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'पुतला फूंककों' के नाम खुला ख़त

    • पीयूष पांडे
    • Updated: 14 अक्टूबर, 2016 03:58 PM
  • 14 अक्टूबर, 2016 03:58 PM
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पुतला फूंकक धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पार्टी निरपेक्ष और शर्म निरपेक्ष प्राणी होता है. वह गीता के 'कर्म कर फल की चिंता न कर' के सिद्धांत पर अमल करते हुए यह काम करता हैं....

प्रिय पुतला फूंकक,

आपने जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का पुतला फूंका. कई लोग इससे नाराज़ हैं. लेकिन, मैं यह ख़त इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैं नाराज़ हूं बल्कि इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं आपसे बहुत प्रभावित हैं. पुतला फूंकने के प्रति आपकी कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण का कायल हूं.

दरअसल, लोग नहीं समझ पाते कि सच्चा पुतला फूंकक वही है, जो कभी भी, कहीं भी, किसी का भी पुतला फूंक सके. सही मायने में पुतला फूंकक धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पार्टी निरपेक्ष और शर्म निरपेक्ष प्राणी होता है-जो गीता के 'कर्म कर फल की चिंता न कर' के सिद्धांत पर अमल करते हुए पुतला फूंकने के काम में जुटा रहता है. उसके पुतला फूंकने से कहीं कोई चींटी भी डरी या नहीं-इसकी परवाह वो नहीं करता. इस भौतिक युग में कर्म के सिद्धांत पर अमल करने वाले आप जैसे कुछ लोग ही बचे हैं-आपको नमन!

 फूंककों की महिला ब्रिगेड भी तैयार रहे

पुतला दहन का एक पर्यावरणीय महत्व भी है. जिस दौर में चिकुनगुनिया और डेंगू के मच्छर देश को घुटने के बल रेंगने को मजबूर कर रहे हैं- आप लोग पुतला दहन कर मच्छरों को मारने का नेक काम कर रहे हैं. आपके इस कर्म की ख्याति अधिक नहीं हो पा रही और मुझे लगा कि इस बारे में भी लोगों को बताना चाहिए.

इसे भी पढ़ें: क्या यही है कांग्रेस की राष्ट्रभक्ति की नई परिभाषा?

पुतला दहन के दौरान चार-छह पुतला फूंकक एक जगह जमा होते हैं यानी...

प्रिय पुतला फूंकक,

आपने जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का पुतला फूंका. कई लोग इससे नाराज़ हैं. लेकिन, मैं यह ख़त इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैं नाराज़ हूं बल्कि इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं आपसे बहुत प्रभावित हैं. पुतला फूंकने के प्रति आपकी कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण का कायल हूं.

दरअसल, लोग नहीं समझ पाते कि सच्चा पुतला फूंकक वही है, जो कभी भी, कहीं भी, किसी का भी पुतला फूंक सके. सही मायने में पुतला फूंकक धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पार्टी निरपेक्ष और शर्म निरपेक्ष प्राणी होता है-जो गीता के 'कर्म कर फल की चिंता न कर' के सिद्धांत पर अमल करते हुए पुतला फूंकने के काम में जुटा रहता है. उसके पुतला फूंकने से कहीं कोई चींटी भी डरी या नहीं-इसकी परवाह वो नहीं करता. इस भौतिक युग में कर्म के सिद्धांत पर अमल करने वाले आप जैसे कुछ लोग ही बचे हैं-आपको नमन!

 फूंककों की महिला ब्रिगेड भी तैयार रहे

पुतला दहन का एक पर्यावरणीय महत्व भी है. जिस दौर में चिकुनगुनिया और डेंगू के मच्छर देश को घुटने के बल रेंगने को मजबूर कर रहे हैं- आप लोग पुतला दहन कर मच्छरों को मारने का नेक काम कर रहे हैं. आपके इस कर्म की ख्याति अधिक नहीं हो पा रही और मुझे लगा कि इस बारे में भी लोगों को बताना चाहिए.

इसे भी पढ़ें: क्या यही है कांग्रेस की राष्ट्रभक्ति की नई परिभाषा?

पुतला दहन के दौरान चार-छह पुतला फूंकक एक जगह जमा होते हैं यानी मेल-मिलाप और सामाजिकता का प्रसार होता है. वरना, आप तो जानते ही हैं कि आजकल घर में बाप-बेटे के बीच भी व्हाट्सएप से संवाद हो रहा है. फेसबुक-टि्वटर लोगों का घर हो गया है. वो इन घरों से निकल नहीं रहे. ऐसे में पुतला फूंकक कम से कम एक जगह जमा होकर पुतला दहन का संस्कार निभाते हैं, और इस तरह एक-दूसरे का हाल प्रत्यक्ष जानने की भारतीय संस्कृति को भी निभाते हैं.

 ऐसा फूंको कि कुछ न बचे

वैसे, मुझे लगता है कि पुतला फूंकने का काम असंगठित क्षेत्र में हो रहा है और इसे अब संगठित क्षेत्र में लाना होगा ताकि पुतला फूंककों के हितों का संरक्षण किया जा सके. कभी कोई पुतला फूंकक जेल जाए तो उसे छुड़ाना आसान हो. किसी खास मौके पर पुतला फूंकने का कार्यक्रम हो, और कोई पुतला फूंकक नासाज हो तो फौरन उसकी जगह कोई दूसरा पुतला फूंकक लाया जा सके. 

आप तो जानते ही हैं कि पुतला फूंकना भी एक आर्ट है, और इस आर्ट को सिखाने के लिए अब कोर्स आरंभ किए जाने चाहिए ताकि नितांत आम लोग भी खुद पुतला फूंक सकें. नाराजगी का पर्याय होना चाहिए पुतला. मसलन-पति पत्नी से नाराज हो तो उसका पुतला फूंक दे. लेकिन ऐसा तभी हो पाएगा जब पति को पुतला फूंकने का काम आता होता है. ये एक विशिष्ट काम है-इसे सिखाए जाने की जरुरत है. आप लोग इस दिशा में कुछ कीजिए. कोई अकादमी वगैरह बनाइए ताकि देश में पुतला फूंककों की नयी पीढ़ी तैयार की जा सके जो स्किल्ड हो.

 लापरवाही बरती तो कहीं फूंकक न जल जाए

कुछ पुतला फूंकक ये सवाल कर सकते हैं कि पुतला फूंकने में कौशल की क्या जरुरत? है, बिलकुल है. दरअसल, आजकल कुछ पुतला दाहक जिस तरह के घटिया क्वालिटी के पुतले फूंकते हैं, उसे देखकर वो व्यक्ति शर्म से मर सकता है, जिसका पुतला फूंका जा रहा है. यानी पुतले को देखकर लगता ही नहीं-पुतला है. लगता है कि चिंदी चोरी करके चार सींकों पर एक फोटो टांग दी है. फोटो भी खंभे से उखाड़ी हुई. यह आप लोगों के लिए शर्म की बात है. पुतला फूंककों का एक स्टैंडर्ड होना चाहिए. उनके काम को गंभीरता से देखा जाना चाहिए. लेकिन जिस तरह के घटिया पुतले फूंके जा रहे हैं, उससे उनके काम को निम्न स्तर का माना जाने लगा है.

इसे भी पढ़ें: जेएनयू में क्यों उठता है अफजल गुरु का नाम?  

मेरा यह भी आग्रह है कि छोटे शहरों के पुतला फूंकक भी कोई पीआर फर्म हायर करें. वो बेचारे, पुतला फूंक-फूंक के मर जाते हैं लेकिन उन्हें कायदे से चैनलों पर दिखाया नहीं जाता. ये कोई उनकी गलती नहीं है कि वो छोटे शहर में रहते हैं. पुतला फूंकने के प्रति उनका कौशल, उनकी नीयत देखी जानी चाहिए, न कि गांव.

मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि अभी आप सिर्फ पुतला फूंक रहे हैं. वैसे, मुझे मालूम है कि सताए हुए पुतला फूंकक बस फूंकते हैं. या कहें कि पुतला फूंकने के आगे का स्टेप है बस फूंकना. एक बार बंदे की पुतला फूंकने में एक्सपर्टीज हो जाती है तो वो फिर बस फूंकना भी उसे पुतला फूंकना लगता है. तो आप लोग भी जल्द इस दिशा में बढ़ेंगे ही-इसमें मुझे कोई शक नहीं. आप अपने हर मकसद में कामयाब हों-और जल्द ही शहर-शहर मेरा पुतला फूंककर मुझे लोकप्रियता दिलाने का काम करेंगे.

इसी कामना के साथ

आपका प्रशंसक


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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