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अर्थात्: यह वो जीएसटी नहीं

    • अंशुमान तिवारी
    • Updated: 17 मई, 2015 06:04 AM
  • 17 मई, 2015 06:04 AM
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जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है.

तकरीबन तीन साल पहले गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर राज्यों की एक बैठक की रिपोर्टिंग के दौरान राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा था कि पूरे भारत में उत्पादन, सेवा और बिक्री पर एक समान टैक्स दरें लागू करना लगभग नामुमकिन है! उस वक्त मुझे उनकी यह टिप्पणी झुंझलाहट से भरी और औद्योगिक राज्यों की तरफ इशारा करती हुई महसूस हुई थी, क्योंकि वह दौर जीएसटी पर गतिरोध का था और गुजरात एक दशक से इस सुधार का विरोध कर रहा था. जीएसटी पर ताजा राजनैतिक खींचतान ने उस अधिकारी को सही साबित कर दिया. देश के सबसे बड़े कर सुधार का चेहरा बदल गया है. जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है. टैक्स जटिल हैं लेकिन जीएसटी पर एक दशक की चर्चा के बाद लोगों को इतना जरूर पता है कि भारत में उत्पादन, बिक्री और सेवाओं पर केंद्र से लेकर राज्य तक किस्म-किस्म के टैक्स (एक्साइज, सर्विस, वैट, सीएसटी, चुंगी, एंटरटेनमेंट, लग्जरी, पर्चेज) लगते हैं जो न केवल टैक्स चोरी को प्रेरित करते हैं बल्कि उत्पादों की कीमत बढ़ने की बड़ी वजह भी हैं. जीएसटी लागू कर इन टैक्सों को खत्म किया जा सकता है ताकि पूरे देश में समान टैक्स रेट के जरिए कारोबार आसान हो सके. यह अंततः उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों और सेवाओं की कीमत कम करेगा. लेकिन जीएसटी का प्रस्तावित ढांचा इस मकसद से उलटी दिशा में जाता दिख रहा है.

एक दशक से अधर में टंगे जीएसटी को लेकर उत्साह इसलिए लौटा था क्योंकि गुजरात उन राज्यों में अगुआ था जो जीएसटी के हक में नहीं हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद मोदी जीएसटी के मुरीद हो गए, जिससे इस टैक्स सुधार की उम्मीद को ताकत मिल गई. लेकिन जीएसटी को लेकर मोदी का नजरिया बदलने से राज्यों के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ. केरल के वित्त मंत्री व जीएसटी पर राज्यों की समिति के मुखिया के.एम. मणि की मानें तो गुजरात और महाराष्ट्र ने दबाव बनाया कि सभी तरह के जीएसटी के अलावा, राज्यों को वस्तुओं की...

तकरीबन तीन साल पहले गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर राज्यों की एक बैठक की रिपोर्टिंग के दौरान राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा था कि पूरे भारत में उत्पादन, सेवा और बिक्री पर एक समान टैक्स दरें लागू करना लगभग नामुमकिन है! उस वक्त मुझे उनकी यह टिप्पणी झुंझलाहट से भरी और औद्योगिक राज्यों की तरफ इशारा करती हुई महसूस हुई थी, क्योंकि वह दौर जीएसटी पर गतिरोध का था और गुजरात एक दशक से इस सुधार का विरोध कर रहा था. जीएसटी पर ताजा राजनैतिक खींचतान ने उस अधिकारी को सही साबित कर दिया. देश के सबसे बड़े कर सुधार का चेहरा बदल गया है. जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है. टैक्स जटिल हैं लेकिन जीएसटी पर एक दशक की चर्चा के बाद लोगों को इतना जरूर पता है कि भारत में उत्पादन, बिक्री और सेवाओं पर केंद्र से लेकर राज्य तक किस्म-किस्म के टैक्स (एक्साइज, सर्विस, वैट, सीएसटी, चुंगी, एंटरटेनमेंट, लग्जरी, पर्चेज) लगते हैं जो न केवल टैक्स चोरी को प्रेरित करते हैं बल्कि उत्पादों की कीमत बढ़ने की बड़ी वजह भी हैं. जीएसटी लागू कर इन टैक्सों को खत्म किया जा सकता है ताकि पूरे देश में समान टैक्स रेट के जरिए कारोबार आसान हो सके. यह अंततः उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों और सेवाओं की कीमत कम करेगा. लेकिन जीएसटी का प्रस्तावित ढांचा इस मकसद से उलटी दिशा में जाता दिख रहा है.

एक दशक से अधर में टंगे जीएसटी को लेकर उत्साह इसलिए लौटा था क्योंकि गुजरात उन राज्यों में अगुआ था जो जीएसटी के हक में नहीं हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद मोदी जीएसटी के मुरीद हो गए, जिससे इस टैक्स सुधार की उम्मीद को ताकत मिल गई. लेकिन जीएसटी को लेकर मोदी का नजरिया बदलने से राज्यों के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ. केरल के वित्त मंत्री व जीएसटी पर राज्यों की समिति के मुखिया के.एम. मणि की मानें तो गुजरात और महाराष्ट्र ने दबाव बनाया कि सभी तरह के जीएसटी के अलावा, राज्यों को वस्तुओं की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाने की छूट मिलनी चाहिए, उत्पादकों को जिसकी वापसी नहीं होगी. यह टैक्स उस राज्य को मिलेगा जहां से सामान की आपूर्ति शुरू होती है. गुजरात का दबाव कारगर रहा. यह नया टैक्स लोकसभा से पारित विधेयक का हिस्सा है जो औद्योगिक राज्यों का राजस्व बढ़ाएगा जबकि अन्य राज्यों को नुक्सान होगा. इस तरह औद्योगिक व उपभोक्ता राज्यों के बीच पुरानी खाई फिर तैयार हो गई है. इसलिए जीएसटी विधेयक अब न केवल राज्यसभा में फंस सकता है बल्कि राज्यों के विरोध के कारण इसे अगले साल से लागू किए जाने की संभावना भी कम हो गई है.

सियासत ने जीएसटी की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है. अब इनडायरेक्ट टैक्स का एक नहीं बल्कि पांच स्तरीय ढांचा होगा. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस) लगेंगे और एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स. इसके अलावा अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी लगेगा जो सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह लेगा. सामान की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. जीएसटी तो पूरे देश में एक समान टैक्स ढांचा लाने वाला था, केंद-राज्य के अलग-अलग समेकित जीएसटी तक भी बात चल सकती थी लेकिन जीएसटी के नाम पर पांच टैक्सों का ढांचा आने वाला है जो मुसीबत से कम नहीं है.

दरअसल, जीएसटी के तहत उत्पादकों और व्यापारियों को कच्चे माल पर दिए गए टैक्स की वापसी होनी है ताकि एक ही सेवा या उत्पाद पर बहुत से टैक्स न लगें. अब जबकि कई स्तरों वाला टैक्स ढांचा बरकरार है तो लाखों टैक्स रिटर्न की प्रोसेसिंग सबसे बड़ी चुनौती होगी. अगर जीएसटी अपने मौजूदा स्वरूप में आया तो हर रोज हजारों रिटर्न फाइल होंगे, जिन्हें जांचने के लिए तैयारी नहीं है. जीएसटी के लिए देशव्यापी कंप्यूटरराइज्ड टैक्स नेटवर्क बनना था, जिसकी प्रगति का पता नहीं है जबकि राज्यों के टैक्स सिस्टम पुरानी पीढ़ी के हैं. जीएसटी अगर इस तरह लागू हुआ तो अराजकता व राजस्व नुक्सान ही हाथ लगेगा.

जीएसटी की दर आखिर कितनी होगी? राज्यों की समिति 27 फीसद की जीएसटी दर (रेवेन्यू न्यूट्रल रेटिंग जिस पर राज्यों को राजस्व का कोई नुक्सान नहीं होगा) का संकेत दे रही है. यह मौजूदा औसत दर से दस फीसद ज्यादा है. अगर जीएसटी दर 20 फीसद से ऊपर तय हुई तो भारत का यह सबसे बड़ा कर सुधार महंगाई की आफत बनकर टूटेगा. दुनिया के जिन देशों ने हाल में जीएसटी लागू किया है वहां टैक्स पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक हैं. जीएसटी के मामले में सियासत को देखते हुए सरकार के लिए यह दर कम रख पाना बेहद मुश्किल होगा. जीएसटी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हृदय बदलने के अलावा और कुछ नहीं बदला है. केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई तैयारी नहीं है. पूरी बहस केवल सरकारों के राजस्व पर केंद्रत है. कर वसूलने व चुकाने वाले, अर्थात् व्यापारी व उपभोक्ता अंधेरे में हैं. जीएसटी, सुर्खियां बटोरू स्कीम या मिशन नहीं है, यह भारत का सबसे संवेदनशील सुधार है जो हर अमीर-गरीब उपभोक्ता की जिंदगी से जुड़ा है. सरकार को ठहरकर इसकी पर्याप्त तैयारी करनी चाहिए. प्रधानमंत्री को अपने रसूख का इस्तेमाल कर राज्यों को इस पर सहमत करना चाहिए. जीएसटी लागू न होने से जितना नुक्सान होगा, उससे कहीं ज्यादा नुक्सान इसे बगैर तैयारी के लागू करने से हो सकता है.

अधिकांश लोग टैक्स का गणित नहीं समझते. लेकिन इतना जरूर समझते हैं कि ज्यादा टैक्स होने से महंगाई बढ़ती है और अगर पूरे देश में टैक्स की एक दर हो तो कारोबार आसान होता है. लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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