• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
संस्कृति

मानो या न मानो, भारत बदल रहा है!

    • आनंद कुमार
    • Updated: 02 जून, 2016 04:14 PM
  • 02 जून, 2016 04:14 PM
offline
अब अस्तित्व की लड़ाई एक ऊंचे स्तर पर शुरू हो गई . अब जब किसी विदेशी किताब में भारत' का नाम धूर्ततापूर्ण तरीके से बदल कर 'दक्षिण एशिया' रखने की बात होती है तो अचानक ही लोग 'असहिष्णु' हो जाते हैं. आप मानें या ना माने, भारत बदल रहा है.

किसी भी परिस्थिति में इंसान कैसा बर्ताव करेगा, उसे जांचने समझने की कई कोशिशें हुई हैं. प्राचीन मनीषियों से लेकर आधुनिक मनोविज्ञान तक सब इस सवाल के पीछे पड़े रहे हैं. किसी परिस्थिति में कैसा बर्ताव करना चाहिए, या फिर वातावरण का इंसान के बर्ताव पर क्या असर पड़ता है इसे समझने के तरीकों में जो सबसे प्रचलित हैं उसमें से एक है मोस्लोव्स मॉडल.

मोस्लोव्स हेरारकी ऑफ़ नीड्स (Moslow’s Hierarchy of Needs) के जो पुराने डिजाईन प्रचलित हैं वो 1943 से 1954 के बीच आये थे. तबसे आज तक ये काफ़ी प्रसिद्ध है और इसमें 5 स्तर होते हैं. इन्हें पिरामिड की शक्ल में दर्शाया जाता है और दो भागों में बांटा जाता है. एक हैं कमियों की पूर्ती वाला हिस्सा और दूसरा आगे बढ़ने या उन्नति का हिस्सा.

 हेरारकी ऑफ़ नीड्स

सबसे निचले स्तर पर यानि पहली सीढ़ी पर इंसान की शारीरिक जरूरतें होती है. सांस लेने की हवा, पीने का पानी, खाने को भोजन मिल जाए बस. इंसान जैसे ही इस से ऊपर जाता है उसे फिर सुरक्षात्मक जरूरतें सताने लगेंगी. उसे मौसम से सुरक्षा चाहिए, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा चाहिए. इसके बाद भावना की बात आती है, दोस्ती, प्रेम, परिवार, अन्य सामाजिक संबंधों की गिनती इसके बाद आती है. जब ये भी पूरी होने लगे तो उसके लिए प्रतिष्ठा महत्पूर्ण हो जाती है. उसके बाद अंत में कहीं जाकर आत्मसंतुष्टि की बारी आती है. यानि अंत में वो ज्ञान, व्यक्तिगत पसंद से कला, विज्ञान, अध्यात्म जैसे क्षेत्रों में रूचि लेगा .

इसे अगर उदाहरण के तौर पर देखना हो तो किसी गरीब से आदमी को देखिये. कोई ATM का गार्ड, कोई रिक्शावाला, कोई होटल का वेटर बस इतना ही कमाता है जिस से उसका खाने का इंतजाम...

किसी भी परिस्थिति में इंसान कैसा बर्ताव करेगा, उसे जांचने समझने की कई कोशिशें हुई हैं. प्राचीन मनीषियों से लेकर आधुनिक मनोविज्ञान तक सब इस सवाल के पीछे पड़े रहे हैं. किसी परिस्थिति में कैसा बर्ताव करना चाहिए, या फिर वातावरण का इंसान के बर्ताव पर क्या असर पड़ता है इसे समझने के तरीकों में जो सबसे प्रचलित हैं उसमें से एक है मोस्लोव्स मॉडल.

मोस्लोव्स हेरारकी ऑफ़ नीड्स (Moslow’s Hierarchy of Needs) के जो पुराने डिजाईन प्रचलित हैं वो 1943 से 1954 के बीच आये थे. तबसे आज तक ये काफ़ी प्रसिद्ध है और इसमें 5 स्तर होते हैं. इन्हें पिरामिड की शक्ल में दर्शाया जाता है और दो भागों में बांटा जाता है. एक हैं कमियों की पूर्ती वाला हिस्सा और दूसरा आगे बढ़ने या उन्नति का हिस्सा.

 हेरारकी ऑफ़ नीड्स

सबसे निचले स्तर पर यानि पहली सीढ़ी पर इंसान की शारीरिक जरूरतें होती है. सांस लेने की हवा, पीने का पानी, खाने को भोजन मिल जाए बस. इंसान जैसे ही इस से ऊपर जाता है उसे फिर सुरक्षात्मक जरूरतें सताने लगेंगी. उसे मौसम से सुरक्षा चाहिए, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा चाहिए. इसके बाद भावना की बात आती है, दोस्ती, प्रेम, परिवार, अन्य सामाजिक संबंधों की गिनती इसके बाद आती है. जब ये भी पूरी होने लगे तो उसके लिए प्रतिष्ठा महत्पूर्ण हो जाती है. उसके बाद अंत में कहीं जाकर आत्मसंतुष्टि की बारी आती है. यानि अंत में वो ज्ञान, व्यक्तिगत पसंद से कला, विज्ञान, अध्यात्म जैसे क्षेत्रों में रूचि लेगा .

इसे अगर उदाहरण के तौर पर देखना हो तो किसी गरीब से आदमी को देखिये. कोई ATM का गार्ड, कोई रिक्शावाला, कोई होटल का वेटर बस इतना ही कमाता है जिस से उसका खाने का इंतजाम हो जाए. मतलब पहले स्तर पर है, वो सिर्फ आगे के एक स्तर तक सोच सकता है. ज्यादा से ज्यादा वो अपने रहने के लिए मकान, मौसम से सुरक्षा देने वाले घर तक सोच पायेगा. मगर किसी ऐसे युवक-युवती से मिलिए जो एक दो साल किसी MNC, किसी प्राइवेट नौकरी में रह चुका हो. इसकी दोनों शुरूआती जरूरतें, शरीर पालन और सुरक्षा की पूरी हो चुकी हैं. अब इसकी शिकायत होगी कि काम के चक्कर में सोशल लाइफ ही नहीं रह गई ! ये सोशल मीडिया इस्तेमाल करना शुरू कर चुका होगा.

थोड़े ही दिन में जब इसके कॉलेज, स्कूल के पुराने दोस्तों से फिर से सामाजिक सम्बन्ध भी बन चुके होंगे, शायद विवाह भी हो जाएगा तब लोगों की जरुरत एक कदम और आगे बढ़ जायेगी. अब उसे करियर सक्सेस चाहिए. एक प्रमोशन होकर मेनेजर बन जाने की चाहत होगी.

मोहल्ले के लोग, परिचित 'साहब' समझे ऐसा चाहेगा. जब ये भी हो चुका होगा तो एक दो बार में उसका मन प्रमोशन, सामाजिक प्रतिष्ठा जैसी चीज़ों से भी भरने लगेगा. अब जाकर उसकी रूचि वापस से बचपन वाले शौकों की तरफ जायेगी. फिर से वो अपने प्रिय विषयों पर किताबें, पत्रिकाएं पढ़ना शुरू कर देगा. हो सकता है कला में रूचि हो तो वो पेंटिग, मूर्तियों में ध्यान लगाएगा. या शायद कहीं कहीं घूमने, दुनिया देखने निकल पड़े कभी कभी छुट्टी लेके.

जब आदमी गरीबी में सिर्फ रोटी दाल के इंतजाम में लगा है, भूख से आगे सोच ही नहीं सकता, उस पहले स्तर पर अगर आप उस से कहें कि चौथे पांचवे स्तर वाला नाम कमाना चाहोगे तो उसकी समझ में कुछ नहीं आने वाला. उसके पास तीसरे स्तर की भी आप जांच कर लीजिए. उसके लिए सामाजिक सम्बन्ध भी कुछ ख़ास मायने नहीं रखते. ऐसे ही किसी 50-55 की उम्र के या IIT-IIM से पढ़े 35-40 साल के आदमी से मिलिए. उसके लिए रोटी-कपड़ा-मकान की जरुरत वर्षों पहले पूरी हो चुकी हैं.

सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक संबंधो की भी जरुरत नहीं रही, दोस्त-शादी-बच्चे हैं उसके पास. किसी बड़ी जगह से पढ़े होने का ठप्पा, नौकरी में प्रमोशन, आर्थिक स्तर की वजह से आई सामाजिक प्रतिष्ठा भी है उसके पास. वो अब अपना किताबों का शौक, पेंटिग जमा करने का शौक, घूमने जाने की इच्छा पूरी कर रहा है.

अगर उस से आप पूछ लें, भइया क्या फायदा ये सब करके ? क्या मिलता है ? कमाई बढ़ जायेगी क्या किताबें पढने, पेंटिंग या कला के शौक से? तो वो कहेगा पसंद है इसलिए कर रहा है. इस बार आपकी समझ में नहीं आएगा कि क्यों कर रहा है!

बिलकुल यही मामला देश के लिए भी होता है. भारत एक गरीब देश था. फिरंगियों ने जब इसे छोड़ा तो ये करीब 1200 साल लुटेरों को झेल चुका था. भूखे नंगे देश को कोई फर्क नहीं पड़ता था कि भारत' क्या है ? उसे सिर्फ दो वक्त की रोटी चाहिए थी. धीरे धीरे पचास वर्षों में बात बदलने लगी. पहले उसकी बड़ी आबादी की भूख की चिंता मिट गई, मध्यम वर्ग की सुरक्षा की जरूरतें पूरी हो गई, कई लोग विदेशों में नौकरी-व्यापार करने लगे तो सामाजिक पहचान भी है. फिल्म-साहित्य-कला जगत के शौक भी पूरे होने लगे |

जाहिर है कि अब Self Actualization की बारी थी.

अब अस्तित्व की लड़ाई एक ऊंचे स्तर पर शुरू हो गई. अब जब किसी विदेशी किताब में भारत' का नाम धूर्ततापूर्ण तरीके से बदल कर 'दक्षिण एशिया' रखने की बात होती है तो अचानक ही लोग 'असहिष्णु' हो जाते हैं. कोई न कोई लड़ कर वापिस अपनी पहचान छीन लेता है. कलकत्ता का नाम कोलकाता रखने की बात होती है, मद्रास वापस चेन्नई हो जाता है. ये पहचान वाले मानसिक स्तर का मामला है. अभी ये छोटे स्तर तक भी जाएगा. जल्द ही लोग बनारस को वाराणसी बुलाये जाने की बात करेंगे, अजमेर की दुकानों पर जो 'अजय मेरु' लिखा दिखाई देता है, वो नाम अपना, वहां भी लोग वापस मांगेंगे.

कल तक रोटी के टुकड़े फेंक देने पर आपस में लड़ जाने वाले लोग, आज अगर अपनी पहचान वापिस मांगे तो हो सकता है कई 'अभिजात्य' वर्ग के लोगों को समझ ना आये कि ये हो क्या रहा है? क्यों हो रहा है? समस्या सीधी सी है साहब, आप मानें या ना माने, भारत बदल रहा है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    गीता मय हुआ अमेरिका... कृष्‍ण को अपने भीतर उतारने का महाभियान
  • offline
    वो पहाड़ी, जहां महाकश्यप को आज भी है भगवान बुद्ध के आने का इंतजार
  • offline
    अंबुबाची मेला : आस्था और भक्ति का मनोरम संगम!
  • offline
    नवाब मीर जाफर की मौत ने तोड़ा लखनऊ का आईना...
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲