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दिल्ली शहर में म्हारो ट्रैक्टरो जो घुम्यो, हां घुम्यो!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 31 जनवरी, 2021 02:20 PM
  • 31 जनवरी, 2021 02:20 PM
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किसान आंदोलन (Farmer Protest) के नाम पर हुई हिंसा के बाद तमाम लानत-मलानत ट्रैक्टर को झेलनी पड़ रही है. लेकिन कभी उस भोले प्राणी की आंखों में झांका? अरे, बचपन से ही जो मिट्टी में खेलता रहा, जिसकी खेतों से यारियां रहीं, शहर में पांव धरते ही उसकी तमन्नाएं जरा सी भी न मचलेंगीं क्या?

सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे ट्रैक्टर कहते हैं. वैसे उससे भूल ही क्या हुई थी? कब किसी ने सोचा था कि उसे यूँ किसी आंदोलन का हिस्सा बना दिया जाएगा. अपना संस्कारी बालक तो सदियों से दो बड़े, दो छोटे बेमेल पहियों के साथ भी जी ही रहा था न. क्या उसने एक बार भी शिकायत की कि पप्पा, हमको भी ट्रक के जैसे पहिये दिला दो न? खेतों पर चहलकदमी करते हुए उसने कई बार नजदीक से गुजरते हाईवे पर फर्राटा गाड़ियों को देखा. लेकिन कभी उन सड़कों पर चलने की ट्रैक्टर ने जिद न की. चुपचाप खेतों में अपना काम करता रहा. 'लाल किले पर गया ट्रैक्टर' कहकर आपने तो हाय तौबा मचा रखी है लेकिन कभी उस भोले प्राणी की आंखों में झांका? अरे, बचपन से ही जो मिट्टी में खेलता रहा. खेतों से यारियां रखने वाला ट्रैक्टर डीज़ल के लिए भी शहर की देहरी पर न गया. लेकिन, जब शहर में ले ही आया गया तो यहां पांव धरते ही उसकी तमन्नाएं जरा सी भी न मचलेंगीं क्या? लेकिन देखिये कि इस समय देश में सबसे ज्यादा बद्दुआयें जिसके हिस्से आ रहीं हैं वो 'ट्रैक्टर' ही है.

ट्रैक्टर को हथियार बनाकर कुछ यूं दिल्ली में किसानों ने तोड़फोड़ को अंजाम दिया

आख़िर होता ही क्या है एक मासूम ट्रैक्टर के पास? वाहनों में सबसे दीन-हीन प्रजाति बनाकर वैसे ही उपेक्षित रख छोड़ा है उसे. न AC है, न पॉवर स्टीयरिंग. कड़क सी सीट है, वो भी अकेली. एकदम सौतेला बनाकर रख दिया था उसे. इससे भी जी न भरा तो भीष्म पितामह वाला फ़ील भी दिया गया उसको. सस्पेंशन के नाम पर नीचे भाले लगा दिए कि बेटा झेल. मिट्टी में सना पड़ा रहा, गाय भैंसों के आसपास खड़ा रहा. सर्विसिंग के नाम पर कुएं के पानी से नहला दिया गया.

लेकिन वो तब भी अपनी गरीबी, फटेहाली को भुला मस्त रहा. बोनट के ऊपर लगे साइलेंसर से अपनी फ्रिक्र को धुएं में उड़ाता रहा. अब वक़्त...

सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे ट्रैक्टर कहते हैं. वैसे उससे भूल ही क्या हुई थी? कब किसी ने सोचा था कि उसे यूँ किसी आंदोलन का हिस्सा बना दिया जाएगा. अपना संस्कारी बालक तो सदियों से दो बड़े, दो छोटे बेमेल पहियों के साथ भी जी ही रहा था न. क्या उसने एक बार भी शिकायत की कि पप्पा, हमको भी ट्रक के जैसे पहिये दिला दो न? खेतों पर चहलकदमी करते हुए उसने कई बार नजदीक से गुजरते हाईवे पर फर्राटा गाड़ियों को देखा. लेकिन कभी उन सड़कों पर चलने की ट्रैक्टर ने जिद न की. चुपचाप खेतों में अपना काम करता रहा. 'लाल किले पर गया ट्रैक्टर' कहकर आपने तो हाय तौबा मचा रखी है लेकिन कभी उस भोले प्राणी की आंखों में झांका? अरे, बचपन से ही जो मिट्टी में खेलता रहा. खेतों से यारियां रखने वाला ट्रैक्टर डीज़ल के लिए भी शहर की देहरी पर न गया. लेकिन, जब शहर में ले ही आया गया तो यहां पांव धरते ही उसकी तमन्नाएं जरा सी भी न मचलेंगीं क्या? लेकिन देखिये कि इस समय देश में सबसे ज्यादा बद्दुआयें जिसके हिस्से आ रहीं हैं वो 'ट्रैक्टर' ही है.

ट्रैक्टर को हथियार बनाकर कुछ यूं दिल्ली में किसानों ने तोड़फोड़ को अंजाम दिया

आख़िर होता ही क्या है एक मासूम ट्रैक्टर के पास? वाहनों में सबसे दीन-हीन प्रजाति बनाकर वैसे ही उपेक्षित रख छोड़ा है उसे. न AC है, न पॉवर स्टीयरिंग. कड़क सी सीट है, वो भी अकेली. एकदम सौतेला बनाकर रख दिया था उसे. इससे भी जी न भरा तो भीष्म पितामह वाला फ़ील भी दिया गया उसको. सस्पेंशन के नाम पर नीचे भाले लगा दिए कि बेटा झेल. मिट्टी में सना पड़ा रहा, गाय भैंसों के आसपास खड़ा रहा. सर्विसिंग के नाम पर कुएं के पानी से नहला दिया गया.

लेकिन वो तब भी अपनी गरीबी, फटेहाली को भुला मस्त रहा. बोनट के ऊपर लगे साइलेंसर से अपनी फ्रिक्र को धुएं में उड़ाता रहा. अब वक़्त ने उसे दिल्ली की सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया तो दरद होने लगा सबको. और ऐसा दर्द कि बर्दाश्त ही न हो पा रहा जी. कितने दोग़ले लोग हो यार कि सारा क्रेडिट अन्नदाता को और लानत-मलानत ट्रैक्टर की. भई, वाह! आप तो बम्पर ताली के हक़दार हैं जी.

बताइए, इतनी दूर से चलकर आया और आप कहते हैं कि 'सड़क किनारे चुपचाप खड़े रहो.' मतलब वो वही खेत देखता रहे, जिनसे उकताकर थोड़े चेंज के लिए वह घर से निकल भागा? ये कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्ट न कर रहे आप उससे? आई मीन, टू मच हो गया है ये तो. अब ये आप पर है कि आप इसे मासूम के पक्ष में दलील समझें या बिना शर्त माफ़ीनामा.

लेकिन बीते दिनों की घटनाओं के बाद ट्रैक्टर की जो बेइज़्ज़ती हुई है उससे वह भारी दुःख में भर गया है. बेचारा, बस एक दिन के लिए तो दिल्ली आया था, चाह रहा था कि पूरी राजधानी देख ले. हमारा फ़र्ज़ बनता था कि उसे पूरे शहर की सैर कराते. लेकिन पुलिसवालों ने बैरिकेड लगा दिए. किसी को भी गुस्सा आ जाएगा. अब देखो न, अति उत्साह में अपने गांव का छोरा नाहक ही बदनाम हो गया.

आपको लगता है कि Tractor ने बदला character लेकिन एक बार भी सोचा कि उसका दिल कितनी बार रोया होगा? देखिए बेचारा कल से 'हम बेवफ़ा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके' गुनगुना रहा है. समय किसी को क्या से क्या बना देता है, साब! सोचने वाली बात ये भी है कि जिन्होंने ट्रैक्टर परेड की इजाजत दी, उनको देखना चाहिए था कि ये नन्हा फ़रिश्ता, शहर में चल पाएगा या नहीं.

सम्बंधित विभाग के अधिकारियों को राजधानी की चकाचौंध में उसके खो जाने का अंदेशा क्यों न हुआ पहले से ? भूल गये क्या बचपन के उस मेले को जिसमें लाल शर्ट और काली निक्कर पहने, खोया हुआ बच्चा पुलिस चौकी के पास पछाड़े खाता मिलता है. बस, डिट्टो ऐसे ही ये भोलू भी पाया गया. रास्ता भटक गया था तो लोगों ने उसे किले के पास पहुंचा दिया.

सबको पता था कि पुलिस उधरिच मिलेगी और इसे घर भिजवाने में दिल से सहायता भी करेगी. गांव में तो अलाव भी था. वहां सड़क किनारे बेचारा कडाके की सर्दी में ठिठुरता रहा. क्या पता, धूप सेंकने ही निकल गया होगा मेरा बच्चा. अब कोरोना काल में विटामिन-डी की महत्ता से तो आप भी इंकार नहीं कर सकते.

वो मासूम अभी अपने दुःख से बाहर निकलने का रास्ता खोज ही रहा था कि गांव से ट्रॉली मेम का कॉल आ गया. उन्होंने अलग ही लेवल का गदर मचा रखा है. इस मासूम के ज़ख्मों पर रुई का ठंडा फाहा रखने की बजाय, नमक नींबू निचोड़ एकदम मसलकर रख दिया है, बेचारे को.

सरसों के खेत में, धूप लेते हुए अपने चीनी मोबाइल से उन्होंने जो कड़वे स्वर निकाले हैं न कि भगवान बचाए ऐसी ट्रॉलियों से. कह रहीं हैं, 'पिताजी ठीक ही कहत रहे. बिना ट्रॉली वाला ट्रैक्टर छुट्टा सांड हो जाता है. वो का कहत हैं 'Men will be men.' तुमऊ शहर में जाके बैसे ही हो गए हो जी". अब उधर वो घूंघट में लजाय रहीं, इधर ये मारे गिल्ट के लज्जित खड़े हैं.

वैसे ये तो हमें भी लग रहा कि ट्रॉली साथ होती तो ट्रैक्टर को समझा बुझाकर घर ले आती और उसकी देश भर में यूं दुर्गति न हो रही होती. अब अकेले प्राणी को बहकने में समय ही कितना लगता है. लेकिन इन भटके हुए राहगीरों को कौन समझाए कि गृहस्थी की गाड़ी कभी अकेले चली है भला? देखो, जाकर नाक कटा आए न.

दुनिया ग़वाह है कि जैसे बिना डोर के पतंग या कि बिना बोगी के इंजन का कोई अस्तित्व नहीं, ठीक वैसे ही बिना ट्रॉली का ट्रैक्टर पूर्णतः औचित्यहीन है. अकेला जाएगा तो कुसंगति में पड़कर आवारागर्दी ही तो करेगा. मैं तो उस इंसान को भी ढूंढ रही हूं जिसने बिना ट्रॉली के ट्रैक्टर लाने की बात कही थी.

ये सब कुछ उसी मनुष्य का किया धरा है. हमारे घर के बच्चे को बिगाड़ने का क्रूर इल्ज़ाम उस मानस के सिर पर तत्काल धरा जाए. ख़ैर. जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ. ट्रैक्टर तो हमेशा से ही उदार प्रकृति का रहा है. वर्षों से अपनी उंगलियों से धरती को सहलाता रहा है. बीज रोपने में मदद करता है कि देश का पेट भर सके.

इसके कोमल हृदय में कभी कोई बुरे विचार आए ही नहीं. ये क्यों किसी बैरिकेड को तोड़ेगा या किसी को कुचल ही देगा. एक दुःख है जो अब इसके सीने में टीस की तरह चुभता रहेगा। एक मलाल है जो हम सबको सदा रहेगा. ट्रैक्टर, दोष तेरा नहीं परिस्थितियों का है. तू एवीं बदनाम हो रहा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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