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Indian Railways: तुम आओ कि इस जीवन का क़ारोबार चले!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 10 अप्रिल, 2020 06:45 PM
  • 10 अप्रिल, 2020 06:40 PM
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कोरोना वायरस लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) का सीधा असर रेल सेवा (Indian Railway Services) पर भी हुआ है. सब कुछ बंद है इसलिए वो लोग बहुत परेशान हैं जिन्हे रेल यात्राओं (Train Journey) का शौक था. लोग चाह रहे हैं कि कैसे भी करके लॉक डाउन ख़त्म हो और वो रेल सेवा का आनंद ले सकें.

यहां अहमदाबाद में गुजरात इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (Gujarat Electricity Board) का जो ऑफिस है वहां तक पहुंचने से पहले एक रेलवे फाटक (Railway Gate) बीच में पड़ता है. बीते वर्ष मुझे दस-पंद्रह बार वहां जाना पड़ा (वो अलग कहानी है) तो जब भी जाती, कई बार ऐसा हुआ कि गेट बंद मिला और कुछ मिनटों की प्रतीक्षा करनी पड़ी. ये प्रतीक्षा इंसान को हमेशा ही खलती आई है, मैं भी इसका अपवाद नहीं थी. बैठे-बैठे भुनभुनाती मानो उन पांच मिनटों में जैसे मैं न्यूटन के गति वाले तीनों फॉर्मूलों को ख़ारिज़ कर नई व्युत्पत्ति ही कर देती! लेकिन यक़ीन मानिये ट्रेन के आते ही मैं यह सब भूल चहकने लगती. हर बार ही झटपट मोबाइल निकाल रंगीन चमचमाती बोगी के फोटो खींचती और फिर प्रसन्न हृदय से जाकर काम निबटा आती.

ट्रेन से न जाने यह कैसा लगाव है जो प्लेन की बीसियों यात्राओं के बाद भी छूटता ही नहीं. ट्रेन की खिड़की से सर को टिकाये मैं झांकती हूं अतीत की बंद खिड़कियों से. ट्रेन से जब-जब भी यात्रा करती हूं तो सफ़र का अधिकांश हिस्सा साथ दौड़ते वृक्षों, खेतों, उसमें काम करते लोगों और बादलों की विविध आकृतियों को निहारते हुए ही निकल जाता है.

वही खेत-खलिहान, कुछ कच्चे मकान, सदियों पुराने उन्हीं विज्ञापनों से रंगी हुई दीवारें उन घरों की ईंटों की दरारों को ढांपने की नाकाम कोशिश आज भी उतनी ही शिद्दत से कर रहीं हैं. ट्रेन की गति जीवन की तरह ही तो है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा, जैसे हाथ छुड़ाकर भाग रहा हो कोई. ये नीम-हक़ीम के नाम आज भी नहीं बदले, इतने ज्यादा हैं कि दौड़ती हुई ट्रेन के साथ भी इन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है.

लॉक डाउन के इस दौर में सबसे ज्यादा रेल और रेल यात्राओं को मिस किया जा रहा है

शायद याद ही हो गए हैं. कई बार देखती हूं कि क्रॉसिंग पर रुके...

यहां अहमदाबाद में गुजरात इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (Gujarat Electricity Board) का जो ऑफिस है वहां तक पहुंचने से पहले एक रेलवे फाटक (Railway Gate) बीच में पड़ता है. बीते वर्ष मुझे दस-पंद्रह बार वहां जाना पड़ा (वो अलग कहानी है) तो जब भी जाती, कई बार ऐसा हुआ कि गेट बंद मिला और कुछ मिनटों की प्रतीक्षा करनी पड़ी. ये प्रतीक्षा इंसान को हमेशा ही खलती आई है, मैं भी इसका अपवाद नहीं थी. बैठे-बैठे भुनभुनाती मानो उन पांच मिनटों में जैसे मैं न्यूटन के गति वाले तीनों फॉर्मूलों को ख़ारिज़ कर नई व्युत्पत्ति ही कर देती! लेकिन यक़ीन मानिये ट्रेन के आते ही मैं यह सब भूल चहकने लगती. हर बार ही झटपट मोबाइल निकाल रंगीन चमचमाती बोगी के फोटो खींचती और फिर प्रसन्न हृदय से जाकर काम निबटा आती.

ट्रेन से न जाने यह कैसा लगाव है जो प्लेन की बीसियों यात्राओं के बाद भी छूटता ही नहीं. ट्रेन की खिड़की से सर को टिकाये मैं झांकती हूं अतीत की बंद खिड़कियों से. ट्रेन से जब-जब भी यात्रा करती हूं तो सफ़र का अधिकांश हिस्सा साथ दौड़ते वृक्षों, खेतों, उसमें काम करते लोगों और बादलों की विविध आकृतियों को निहारते हुए ही निकल जाता है.

वही खेत-खलिहान, कुछ कच्चे मकान, सदियों पुराने उन्हीं विज्ञापनों से रंगी हुई दीवारें उन घरों की ईंटों की दरारों को ढांपने की नाकाम कोशिश आज भी उतनी ही शिद्दत से कर रहीं हैं. ट्रेन की गति जीवन की तरह ही तो है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा, जैसे हाथ छुड़ाकर भाग रहा हो कोई. ये नीम-हक़ीम के नाम आज भी नहीं बदले, इतने ज्यादा हैं कि दौड़ती हुई ट्रेन के साथ भी इन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है.

लॉक डाउन के इस दौर में सबसे ज्यादा रेल और रेल यात्राओं को मिस किया जा रहा है

शायद याद ही हो गए हैं. कई बार देखती हूं कि क्रॉसिंग पर रुके अधीर लोग अब भी माथे पर वही शिकन लिए खड़े हैं.लगता है इनकी फ़िक्र इनके साथ ही जाएगी. कांच की खिड़की से बाहर झांकते समय, कूदते नन्हे बच्चों का चिल्ला-चिल्लाकर टाटा बोलना भी बड़ा मनोहारी लगता है. यूं वातानुकूलित खिड़कियों से अक़्सर ही बाहर की आवाजें टकराकर वहीं ढेर हो जाती हैं पर उनके मासूम चेहरे का उल्लास मेरी इस धारणा को बेहद संतुष्टि देता है कि अभिव्यक्ति को सदैव शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, वो तो चेहरे और आंखों से भी ख़ूब बयां होती है.

ये बचपन 'बाय-बाय, फिर मिलेंगे' कुछ इस अंदाज़ से कहता है कि पूरा यक़ीन हो जाता है, दुनिया जीवित है अभी. एक मुस्कान चेहरे पर तैरने लगती है, मैं भी जोरों से हाथ हिलाकर अपने इस आश्वासन को पुख़्ता करती आई हूं. बहुत बार यूं भी हुआ कि ठुड्डी को हाथों पे धरे हुए ही रास्ता कटता गया और बीते जीवन के पृष्ठ फड़फड़ाते रहे.

यात्रा आपको केवल गंतव्य तक ही नहीं पहुंचाती, बीच राह बहुधा खुद को खुद से मिलाते हुए एकालाप भी करती है. ये बातें, ये पल न बस में संभव हैं और न प्लेन में! ट्रेन हमारे जीवन का अहम् हिस्सा है. आम नागरिक का जीवन संवारा है इसने. अपनों को अपनों से मिलाया है इसने, गर्मियों की हर छुट्टी में बच्चों का हाथ थाम ननिहाल, ददिहाल तक छोड़कर आई है ये ट्रेन.

ये ट्रेन ही है जो स्कूल में आखिरी परीक्षा के दिन हमारे सपनों का इंजन बन साथ चली थी. इसकी बर्थों पर चढ़ते-उतरते सैकड़ों बच्चों की उमंगें यहीं से परवान चढ़ी थीं. हमारी छुट्टियों की सच्ची साथी बनती आई है ये ट्रेन. याद नहीं पड़ता कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक ये कभी भी रुकी हो! आज इतना याद कर जरूर शर्मिदा हो रही हूं कि लेट होने पर मैंनें इसे कई बार कोसा है पर मुझे मेरे अपनों तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद कभी नहीं दिया! कितनी ही बातें 'taken for granted' रह जाती हैं. है, न!

मेरी प्रिय भारतीय रेल, भले तब ही आना जब समय अनुकूल हो पर आना अवश्य! तुम्हारी छुकछुक प्रेमिका के पायलों की रुनझुन है, प्रेमी के दिल की बढ़ती धड़कन है. तुम आओ कि बच्चों को तुम्हारी प्रतीक्षा है. तुम आओ कि घर को संभालती नई बहू अब कुछ दिनों के लिए बाबुल के आंगन लौट जाना चाहती है और कोई मां कहीं उदास है, तुम आओ कि दो जोड़ी वृद्ध आंखों की चमक लौट आए, तुम आओ कि इस जीवन का क़ारोबार चले!

तुम्हें शुक्रिया!

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