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चुनाव आत्मा की शुद्धिकरण का महायज्ञ भी है...

    • सर्वेश त्रिपाठी
    • Updated: 14 जनवरी, 2022 03:29 PM
  • 14 जनवरी, 2022 03:26 PM
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भारत में चुनाव सिर्फ चुनाव भर नहीं होते बल्कि ये आत्मा की शुद्धि करने वाला आयोजन भी होते हैं. जैसे ही चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की वैसे ही तमाम राजनेताओं की आत्मा आचार संहिता का पालन करते हुए अपने शाश्वत साक्षी भाव को त्यागकर एक्टिव मोड में आ गई है.

चुनाव तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मेला है. अपने यहां जैसे ही चुनाव की घोषणा होती है उससे पहले चुनावी घोषणापत्र के पहले आत्मा की घोषणाएं शुरू हो जाती है. कभी कभी अपुनइच को फील होता है कि अपने मुलुक में भाई साब चुनाव सिर्फ चुनाव भर नहीं होते आत्मा की शुद्धि का महायज्ञ भी होते हैं. अब जैसे ही चुनाव आयोग ने अपने उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की वैसे ही तमाम राजनेताओं की आत्मा आचार संहिता का पालन करते हुए अपने शाश्वत साक्षी भाव को त्यागकर एक्टिव मोड में आ गई. चुनाव के मौसम में बड़ी खबर आई कि पूर्व में बसपा के कद्दावर नेता लेकिन वर्तमान के भाजपा सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने जो पिछले चुनाव में चुनाव से ठीक पहले जिस आत्मा की आवाज़ पर बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामा था, आज उसी आत्मा की आवाज़ पर साइकिल की सवारी गांठ लिए.

कितना अच्छा लगता है न कि दिल, लीवर, किडनी की तरह अपने नेताओं की आत्मा भी कितनी स्वस्थ और सक्रिय है. बाकी बॉस कोरोना है इसीलिए फेफड़ो का जिक्र न करूंगा. पता नही कब कोविड का कौन सा नया वैरिएंट लांच होकर आत्मा की भी हवा टाइट कर दे. यह एक अलग बात है कि अपने देश में चुनावों से तो कोविड की भी हवा टाइट ही रहती है.

देश में चुनाव के तमाम पक्ष हैं उन्हीं में से एक है इस दौरान जनता को खूब सारे ज्ञान की प्राप्ति होना 

एक सच बात कहूं, मेरा हमेशा से ही मानना है कि राजनीति बहुत गंभीर पेशा है. इतना गंभीर है कि इस पेशे में कब कहां और कैसे किसी माननीय की आत्मा पिघल जाए या बदल जाए खुद माननीय जी भी न समझ पाएं. अब तो चौधरी अजीत सिंह और रामविलास जी इस दुनियां में नही रहे अन्यथा उनसे बढ़कर अपनी आत्मा की आवाज़ को कौन बेहतर तरीके से समझ और सुन पाता था.

ख़ैर हम जैसे साधारण मनुज के...

चुनाव तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मेला है. अपने यहां जैसे ही चुनाव की घोषणा होती है उससे पहले चुनावी घोषणापत्र के पहले आत्मा की घोषणाएं शुरू हो जाती है. कभी कभी अपुनइच को फील होता है कि अपने मुलुक में भाई साब चुनाव सिर्फ चुनाव भर नहीं होते आत्मा की शुद्धि का महायज्ञ भी होते हैं. अब जैसे ही चुनाव आयोग ने अपने उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की वैसे ही तमाम राजनेताओं की आत्मा आचार संहिता का पालन करते हुए अपने शाश्वत साक्षी भाव को त्यागकर एक्टिव मोड में आ गई. चुनाव के मौसम में बड़ी खबर आई कि पूर्व में बसपा के कद्दावर नेता लेकिन वर्तमान के भाजपा सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने जो पिछले चुनाव में चुनाव से ठीक पहले जिस आत्मा की आवाज़ पर बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामा था, आज उसी आत्मा की आवाज़ पर साइकिल की सवारी गांठ लिए.

कितना अच्छा लगता है न कि दिल, लीवर, किडनी की तरह अपने नेताओं की आत्मा भी कितनी स्वस्थ और सक्रिय है. बाकी बॉस कोरोना है इसीलिए फेफड़ो का जिक्र न करूंगा. पता नही कब कोविड का कौन सा नया वैरिएंट लांच होकर आत्मा की भी हवा टाइट कर दे. यह एक अलग बात है कि अपने देश में चुनावों से तो कोविड की भी हवा टाइट ही रहती है.

देश में चुनाव के तमाम पक्ष हैं उन्हीं में से एक है इस दौरान जनता को खूब सारे ज्ञान की प्राप्ति होना 

एक सच बात कहूं, मेरा हमेशा से ही मानना है कि राजनीति बहुत गंभीर पेशा है. इतना गंभीर है कि इस पेशे में कब कहां और कैसे किसी माननीय की आत्मा पिघल जाए या बदल जाए खुद माननीय जी भी न समझ पाएं. अब तो चौधरी अजीत सिंह और रामविलास जी इस दुनियां में नही रहे अन्यथा उनसे बढ़कर अपनी आत्मा की आवाज़ को कौन बेहतर तरीके से समझ और सुन पाता था.

ख़ैर हम जैसे साधारण मनुज के लिए राजनीति गंभीर पेशा क्या गंभीर इच्छा भी नहीं हो सकती. वर्तमान के धनबल और बाहुबल के बढ़ते रोल में दबी कुचली इच्छाएं अगर एफिल टावर पर चढ़कर खोजे तब भी कोई स्कोप दूर दूर तक नज़र न आए. 'हाउ डर्टी मैंगो पीपल वी आर.' 

इच्छाएं पूरी भी कैसे हों भाई? वैसे भी राजनीति की सबसे बड़ी और प्राथमिक शर्त हम आज तक पूरी न कर पाए. ढपोरशंख की तरह आत्मा के अजर अमर होने के मंत्र तो खूब पढ़े, लेकिन आत्मा की शुद्धिकरण और उसकी आवाज़ सुन कर उसे हांकने वाली विद्या आज तक सीख ही नहीं सके. काश कोई यमराज जी टाइप का गुरुदेव हमें भी नचिकेता की तरह 'आत्मानं रथिनं विद्धि' यानि आत्मा के रथी यानि मालिक मुख्तियार तुम ही हो समझा देता.

सही कहें तो हमें इस बात का बहुत भीषण टाइप का कष्ट होता है कि इलेक्शन के ठीक पहले मौका मुकाम की नब्ज़ पर चित्कार करती आत्मा हमें क्यों न नसीब हुई? ससुरा कॉमन मैन भी होते तब भी सही था कम से कम आत्मा की आवाज़ मफलर टोपी पहन कर एकाध पर कुर्सी तो कब्ज़ा ही लेती. लेकिन फिर वही बात आख़िर अपनी डर्टी मैंगो पीपल वाली ब्रीड जो है.

ख़ैर ईश्वर से प्रार्थना है कि, 'अगले जनम में मोहे ऐसी आत्मा दीजो' जो समय समय पर चित्कार कर सके. ख़ासतौर से इलेक्शन से पहले तो ज़रूर ही करे. ताकि हम जैसे तुच्छ प्राणी भी मौका मुकाम की राजनीति कर सके और उसकी मलाई भी सपरिवार सात पीढ़ियों तक काट सके.

वैसे तो ज्ञानी जन के अनुसार आत्मा दुनियां के तमाम विकारों के बीच विशुद्ध साक्षी भाव से सच्चिदानंद बनी बैठी है लेकिन कम से कम मेरे लिए इतना तो कस्टमाइज हो ही जाए कि हवा का रुख भांप कर राजयोग का मार्ग प्रशस्त कर सके... बाकी तो राम जी मालिक है ही!

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बस डर है कि 'विमल' के दाने-दाने जैसी 'केसरी' न हो जाए अपने कानपुर की मेट्रो! 

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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