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मटर कबाब बनाम मां को गोला देते आजकल के मॉडर्न बच्चे!

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 04 जनवरी, 2022 01:20 PM
  • 04 जनवरी, 2022 01:18 PM
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साल बदल रहें हैं. दशक बदल रहे हैं. लेकिन नए साल की मस्ती सालों साल नहीं बदली. आज भी नई पीढ़ी पुरानी को चक्रव्यूह में फंसकर गोला देने से बाज़ नहीं आती. 'नास्टैल्जिया की ट्रिप से गुज़रते हम अचानक 22 बरस के मुहाने पर खड़े हैं और एहसास हो रहा था की ये मां को गोला देने में लाल हमारे इक्कीस नहीं अब हम पर बाइस होने लगे हैं.'

नए साल की सुगबुगाहट हो रही है. न-न हमारे लिए कोई बैकग्राउंड में फ्लैशबैक मेमोरी म्यूजिक नहीं बजा रहा. वो तो बस बाजार की रौनक देख हर साल समझ आ ही जाता है. साल बदलता है, समय थोड़े ही. हम तो इसी से बेज़ार हैं की 50 रूपये किलो मटर ला कर उसका क्या क्या बना लें. मटर निमोना ,या कचौड़ी या कबाब! इसे ऐसी वैसी उलझन समझने की गुस्ताखी न करिये सर्दी में सरसों के साग बनाने, हलवे की गाजर कसने से भी ऊपर आता है ये. क्योंकि हील हुज्जत कर कर के 100 रूपये में ढाई किलो मटर जो हम ले आये उसे छीलने के लिए मजदूर तो मिलेंगे नहीं. अपना काम आउटसोर्स करने की कला कहां ही आई हम औरतों को? ऐसे में जब फटा पोस्टर निकला हीरो सा हमारी आंखों का लाल आ कर कहें कि,'अम्मा मटर हम छील देते हैं तुम धूप में लेट लो. थक जाती हो', तो अपने को संभालना पड़ता है. अरे ख़ुशी का इतना बड़ा झटका कैसे ही बर्दाश्त हो?

मां बाप के काम में हाथ बंटाकर अपना काम निकलवा ही लेते हैं आजकल के बच्चे

ये तो यूं लगा मानो सच में अच्छे दिन आ गए. नहीं गलत मत समझिये अच्छे दिन तो हैं ही. कानपुर में मेट्रो चल गई तो और अब क्या ही होगा लेकिन ये? उन्नीस से बीस में झूलते साहबज़ादे हमारी मटर छीलने का बिल प्रोपोज़ किये. अब इस बिल पर गौर तो करना होगा. औने पौने ला कर वापस लेने का मतलब ही क्या? तो वो मटर का झोला, छिलका रखने को अलग लिफाफा, मटर रखने को अलग परात ले कर ज्यों ही बैठा बाई गॉड की कसम अपने ऊपर रश्क हुआ क्या मैनेजमेंट सिखाये हैं. सस्टेनेबल मेथड्स वाह!

हमरी मटर एक एक कर के छिलकों से निकल निकल कर परात की परिक्रमा कर रही थी और हम धूप में बैठ कर वर्तमान में भविष्य देख रहे थे. आहा हा ये सुख कहां समाये. ये बिल यकीनन लॉ में बदल जाये तो अच्छा.

'अम्मा, नए साल पर क्या...

नए साल की सुगबुगाहट हो रही है. न-न हमारे लिए कोई बैकग्राउंड में फ्लैशबैक मेमोरी म्यूजिक नहीं बजा रहा. वो तो बस बाजार की रौनक देख हर साल समझ आ ही जाता है. साल बदलता है, समय थोड़े ही. हम तो इसी से बेज़ार हैं की 50 रूपये किलो मटर ला कर उसका क्या क्या बना लें. मटर निमोना ,या कचौड़ी या कबाब! इसे ऐसी वैसी उलझन समझने की गुस्ताखी न करिये सर्दी में सरसों के साग बनाने, हलवे की गाजर कसने से भी ऊपर आता है ये. क्योंकि हील हुज्जत कर कर के 100 रूपये में ढाई किलो मटर जो हम ले आये उसे छीलने के लिए मजदूर तो मिलेंगे नहीं. अपना काम आउटसोर्स करने की कला कहां ही आई हम औरतों को? ऐसे में जब फटा पोस्टर निकला हीरो सा हमारी आंखों का लाल आ कर कहें कि,'अम्मा मटर हम छील देते हैं तुम धूप में लेट लो. थक जाती हो', तो अपने को संभालना पड़ता है. अरे ख़ुशी का इतना बड़ा झटका कैसे ही बर्दाश्त हो?

मां बाप के काम में हाथ बंटाकर अपना काम निकलवा ही लेते हैं आजकल के बच्चे

ये तो यूं लगा मानो सच में अच्छे दिन आ गए. नहीं गलत मत समझिये अच्छे दिन तो हैं ही. कानपुर में मेट्रो चल गई तो और अब क्या ही होगा लेकिन ये? उन्नीस से बीस में झूलते साहबज़ादे हमारी मटर छीलने का बिल प्रोपोज़ किये. अब इस बिल पर गौर तो करना होगा. औने पौने ला कर वापस लेने का मतलब ही क्या? तो वो मटर का झोला, छिलका रखने को अलग लिफाफा, मटर रखने को अलग परात ले कर ज्यों ही बैठा बाई गॉड की कसम अपने ऊपर रश्क हुआ क्या मैनेजमेंट सिखाये हैं. सस्टेनेबल मेथड्स वाह!

हमरी मटर एक एक कर के छिलकों से निकल निकल कर परात की परिक्रमा कर रही थी और हम धूप में बैठ कर वर्तमान में भविष्य देख रहे थे. आहा हा ये सुख कहां समाये. ये बिल यकीनन लॉ में बदल जाये तो अच्छा.

'अम्मा, नए साल पर क्या करोगी?'

हैं? हमारा कौन सा नया साल. वही सुबह का नाश्ता दोपहर से रात का खाना, दुनिया के काम और सुघड़ता का ईनाम! हुंह

तुम जो बोलो. वैसे मटर लाये है की निमोना और रात को कबाब बना देंगे. बाकि तो... 

अरे ये भला कैसा नया साल? आखिरी दिन भी खटोगी? न हो तो कुछ बाहर से मंगा लेते हैं. 

मन किया उपरवाले से कह दें कि - हे ईश्वर उठाना है तो अभी उठा ले. ख़ुशी ख़ुशी चल पड़ेंगे. लेकिन इतनी मटर का क्या होगा ये सोच कर रहने दिया. आजकल ऊपरवाले कुछ भी कभी भी सुन लेते हैं, तो जो बोलो देख समझ के बोलो!

अभी तो हमारी आंखें छलक रहीं थी. हमाय लल्ला को किसी की नजर न लगे. इतना ध्यान कौन ही रखता है. लोग बाग बिलावजह नई पीढ़ी के बच्चों की बुराई करते हैं. 'अरे न बेटा खटना कैसा? बना लेंगे. यहीं आंगन में कौड़ा जला देंगे और सब मिल बांट कर खाएंगे! बिल्कुल पहले की तरह.'

'पहले की तरह कैसे? तुम कैसे मनाती थी नया साल जब लड़की थी.'

आज तो हमाय लल्ला सैंटा किलोज़ सा गिफ़्ट पर गिफ्ट दे रहा था. मां लड़की थी तब कैसी थी? अच्छा वो सब छोड़िये मतलब कौन ही आजकल इतिहास जानना चाहता है. हमारे देश में तो परम्परागत तरीका रहा है की जिसका सूरज उठान पर हो वो इतिहास बदले. ऐसे में हमसे पूछना की हमारे नए सालों का इतिहास क्या था, कहीं कोई खास वजह तो नहीं? उफ़ कैसी मां हैं हम अपने खून पर शक. अक्ल पर पथ्थर पड़े हमारे! राई- नोन उतरने लायक मेरा लाल!

अरे कुछ नहीं बेटा हम सब अडोसी पड़ोसी मिलकर छत पर ही मना लेते थे. तुम्हारी नानी और आसपास की आंटियां घर में एक एक डिश बना लेती और बस साझे में पूरियां छनती. हम पास ही किसी दूसरी छत पर दोस्तों के साथ होते थे. बड़ों से दूर! बड़ा ही मज़ा आता था.

कित्ता ध्यान से मन लगा के सुन रहे थे लल्ला हमाये की मटर छीलते हुए आंखों में चमक आ रही थी. हम खुश.

हां अम्मा,जो मजा दोस्तों के साथ है वो कहीं और कहां? तुम अब भी याद करती हो.

हां वो तो है. जो समय दोस्तों के साथ गुज़रा आज भी याद आता है.  हम अपनी नोस्टालजिक ट्रिप से बाहर आने को तैयार नहीं थे.

ठंडी आह भरते हुए लाल बोले, 'हम क्या ही सुनाएंगे. हमे तो दोस्तों के साथ नुक्क्ड़ तक जा कर समोसे खाने की इजाज़त नहीं. नया साल क्या ही मनेगा और कौन सा किस्सा अपनी औलादों को सुनाएंगे. बनाओ अम्मा तुम निमोना कबाब बनाओं वही खाएंगे' ये था पहला वार. कसम से हमारे मटर निमोना की ऐसी बेइज्जती कोई नहीं किया.

'सारे दोस्त होंगे इकठ्ठा, यहीं चार घर छोड़ कर. कुछ करेंगे थोड़े ही पर फिर भी दोस्तों के साथ बैठ कर मज़े करना अलग सुख देता है. लेकिन हमें कहां ही... ये दूसरा वार

ओह तो ये बात थी. हमे इतना ज़ोर झटका लगा जैसे कटरीना और विकी की शादी की ख़बर से लगा था. मतलब ये हो रहा था और हमको पता ही न चला! अक्ल पर वाकई बीते रात की ठंडी हवा का असर था. हम नहीं देख पा रहे थे की हमारा ही जाया हम ही को फांस रहा है.

मेरे मालिक क्या ज़माना आ गया है. और दोस्त कब सही रहे हैं. दोस्त तब भी आला दर्जे के क... होते थे और आज भी होते हैं लेकिन जिस अदद ज़बान से दोस्तों के साथ नए साल के किस्से कह रहे थे अब उसी से कैसे कहते की, दोस्तों को छोड़ों और तुम तो छीलो मटर...

रहने दें अम्मा. आप टिम्मी आंटी की तरह नए ज़माने वाली मां नहीं बन पाओगी. मना कर ही देता हूं ये था आखिरी वार जिस पर हार पक्की थी.

'रुको'

आगे वही हुआ जो हम अपनी अम्मा से करवाते थे. दो पल पहले तक आंखों का तारा में अचानक लोकी के लक्षण दिखाई देने लगे. लौकी नहीं भई लोकी, 'गॉड ऑफ़ मिस्चिफ'! मटर प्रेम के नास्टैल्जिया की ट्रिप से गुज़रते हम अचनक 22 बरस के मुहाने पर खड़े थे और अब एहसास हो रहा था की ये मां को गोला देने में लाल हमारे इक्कीस नहीं अब हम पर बाइस होने लगे हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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