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हुर्रे...IPL की पॉपुलरिटी की वजह मिल गई

    • अश्विनी कुमार
    • Updated: 28 मई, 2018 06:47 PM
  • 28 मई, 2018 06:47 PM
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आईपीएल लोकप्रिय है, क्योंकि ये राजनीति का क्रिकेटीय संस्करण है. यहां आप मार्गदर्शक मंडल में नहीं जाते, मेंटर या कमंटेटर बन जाते हैं.

डेढ़ महीने मगजमारी करता रहा. एक सवाल का जवाब ढूंढता रहा. भेजे में नहीं आया. आया भी तो आखिरी दिन. सवाल था कि- आईपीएल इतना लोकप्रिय क्यों है? मेरे सवाल के बाद अगर आपके दिमाग में ‘चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ियों की तरह पुराने’जवाब उमड़ने-घुमड़ने लगे हों, तो उन्हें रद्दी में डालिए. क्योंकि आईपीएल की महालोकप्रियता की असली वजह कुछ और है. और ये असली वजह है क्रिकेट के इस फॉरमेट का राजनीति के खिलंदड़ों और खेल के बेहद करीब होना. कह सकते हैं कि ये जो आईपीएल है, वो सियासत का क्रिकेटिंग वर्जन है. शुरुआत आईपीएल के लिए लगने वाली बोली से ही हो जाती है. राजनीति में तो खरीद-फरोख्त का खेल पर्दे के पीछे होता है, यहां सबकुछ मान्य है. बोली लगाओ, अपनी पार्टी और पाले में ले आओ. जो रिटेन होते हैं, उनकी स्थिति पार्टियों के अध्यक्षों और कोर नेताओं की तरह होती है, जो चाहकर भी कहीं नहीं जा सकते. और न जाने में ही धन और बाकियों की तुलना में श्रेष्ठ होने का गौरव मिलता है. फिर इसके एवज में बाजार से कई प्रकार के लाभ की प्राप्ति होती है. कह सकते हैं कि राजनीति में पैसों का खेल पार्टी बनने के बाद शुरू होता है. आईपीएल में पैसों के खेल से ही पार्टी (टीम) बनती है. मौजूदा राजनीति की तरह दौलतमंदों को ‘खेलने’ का मौका यहां भी खूब मिलता है.

राजनीति और सास-बहू वाले सीरियलों की तरह इसमें भी साजिशों की पूरी गुंजाईश होती है. प्लेऑफ के ठीक पहले के मुंबई-दिल्ली के मैच को याद कीजिए. टेबल में फिसड्डी चल रही दिल्ली को मुंबई को हराकर क्या हासिल होना था? हां, इससे मुंबई का खेल जरूर बिगड़ गया. लेकिन कैसे कूद-कूद कर मुंबई को हराने पर तुले थे दिल्ली वाले? और हरा भी दिया. मुंबई वैसे ही मुकाबले से बाहर हो गई, जैसे किसी वोटकटवा उम्मीदवार की वजह से चुनावी मैदान में एक सशक्त उम्मीदवार ढेर हो जाता है. या फिर जैसे दो बहुओं (मुंबई-दिल्ली) के झगड़े में सास (राजस्थान) फायदा उठा ले जाती है.

राजनीति में ऐसा अकसर होता है कि आप खुद तो लाखों वोट से जीत जाते हैं, लेकिन...

डेढ़ महीने मगजमारी करता रहा. एक सवाल का जवाब ढूंढता रहा. भेजे में नहीं आया. आया भी तो आखिरी दिन. सवाल था कि- आईपीएल इतना लोकप्रिय क्यों है? मेरे सवाल के बाद अगर आपके दिमाग में ‘चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ियों की तरह पुराने’जवाब उमड़ने-घुमड़ने लगे हों, तो उन्हें रद्दी में डालिए. क्योंकि आईपीएल की महालोकप्रियता की असली वजह कुछ और है. और ये असली वजह है क्रिकेट के इस फॉरमेट का राजनीति के खिलंदड़ों और खेल के बेहद करीब होना. कह सकते हैं कि ये जो आईपीएल है, वो सियासत का क्रिकेटिंग वर्जन है. शुरुआत आईपीएल के लिए लगने वाली बोली से ही हो जाती है. राजनीति में तो खरीद-फरोख्त का खेल पर्दे के पीछे होता है, यहां सबकुछ मान्य है. बोली लगाओ, अपनी पार्टी और पाले में ले आओ. जो रिटेन होते हैं, उनकी स्थिति पार्टियों के अध्यक्षों और कोर नेताओं की तरह होती है, जो चाहकर भी कहीं नहीं जा सकते. और न जाने में ही धन और बाकियों की तुलना में श्रेष्ठ होने का गौरव मिलता है. फिर इसके एवज में बाजार से कई प्रकार के लाभ की प्राप्ति होती है. कह सकते हैं कि राजनीति में पैसों का खेल पार्टी बनने के बाद शुरू होता है. आईपीएल में पैसों के खेल से ही पार्टी (टीम) बनती है. मौजूदा राजनीति की तरह दौलतमंदों को ‘खेलने’ का मौका यहां भी खूब मिलता है.

राजनीति और सास-बहू वाले सीरियलों की तरह इसमें भी साजिशों की पूरी गुंजाईश होती है. प्लेऑफ के ठीक पहले के मुंबई-दिल्ली के मैच को याद कीजिए. टेबल में फिसड्डी चल रही दिल्ली को मुंबई को हराकर क्या हासिल होना था? हां, इससे मुंबई का खेल जरूर बिगड़ गया. लेकिन कैसे कूद-कूद कर मुंबई को हराने पर तुले थे दिल्ली वाले? और हरा भी दिया. मुंबई वैसे ही मुकाबले से बाहर हो गई, जैसे किसी वोटकटवा उम्मीदवार की वजह से चुनावी मैदान में एक सशक्त उम्मीदवार ढेर हो जाता है. या फिर जैसे दो बहुओं (मुंबई-दिल्ली) के झगड़े में सास (राजस्थान) फायदा उठा ले जाती है.

राजनीति में ऐसा अकसर होता है कि आप खुद तो लाखों वोट से जीत जाते हैं, लेकिन आपकी पार्टी मुंह की खा बैठती है. यहां भी आप कई बार पर्पल या ऑरेंज कैप पहनकर इतरा रहे होते हैं, लेकिन आपकी टीम हार कर बाहर हो चुकी होती है.

एक सुविधा तो यहां राजनीति से भी ज्यादा है. वो है बुजुर्ग होते खिलाड़ियों के लिए मौका. राजनीति में आपकी बुजुर्गियत आपको घोषित या अघोषित रूप से ‘मार्गदर्शक मंडल’ में पहुंचा देती है. या फिर आपको किसी राज्य के राजभवन में पहुंचा दिया जाता है. आईपीएल में आपके लिए सक्रिय रहने के मौके बाकी होते हैं. कोच, मेंटर या कमेंटेटर की शक्ल में. आप भी मैदान में बने होते हैं. आप भी डग आउट में बैठकर चौकों-छक्कों पर लहरा-लहराकर इसका श्रेय लेते हैं. जीत के बाद पूछे गए सवालों का जवाब ऐसे देते हैं कि जैसे बूथ लेवल तक किए गए आपके ही मैनेजमेंट (टीम की बनाई गई रणनीति) से पार्टी (टीम) जीत गई.

राजनीति की तरह आखिरी वक्त तक कन्फ्यूजन बनाए रखना और दर्शकों को भी दल-बदल की सुविधा देना भी आईपीएल की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह है. आप किसी टीम के समर्थक होते हैं, वो टीम मुकाबले से बाहर हो जाती है. आप पहले कन्फ्यूज होते हैं कि अब मैं क्या करूं, मेरी टीम तो बाहर हो गई? अगले ही पल आप दलबदल करते हैं. ऑप्शन-बी पर चले जाते हैं. और जरूरत पड़ी तो फाइनल आते-आते ऑप्शन-सी या डी पर भी. राजनीति में पाला बदलते हुए जिस तरह से हर दलबदलू के पास एक दलील होती है, यहां भी आपके पास होती है. टूर्नामेंट की शुरुआत में आप विराट पर दिल और जान छिड़कते हैं, तो बीच में गुना-भाग के जरिए प्लेऑफ में पहुंचने की उम्मीदें बंधाए रोहित शर्मा आपके फेवरेट हो जाते हैं. लेकिन जब यहां भी निराशा हाथ लगती है, तो आप कहते हैं कि- “हम तो जी धोनी के शुरू से फैन रहे हैं”. कुछ वैसे ही जैसे कांग्रेस या बीजेपी में जाते हुए नेता अकसर खुद के या अपने दादा-नाना के पूर्व कांग्रेसी या पूर्व जनसंघी होने की दलील देते हैं.

राजनीति में नेताओं को रंग बदलते देर नहीं लगती. चुनाव से पहले कुछ, चुनाव बाद कुछ. इस पार्टी में रहते हुए कुछ, उस पार्टी में जाते ही कुछ और. आईपीएल में तो रंग बदलने का और भी दिलचस्प हाल है. सियासत में तो बदलाव बातों-विचारों और एक्शन में होता है. यहां तो आत्मा के साथ-साथ शरीर के रंग भी बदल जाते हैं. पीला से लाल. लाल से ब्लू. ब्लू से पर्पल. और न जाने क्या-क्या?

चुनावी हार-जीत पर खूब सट्टे लगते हैं. पुरजोर वकालत आईपीएल में वेटिंग को मान्य करने की भी चल रही है. अमान्य होते हुए भी आम लोगों से लेकर कई कुलीन तक आईपीएल के खेल से इतर इस खेल में समय-समय पर धरे भी गए हैं. मैचों के बाद होने वाली नाइट पार्टियां और उनकी ‘रंगीन तस्वीरें’ कभी खूब चर्चे पाती थीं. काश, ‘शोले’ वाली ‘मौसी’जिंदा होतीं. आईपीएल देखने के बाद वीरू से बसंती की शादी के लिए कभी ना नहीं कहती.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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