लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो पीएम मोदी के लिए 2019 के चुनाव में सिरदर्द बनी हई हैं. मार्केटिंग के दिग्गजों का कहना है कि ये गलतियां बेहद खतरनाक हो सकती हैं.

दस राज्यों में सिर्फ खोने को है

2014 की लहर में पीएम मोदी ने दस राज्यों में 100 फीसदी सीटें पायी थीं. इन राज्यों में दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ समेत कई बड़े राज्य हैं. मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में भी पार्टी के पास अधिकांश सीटें हैं. मध्यप्रदेश में कुल 2 सीटें पूर्ण संख्या से कम हैं. मोदी सरकार को अगर फिर से सरकार बनानी है तो पिछली बार का प्रदर्शन कम से कम 12 राज्यों में दोहराना होगा. इन राज्यों में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी का गठबंधन है जो पार्टी को कम से कम 30 से 35 सीटों का नुकसान पहुंचाने की हालत में है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी विधानसभा चुनाव हार चुकी है. पिछली बार पार्टी को इन राज्यों में अपनी सरकार होने के कारण प्रशासन के अपना होने का भी लाभ मिला था. हरियाणा में भी पार्टी की सरकार रही है और विपक्षी पार्टियां अब बेहतर हालत में हैं. मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती इन दस राज्यों की 171 सीटों पर अपना प्रदर्शन दोहराने की होगी.

इन 171 सीटों पर मोदी के लिए सीटें कायम रखना ही सबसे बड़ी चुनौती है. लेकिन उपर दिए गए हालात में मोदी के लिए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, दिल्ली, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल में पार्टी के लिए सीटें फिर से हासिल करना करीब-करीब असंभव है.

मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती इन दस राज्यों की 171 सीटों पर अपना प्रदर्शन दोहराने की होगी.

मोदी की जगह...

2019 के चुनाव में पीएम मोदी के पक्ष में परसेप्शन या कहें कि उनकी छवि विजेता वाली है. लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो पीएम मोदी के लिए 2019 के चुनाव में सिरदर्द बनी हई हैं. मार्केटिंग के दिग्गजों का कहना है कि ये गलतियां बेहद खतरनाक हो सकती हैं.

दस राज्यों में सिर्फ खोने को है

2014 की लहर में पीएम मोदी ने दस राज्यों में 100 फीसदी सीटें पायी थीं. इन राज्यों में दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ समेत कई बड़े राज्य हैं. मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में भी पार्टी के पास अधिकांश सीटें हैं. मध्यप्रदेश में कुल 2 सीटें पूर्ण संख्या से कम हैं. मोदी सरकार को अगर फिर से सरकार बनानी है तो पिछली बार का प्रदर्शन कम से कम 12 राज्यों में दोहराना होगा. इन राज्यों में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी का गठबंधन है जो पार्टी को कम से कम 30 से 35 सीटों का नुकसान पहुंचाने की हालत में है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी विधानसभा चुनाव हार चुकी है. पिछली बार पार्टी को इन राज्यों में अपनी सरकार होने के कारण प्रशासन के अपना होने का भी लाभ मिला था. हरियाणा में भी पार्टी की सरकार रही है और विपक्षी पार्टियां अब बेहतर हालत में हैं. मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती इन दस राज्यों की 171 सीटों पर अपना प्रदर्शन दोहराने की होगी.

इन 171 सीटों पर मोदी के लिए सीटें कायम रखना ही सबसे बड़ी चुनौती है. लेकिन उपर दिए गए हालात में मोदी के लिए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, दिल्ली, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल में पार्टी के लिए सीटें फिर से हासिल करना करीब-करीब असंभव है.

मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती इन दस राज्यों की 171 सीटों पर अपना प्रदर्शन दोहराने की होगी.

मोदी की जगह कोई और पीएम

लगातार ये प्रचार किया जा रहा है कि बीजेपी के पास सीटें कम होने की हलात में नरेन्द्र मोदी की जगह कोई और बीजेपी का पीएम कैंडीडेट होगा. कल शरद पवार ने बाकायदा इस बारे में बयान भी दिया. उन्होंने कहा कि पीएम कोई और होगा. इसके पीछे ये तर्क भी है कि मोदी जी के नाम पर समर्थन देने को कोई और दल आसानी से तैयार नहीं होगा.

बीजेपी के पास पीएम मोदी प्रधानमंत्री का ब्रांड है. वोटर के मन पर अगर ये प्रचार असर डालता है तो बीजेपी के बड़े वोटर वर्ग का मोहभंग हो सकता है. ये वो लोग हैं जो सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के कारण पार्टी को वोट देने वाले हैं. अगर ये तबका पार्टी से दूर होता है तो फिर उसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा.

मोदी के भाषणों का बासीपन

2014 में पीएम मोदी के भाषण सुपरहिट हुआ करते थे लेकिन इन पांच सालों में लगातार उनके टीवी पर आने और भाषण देने के कारण अब मोदी ओवरकिल होने लगे हैं. उनकी शैली, उनका अंदाज़ और उनके मुद्दे करीब-करीब दोहराव वाले हैं. इस चुनाव के दौरान पीएम मोदी दिन में पांच भाषण देंगे. इतने भाषण उबाऊ हो सकते हैं और निष्प्रभावी भी.

एक्सपर्ट मुकुल कहते हैं कि कितनी भी सुपरहिट फिल्म हो, लेकिन आप उसे आप दो-चार बार तो देख सकते हैं लेकिन 100 बार नहीं देख सकते. पीएम मोदी के भाषणो में जो बातें कही जा रही हैं वो भी कम से कम 100 बार कही जा चुकी हैं और लाखों बरा सोशल मीडिया पर दोहरायी जा चुकी हैं. ऐसी हालत में उनके भाषणों को टीवी चैनल भी लाइव दिखाने में परहेज करेंगे. क्योंकि उनकी टीआरपी पर इससे बुरा असर पड़ता है.

नरेंद्र मोदी की भाषण शैली, उनका अंदाज और उनके मुद्दे अब रीपीट हो रहे हैं, नयापन नहीं दिखता

जनता से जुड़े मुद्दों पर कमजोरी

आम जनता से जुड़े आर्थिक मुद्दे जैसे नौकरियां, व्यापार के अवसरों की कमी, जीएसटी से होने वाली दिक्कतें, महंगाई के फ्रंट पर सरकार ज्यादा कुछ करने में कामयाब नहीं हुई है. छोटे ठेकेदारों का काम बंद करके उसे बड़ी कंपनियों को देने से भी असंतोष बढ़ा है. इन मुद्दों पर सरकार का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा. किसानों के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां कर्ज माफी जैसे लुभावने वादे और उन्हें पूरा करने के दावे लेकर खड़ी हैं. किसानों की आत्महत्या भी एक मुद्दा है.

इस बीच पार्टी के पास भावनात्मक मुद्दे हैं, मंदिर, देशभक्ति, और विपक्ष पर आरोपों के आधार पर पार्टी लड़ रही है. ये मुद्दे उस वर्ग पर असर डालने में नाकाम रहे हैं जो सोशल मीडिया से दूर है.

सोशल इंजीनियरिंग

पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग में हिंदू बहुसंख्यक वोट बैंक है. लेकिन इस वोट बैंक को एकजुट रखना मुश्किल रहा है और पार्टी में दलित और सवर्ण की खाई गहरी है. अनुसूचित जातियों के उत्पीड़न कानून को लेकर उंची जातियां पार्टी से नाराज़ हो गईं. उधर इसके विरोध में चले आंदोलन के दौरान देश में कई जगहों पर दलितों के खिलाफ हिंसा हुई. इसका नतीजा ये हुआ कि दलित पार्टी से दूर हो गए. सवर्णों को साधने की कोशिश में पार्टी के नेता उनके आंदोलन मे शामिल हो गए. इससे दलितों से पार्टी की दूरी बढ़ गई. इस बीच मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग के आरक्षण को 14 से 27 फीसदी करने का दांव चलकर सीएम कमलनाथ ने भी पार्टी की हिंदू एकता को नुकसान पहुंचाया है. उत्तर प्रदेश में पिछड़ा और दलित गठबंधन पार्टी के लिए चुनौती बना है. गुजरात में पाटीदार जो परंपरागत रूप से अब बीजेपी से दूर जा सकते हैं. पाटीदारों के मजबूत नेता हार्दिक पटेल ने गुजरात में कांग्रेस की सदस्यता हासिल कर ली है.

आत्मघाती गलतियां

नोटबंदी के दौरान देश के हर नागरिक के पास कुछ बुरे अनुभवों की यादें हैं. कुछ ने महंगा सामान खरीदा, कुछ को भूखा सोना पड़ा तो कुछ को घंटों लाइनों में लगकर भी जरूरत के लिए पैसे नहीं मिले. व्यापारियों ने भी इस दौरान लूट मचाई. देश भर में इस मुद्दे पर माहौल बना है. जिस नोटबंदी को सरकार बड़े क्रांतिकारी कदम के तौर पर सामने लाई थी अब उसका नाम भी नहीं ले रही है. ये भी साफ हो गया है कि नोटबंदी खुद पीएम ने अपनी जिद पर की थी. उन्हें RBI ने बताया था कि इससे कालाधन खत्म नहीं होगा, जाली नोट पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा और अर्थ व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी. इसके बावजूद उन्होंने नोटबंदी की.

GST को लेकर व्यापारियों को काफी परेशानी हुई, कई चीज़ें महंगी हो गईं. बाद में पार्टी को जीएसटी की दरें कम करनी पड़ीं और नियमों को ढीला करना पड़ा. इससे भी फजीहत हुई.

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल के दाम घटने पर सरकार ने बार बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई लेकिन दाम कम हुए तो उसे घटाया नहीं. इससे पेट्रोल काफी महंगा हुआ और ये मुद्दा बड़ा बन गया.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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