• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
इकोनॉमी

नौकरियों के मामले में हिंदुस्तान एक टाइम बम पर बैठा है

    • अरुण पुरी
    • Updated: 06 अक्टूबर, 2017 09:55 PM
  • 06 अक्टूबर, 2017 09:55 PM
offline
हिंदुस्तान में नौकरियों का संकट ही मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. इस मुद्दे से जुड़ी इंडिया टुडे की कवर स्‍टोरी पर एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी का यह लेख नौकरी के संकट की गंभीरता को रेखांकित करता है.

किसी भी अर्थव्यवस्था की हालत नौकरियों से शुरू और उन्हीं पर खत्म होती है. नई नौकरियां आमदनी लाती हैं जो खपत की मांग पैदा करती है और फिर उस मांग को पूरा करने के लिए क्षमता में बढ़ोतरी की खातिर निवेश में तेजी आती है. राजनेता बेरोजगारी को लेकर हमेशा फिक्रमंद रहते हैं. नौकरियों में कमी लाने वाले ऑटोमेशन के दौर में तो और भी. दिक्कत तब और संगीन हो जाती है जब सामाजिक सुरक्षा देने वाला कोई सिस्‍टम न हो, जैसा कि हमारे देश में नहीं है.

फिर भी हिंदुस्तान को उस जनसांख्यिकी लाभांश की वजह से अपने को खुशकिस्मत मानना चाहिए जिसके इतने कसीदे पढ़े जाते हैं. हिंदुस्तान में कामकाजी उम्र (15-61) के लोगों की आबादी 2050 में 1.1 अरब पर पहुंच जाएगी, जबकि चीन की तब तक घटकर 75 करोड़ पर आ जाएगी. यह लाभांश महाविनाश में न बदल जाए, इसके लिए हिंदुस्तान को अगले 15 साल तक हर साल 1.6 करोड़ (तकरीबन नीदरलैंड्स की आबादी के बराबर) नौकरियां पैदा करनी होंगी.

आज भारत के पास सबसे बड़ी चुनौती अपने युवाओं को रोजगार देना है

अब हकीकत पर एक नजर डालिए :

श्रम और रोजगार मंत्रालय के मुताबिक, हिंदुस्तान 2009 से 2011 के बीच सालाना 8 लाख से 12.5 लाख नौकरियों का और उसके बाद हर साल 3-4 लाख नौकरियों का सृजन कर रहा था. यह तादाद घटकर 2015 में 1.55 लाख पर और 2016 में 2.31 लाख पर आ गई. गणना के तरीके में बदलाव के बाद 2016 की चौथी तिमाही में 1.22 लाख नौकरियां पैदा हुईं. मौजूदा रफ्तार से इस साल का आंकड़ा 5 लाख के आसपास कहीं जाकर ठहरेगा. श्रम ब्यूरो को जनवरी 2017 के बाद से आंकड़े अभी जारी करने हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2013 में अपने चुनाव अभियान के दौरान सालाना 1 करोड़ नौकरियों का वादा किया था. मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से 8.23 लाख नौकरियों का सृजन किया गया है,...

किसी भी अर्थव्यवस्था की हालत नौकरियों से शुरू और उन्हीं पर खत्म होती है. नई नौकरियां आमदनी लाती हैं जो खपत की मांग पैदा करती है और फिर उस मांग को पूरा करने के लिए क्षमता में बढ़ोतरी की खातिर निवेश में तेजी आती है. राजनेता बेरोजगारी को लेकर हमेशा फिक्रमंद रहते हैं. नौकरियों में कमी लाने वाले ऑटोमेशन के दौर में तो और भी. दिक्कत तब और संगीन हो जाती है जब सामाजिक सुरक्षा देने वाला कोई सिस्‍टम न हो, जैसा कि हमारे देश में नहीं है.

फिर भी हिंदुस्तान को उस जनसांख्यिकी लाभांश की वजह से अपने को खुशकिस्मत मानना चाहिए जिसके इतने कसीदे पढ़े जाते हैं. हिंदुस्तान में कामकाजी उम्र (15-61) के लोगों की आबादी 2050 में 1.1 अरब पर पहुंच जाएगी, जबकि चीन की तब तक घटकर 75 करोड़ पर आ जाएगी. यह लाभांश महाविनाश में न बदल जाए, इसके लिए हिंदुस्तान को अगले 15 साल तक हर साल 1.6 करोड़ (तकरीबन नीदरलैंड्स की आबादी के बराबर) नौकरियां पैदा करनी होंगी.

आज भारत के पास सबसे बड़ी चुनौती अपने युवाओं को रोजगार देना है

अब हकीकत पर एक नजर डालिए :

श्रम और रोजगार मंत्रालय के मुताबिक, हिंदुस्तान 2009 से 2011 के बीच सालाना 8 लाख से 12.5 लाख नौकरियों का और उसके बाद हर साल 3-4 लाख नौकरियों का सृजन कर रहा था. यह तादाद घटकर 2015 में 1.55 लाख पर और 2016 में 2.31 लाख पर आ गई. गणना के तरीके में बदलाव के बाद 2016 की चौथी तिमाही में 1.22 लाख नौकरियां पैदा हुईं. मौजूदा रफ्तार से इस साल का आंकड़ा 5 लाख के आसपास कहीं जाकर ठहरेगा. श्रम ब्यूरो को जनवरी 2017 के बाद से आंकड़े अभी जारी करने हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2013 में अपने चुनाव अभियान के दौरान सालाना 1 करोड़ नौकरियों का वादा किया था. मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से 8.23 लाख नौकरियों का सृजन किया गया है, जबकि हर साल 1.6 करोड़ नौकरियों की जरूरत है. हालांकि उन्होंने अपने मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया सरीखे अभियानों के साथ और मुद्रा बैंक सरीखी संस्थाएं बनाकर सही दिशा में कदम उठाए हैं, पर उनसे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ. इसे सरकार की सबसे अव्वल प्राथमिकता होना ही होगा, क्योंकि यह बात वह भी जानती है कि नौकरियों के अकाल के जबरदस्त सामाजिक नतीजे हो सकते हैं.

कह सकते हैं कि आज देश में नौकरी का संकट लगातार बना हुआ हैनौकरियों के संकट पर इस आवरण कथा के लिए, जो दो सालों में हमारी दूसरी आवरण कथा है (नौकरियों का अकाल, 2 मई 2016), इंडिया टुडे ने दिग्गज विशेषज्ञों का रुख किया और उनसे तमाम क्षेत्रों से जुड़े समाधान पूछे. उनका कहना है कि छोटे वक्त में केवल ग्रामीण सड़क, मकान और शौचालय निर्माण के बुनियादी ढांचा कार्यक्रमों पर अमल किया जा सकता है. यह चीन के नक्शेकदम पर चलते हुए और रेलवे स्टेशनों, मेट्रो, बंदरगाहों और राष्ट्रीय राजमार्गों पर जबरदस्त सार्वजनिक खर्चे के जरिए बुनियादी ढांचे का विकास करके किया जा सकता है.

इसके अलावा, सरकार को रोजगार पैदा करने वाले हरेक क्षेत्र पर अलग-अलग ध्यान देना होगा. मिसाल के लिए SME और कृषि के बाद सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष रोजगार देने वाले कपड़ा उद्योग को मुरझाने दिया गया है. परिधानों का हमारा निर्यात गतिरोध का शिकार है जबकि बांग्लादेश और वियतनाम हमसे आगे निकल गए हैं. सरकार 2022 तक जरूरतमंदों के लिए 2 करोड़ घरों के निर्माण का लक्ष्य साधकर सस्ते मकानों पर बड़ा दांव खेल रही है और सही खेल रही है, पर इसे समय पर पूरा कर ले तो उसे कामयाब माना जाएगा.

नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रही छोटी और मध्यम कंपनियों में अब नई ऊर्जा फूंकने की जरूरत है

बीते 70 सालों से हिंदुस्तान में नौकरियों का सृजन नए उद्योगों की लहर पर सवार रहा है. 1960 और 1970 के दशक अगर टेक्सटाइल उद्योग के थे, तो ’90 का और 2000 के दशक आईटी/आईटीईएस के थे, जिनके साथ ही साथ टेलीकॉम, खुदरा और ऑटोमोबाइल में भी खासा उभार आया. यह दशक वित्तीय सेवाओं (बीमा, बैंकिंग/एनबीएफसी) और ई-कॉमर्स का है. इन उद्योगों ने नौकरियों का सृजन किया है, पर अब बेहतर टेक्नोलॉजी और ज्यादा ऑटोमेशन की बदौलत ये बनिस्बतन कम लोगों को नौकरी पर रख रहे हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, हॉस्पिटैलिटी और पर्यटन सरीखे क्षेत्रों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है जितना दिया जाना चाहिए. इन सभी क्षेत्रों को वृद्धि के रास्‍ते पर लाने के लिए और रोजगार की उनकी जबरदस्त क्षमताओं को साकार करने के लिए नीतिगत बदलावों की जरूरत है. मैन्यूफैक्चरिंग पर आक्रामक तरीके से जोर देकर सरकार गलत जगह हाथ-पैर मार रही है. आखिरी और सबसे अहम बात यह कि नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रही छोटी और मध्यम कंपनियों में नई ऊर्जा फूंकने की जरूरत है. कुल नौकरियों में से एक चौथाई ये ही कंपनियां देती हैं.

एडिटर (रिसर्च) अजित के. झा के अतिरिक्त रिपोर्ताज के साथ डिप्टी एडिटर एम.जी. अरुण और सीनियर एडिटर श्वेता पुंज की लिखी इस आवरण कथा में अच्छी खबर यह है कि मोदी सरकार ने नौकरियों के अकाल की चुनौती को समझ लिया लगता है. 1991 और 2013 को बीच हिंदुस्तान की कामकाजी उम्र की आबादी में 30 करोड़ का इजाफा हुआ, जबकि काम-धंधों में लगे लोगों की तादाद सिर्फ 1.4 करोड़ बढ़ी – जो नौकरियों के बाजार में नए दाखिल नौजवानों की तादाद से आधी से भी कम है. हिंदुस्तान एक टाइम बम के मुहाने पर बैठा है. और यह कभी भी फट सकता है.

ये भी पढ़ें -

हम भारत की आर्थिक विकास दर को हाई तब मानेंगे, जब हमें नौकरी मिलेगी!

तो क्या ये है बेरोजगारी की समस्या का अचूक उपाय?

अब इंटरनेट देगा 30 लाख Jobs, 2018 में जानिए क्या होगा

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    Union Budget 2024: बजट में रक्षा क्षेत्र के साथ हुआ न्याय
  • offline
    Online Gaming Industry: सब धान बाईस पसेरी समझकर 28% GST लगा दिया!
  • offline
    कॉफी से अच्छी तो चाय निकली, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग दोनों से एडजस्ट कर लिया!
  • offline
    राहुल का 51 मिनट का भाषण, 51 घंटे से पहले ही अडानी ने लगाई छलांग; 1 दिन में मस्क से दोगुना कमाया
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲