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आइए, अलग-अलग करेंसी नोट की बॉडी लैंग्‍वेज के बारे में जानते हैं...

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 02 नवम्बर, 2017 11:25 AM
  • 02 नवम्बर, 2017 11:25 AM
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अस्सी रूपये किलो टमाटर का भाव सुनकर उनको दिल का दौरा पड़ते-पड़ते रहा था. साठ रु. किलो सेब और अस्सी रु किलो टमाटर? सब्जीवाले ने मुस्कुराकर कहा थाः सब्जी में सेब तो नहीं डालिएगा भिया.

बहुत दिनों के बाद ऐसा हुआ था कि मैं आराम से सुस्ताने के मूड में था और गुड्डू भैया लड़खड़ाते हए भागे जा रहे थे. मैंने उनको रोकने की कोशिश की, अरे गुड्डू भैया, कहां लपके निकल रहे हो?

गुड्डू रूकने के मूड में नहीं थे. बोले, देखो आज नवंबर शुरू हो गया और 8 तारीख आने में ज्यादा दिन नहीं है. अभी वॉट्सऐप पर किसी ने संदेशा भेजा है कि 8 तारीख को पता नहीं हुजूरेवाला का क्या मूड हो. सो अभी घर में जितने नोट हों सबको बदल द्यो.

मुझे हंसी आ गईः भिया, 500 और हजार के नोट तो बदल दिए. अब क्या बदलेंगे?

गुड्डू रुक गए. लगा कि अब तो कुछ बोलकर मानेंगे. बोले देख ठाकुर, शाम गहरा रही है, तू कुछ पिलाएगा तो कहें.

कहां तुम चले गए...

कहिए न भिया.

इयार, एक बात बताओ. सौ के नोट ने क्या बिगाड़ा है भला. और दो हजार के नोटों की भी जमाखोरी न हो गई होगी, पिछले एक साल में इसकी क्या गारंटी?

लेकिन भईया, नोटबंदी से तो फायदा ही हुआ होगा.

हां. नए नोट आ गए बाजार में. गुड्ड पल भर को रुके और फिर बोले. हर नोट की अपनी बॉडी लैंग्वेज होती है ठाकुर.

मैं चिंहुक उठा. लोगों की बॉडी लैंग्वेज के बारे में सुना था, नोटों की पहली बार सुन रहा था.

छरहरा 2000 के नोट में वो बात नहीं जो 1000 के नोट में थी

गुड्डू आगे बोलेः देखो, जो सबसे नया नोट है न दो हजार का. जरा गौर से देखना उसको. गुलाबी रंग, जैसे गुलाबी ठंडक. एक अजीब सी नजाकत है उसमें. एक हजार वाले नोट को याद करना तो पाओगे उसमें एक मर्दाना ठसक, एक गर्वीला हनक था. दो हजार के नोट में नहीं है यह, आज के जमाने...

बहुत दिनों के बाद ऐसा हुआ था कि मैं आराम से सुस्ताने के मूड में था और गुड्डू भैया लड़खड़ाते हए भागे जा रहे थे. मैंने उनको रोकने की कोशिश की, अरे गुड्डू भैया, कहां लपके निकल रहे हो?

गुड्डू रूकने के मूड में नहीं थे. बोले, देखो आज नवंबर शुरू हो गया और 8 तारीख आने में ज्यादा दिन नहीं है. अभी वॉट्सऐप पर किसी ने संदेशा भेजा है कि 8 तारीख को पता नहीं हुजूरेवाला का क्या मूड हो. सो अभी घर में जितने नोट हों सबको बदल द्यो.

मुझे हंसी आ गईः भिया, 500 और हजार के नोट तो बदल दिए. अब क्या बदलेंगे?

गुड्डू रुक गए. लगा कि अब तो कुछ बोलकर मानेंगे. बोले देख ठाकुर, शाम गहरा रही है, तू कुछ पिलाएगा तो कहें.

कहां तुम चले गए...

कहिए न भिया.

इयार, एक बात बताओ. सौ के नोट ने क्या बिगाड़ा है भला. और दो हजार के नोटों की भी जमाखोरी न हो गई होगी, पिछले एक साल में इसकी क्या गारंटी?

लेकिन भईया, नोटबंदी से तो फायदा ही हुआ होगा.

हां. नए नोट आ गए बाजार में. गुड्ड पल भर को रुके और फिर बोले. हर नोट की अपनी बॉडी लैंग्वेज होती है ठाकुर.

मैं चिंहुक उठा. लोगों की बॉडी लैंग्वेज के बारे में सुना था, नोटों की पहली बार सुन रहा था.

छरहरा 2000 के नोट में वो बात नहीं जो 1000 के नोट में थी

गुड्डू आगे बोलेः देखो, जो सबसे नया नोट है न दो हजार का. जरा गौर से देखना उसको. गुलाबी रंग, जैसे गुलाबी ठंडक. एक अजीब सी नजाकत है उसमें. एक हजार वाले नोट को याद करना तो पाओगे उसमें एक मर्दाना ठसक, एक गर्वीला हनक था. दो हजार के नोट में नहीं है यह, आज के जमाने में दो हजार का नोट आता है. छरहरी सी इसकी काया कब किधर खत्म हो जाती है पता नहीं चलता. महंगाई के मारे टिकती कहां है यह माया. तभी तो कबीर साहेब ने कहा थाः माया महाठगिनी हम जानी.

मुझे ख्याल आया कि दो हजार के नोट में एक किस्म का छरहरापन है. मादकता है. धन में तो वैसे भी मादकता है. लेकिन जिम जाने वाली कन्या की तरह यह पहले से अधिक चंचल हो गई है. जेब में टिकती ही नहीं. एक हजार रु. वाले नोट में ज्यादा स्थिरता थी. वह किसी उच्च शिक्षण संस्थान के प्रोफेसर की तरह था. मूंछों वाला कड़क प्रोफेसर.

मैंने बात आगे बढ़ाने की गरज से कहाः और अभी का पांच सौ का नोट दद्दा!

गुड्डू मुस्कुराएः यह न तुम जैसे क्लीन शेव्ड नौजवानों जैसा है. एकदम बैंक के प्रबंधकों की तरह शालीन. महंगाई की इस पार्टी में किसी कोने में खड़ा रहता है.सौ के नोट की तुम कॉलेज के छात्रों से तुलना कर लो. जो कहीं अपना असर डालने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन आखिर में हल्का-फुल्का शोर मचाने के बाद शांत बैठ जाते हैं.

शालीनता को चोला पहने ये नोट जम नहीं रहे

पचास का नोट उस लड़की की तरह है, जो मनचले छोकरों से डरी-सहमी घर से निकलती है. जमीन की तरफ ताकती हुई चलती है. गली के शोहदे उसे ट्यूशन तक पीछे छोड़कर आते हैं और वह शायद ही यह जान पाती है कि यह जो मेरे पीछे कुत्ते की तरह चलता है, मुझसे प्यार-व्यार टाइप कुछ करता है.

और ठाकुर, दस के नोटों के बारे में पूछियो ही मत. यह तो गली के वो छोकरे हैं जो बेबात खर्च हो जाते हैं. बच्चे इनको बड़ा मानते हैं और बड़े इनको बच्चा. यह बेचारा टेल एंडर की तरह आ जाता है और एक डॉट गेंद खेलने के बाद पगबाधा आउट हो जाता है. बेचारा दस.. सिक्का हो या नोट. दोनों की एक ही गति है.

मैं खुदरों की चर्चा नहीं करूंगा ठाकुर, आखिर दो हजार के दौर में सुनहरे पांच रु, दो रूपये और एक रूपये के सिक्कों को पूछता कौन है. इन सिक्कों की हालत जींस की जेब के ऊपर एक मिनी पॉकेट में पड़े रहने की होती है. रोहिंग्या शरणार्थियों से भी बुरी गत है इनकी.

सुनो ठाकुर, दो हजार का नोट अगर खंभा है तो पांच सौ टकिया अद्धा.. लेकिन सौ रूपये को तुम पव्वा मानने की भुल मत करना. अब तो उसमें पव्वा भी नहीं आता. पव्वे का जिक्र आते ही गुड्डू मरखने होने पर उतारू हो गएः नोटबंदी को बिसारने की कित्ती भी कोशिशें कर लो ठाकुर, लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जिनको एक धागे में पिरो दो तो पता चलेगा नोटबंदी पर सरकार की बेखुदी बेसबब नहीं थी. कुछ तो है जिसकी पर्दादारी थी. जब वित्त मंत्री कह चुके थे कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन मौजूद नहीं, तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा फैसला किस आंकलन पर आधारित था?

आर्थिक समीक्षा की बात तो मानोगे? इसके मुताबिक, करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.

समीक्षा ने निष्कर्ष निकाला था कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे, जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?

''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद तुम भी देख रहे हो. और सरकार ने भी माना कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुकसान हुआ.

मुझसे रहा नहीं गयाः लेकिन भैया, आंकड़ों के इस पेचीदा जाल में न फंसाइए. आखिर हमें नए किस्म के नोट तो देखने को मिले.

अब तो कोई हमें टमाटर ही फेंक कर मार दे!

नए नोट? नोटों की बात ही न करो. नोटबंदी के बाद तो हम तकरीबन नंगाझोली हो गए थे. घर में चिल्लर तक न बचे. गुल्लक फोड़कर रेजगारी जमा करके सब्जी खरीदी थी.

सब्जी से उनको याद आया भाभी जी ने उनको टमाटर खरीदने बाजार भेजा था और अस्सी रूपये किलो टमाटर का भाव सुनकर उनको दिल का दौरा पड़ते-पड़ते रहा था. साठ रु. किलो सेब और अस्सी रु किलो टमाटर? सब्जीवाले ने मुस्कुराकर कहा थाः सब्जी में सेब तो नहीं डालिएगा भिया.

सुनिएः

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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