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2019 के चुनावों में भाजपा की हार पर मुहर लगाएंगे यूपी और महाराष्ट्र

    • मिन्हाज मर्चेन्ट
    • Updated: 22 मार्च, 2018 10:24 PM
  • 22 मार्च, 2018 10:24 PM
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सिर्फ इन दोनों ही राज्यों से लोकसभा की 128 सीटें आती हैं. भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने इन 128 सीटों में से 114 सीटें जीती थी. अब यही दोनों बड़े राज्य पीएम मोदी की दूसरी पारी के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं.

2019 के लोकसभा चुनावों का नतीजा दो राज्य मिलकर तय करेंगे- उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र. सिर्फ इन दोनों ही राज्यों से लोकसभा की 128 सीटें आती हैं. भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने इन 128 सीटों में से 114 सीटें जीती थी. अब यही दोनों बड़े राज्य पीएम मोदी की दुसरी पारी के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं.

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच के गठबंधन का गणित अनूठा है. दोनों पार्टियां यादवों, जाटव दलितों और मुस्लिमों को मिलाकर में राज्य के 50 प्रतिशत वोट पर कब्जा जमाते हैं. 2014 में, भाजपा ने राज्य की 80 सीटों में से 71 सीटें जीती थी. इसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटों पर जीत हासिल की थी. बसपा का सफाया हो गया था. सपा ने पांच "परिवार" वाली सीटें जीती थी और कांग्रेस को रायबरेली (सोनिया गांधी) और अमेठी (राहुल गांधी) की दो पुश्तैनी सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

गोरखपुर और फुलपुर उपचुनावों में जीत के बाद सपा-बसपा लोकसभा में साथ जाने के लिए आश्वस्त नजर आ रहे हैं. दोनों के बीच की पुरानी शत्रुता धुल चुकी है. कांग्रेस, सपा-बसपा गठबंधन के साथ जाएगी ताकि बीजेपी विरोधी का बंटवारा न हो जाए.

बुआ बबुआ की जोड़ी 2022 को नहीं खींच पाएगी

दूसरा कारक है सपा और बसपा के बीच वोटों का बंटवारा. जरुरी नहीं कि दोनों का वोट ट्रांसफर होगा ये जरुरी नहीं है क्योंकि दोनों ही दलों के बीच की कटुता अभी भी बरकरार है. ऐसे में दोनों दल एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

तीसरा कारक है दोनों दलों की एकता का उल्टा पड़ना. राज्य के लोग सपा और बसपा को चिरप्रतिद्वंदी के रुप में देखते हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठबंधन किया है. मतदाता जानते हैं कि 2019 का सपा-बसपा-कांग्रेस गठबंधन 2022 के विधानसभा चुनावों में काम नहीं आएगा. न तो...

2019 के लोकसभा चुनावों का नतीजा दो राज्य मिलकर तय करेंगे- उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र. सिर्फ इन दोनों ही राज्यों से लोकसभा की 128 सीटें आती हैं. भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने इन 128 सीटों में से 114 सीटें जीती थी. अब यही दोनों बड़े राज्य पीएम मोदी की दुसरी पारी के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं.

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच के गठबंधन का गणित अनूठा है. दोनों पार्टियां यादवों, जाटव दलितों और मुस्लिमों को मिलाकर में राज्य के 50 प्रतिशत वोट पर कब्जा जमाते हैं. 2014 में, भाजपा ने राज्य की 80 सीटों में से 71 सीटें जीती थी. इसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटों पर जीत हासिल की थी. बसपा का सफाया हो गया था. सपा ने पांच "परिवार" वाली सीटें जीती थी और कांग्रेस को रायबरेली (सोनिया गांधी) और अमेठी (राहुल गांधी) की दो पुश्तैनी सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

गोरखपुर और फुलपुर उपचुनावों में जीत के बाद सपा-बसपा लोकसभा में साथ जाने के लिए आश्वस्त नजर आ रहे हैं. दोनों के बीच की पुरानी शत्रुता धुल चुकी है. कांग्रेस, सपा-बसपा गठबंधन के साथ जाएगी ताकि बीजेपी विरोधी का बंटवारा न हो जाए.

बुआ बबुआ की जोड़ी 2022 को नहीं खींच पाएगी

दूसरा कारक है सपा और बसपा के बीच वोटों का बंटवारा. जरुरी नहीं कि दोनों का वोट ट्रांसफर होगा ये जरुरी नहीं है क्योंकि दोनों ही दलों के बीच की कटुता अभी भी बरकरार है. ऐसे में दोनों दल एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

तीसरा कारक है दोनों दलों की एकता का उल्टा पड़ना. राज्य के लोग सपा और बसपा को चिरप्रतिद्वंदी के रुप में देखते हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठबंधन किया है. मतदाता जानते हैं कि 2019 का सपा-बसपा-कांग्रेस गठबंधन 2022 के विधानसभा चुनावों में काम नहीं आएगा. न तो मायावती और न ही अखिलेश यादव अपनी मुख्यमंत्री की दावेदारी छोड़ने के लिए तैयार होंगे. अगर 2019 के लोकसभा चुनावों के समय का ये गठबंधन सिर्फ मोदी को रोकने के लिए बना है तो बहुत मुमकिन है कि इससे ब्राह्मण, ठाकुर और ओबीसी वोट एकजुट होकर भाजपा की तरफ चला जाए.

लेकिन फिर भी 2019 के मुकाबले भाजपा को सीटों की संख्या में बहुत नुकसान होने वाला है. गोरखपुर उपचुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनावों के 52 से घटकर 47 हो गया था. वहीं सपा-बसपा गठबंधन का वोट शेयर 49 प्रतिशत रहा था जिसके बल पर उन्होंने 21,000 वोटों से भाजपा को मात दी.

जवाहर लाल नेहरु की पुरानी लोकसभा सीट फुलपुर में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने में आया. 2014 में जब सपा और बसपा अलग अलग लड़ रहे थे तो भाजपा ने 52.5 प्रतिशत वोटों के साथ जीत दर्ज की थी. लेकिन पिछले हफ्ते आए उपचुनाव के नतीजे में बसपा-सपा गठबंधन के सामने भाजपा का वोट शेयर 39 प्रतिशत रह गया था. 47 प्रतिशत वोट शेयर के साथ इस सीट पर सपा-बसपा गठबंधन ने 60,000 वोटों से जीत दर्ज की.

लेकिन अकेले उत्तरप्रदेश ही भाजपा की चिंता का कारण नहीं है. महाराष्ट्र में 48 लोकसभा सीटें हैं. 2014 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने 41 सीटें जीती थी. बीजेपी-23 और शिवसेना-18. शिवसेना के साथ रिश्तों में खटास आने के बाद राज्य में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है. शिवसेना के कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर पूरे राज्य में फैले हैं. ये चुनाव में भाजपा की मुश्किलें बढ़ा सकती है. इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस भाजपा के खिलाफ शिवसेना के तानों को सुनकर भी अनसुना करने के लिए मजबूर हैं.

उद्धव ठाकरे किसी कीमत पर बीएमसी को अपने हाथ से नहीं जाने देंगे

बीएमसी में अपनी पकड़ को लेकर भी शिव सेना चिंता में है. बीएमसी देश की सबसे अमीर नागरिक निकाय है. यहां तक की इसका सलाना बजट कई राज्यों के बजट से ज्यादा है. बीएमसी में शिवसेना के 84 कॉर्पोरेट हैं और ये भाजपा के 82 कॉर्पोरेट के साथ काम करते हैं. अगर भाजपा की लहर चलती रही तो बीएमसी में शिवसेना उनके आगे बौनी साबित हो जाएगी. बीएमसी भारत के सबसे भ्रष्ट और निकम्मे म्युनसिपालटी में से एक है. इसलिए 2019 में सेना कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन बनाने के लिए तैयार है ताकि भाजपा को कमजोर किया जा सके.

वहीं पांच राज्यों में भाजपा का कांग्रेस से सीधा मुकाबला है- गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक. ये पांचों राज्य मिलकर 118 लोकसभा सीटें देती हैं. 2014 में भाजपा ने 118 में से 105 सीटें जीती थी. सत्ता विरोधी लहर को देखते हुए ये आंकड़े भी कम हो सकते हैं.

गणित बिल्कुल साफ है. सात राज्यों ने एनडीए को 2014 में अपनी 282 लोकसभा सीटों में से 219 सीटें दी: यूपी 73, महाराष्ट्र- 41, गुजरात- 26, राजस्थान- 25, मध्य प्रदेश- 27, छत्तीसगढ़- 10 और कर्नाटक- 17. इन सात राज्यों में होने वाले नफा और नुकसान दूसरी पारी के लिए मोदी की जीत या हार तय करेंगे.

उत्तर-पूर्व, ओडिशा और दक्षिण में एनडीए को जो सीटें मिलेंगी वो सिर्फ सपोर्ट का काम करेंगी. लेकिन अभी तक यूपी और महाराष्ट्र की अगुवाई में करीब सात प्रमुख राज्यों में नुकसान के भारपाई के लिए वो पर्याप्त नहीं हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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