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संस्कृति

अर्थव्यवस्था के ढलान वाले दिनों में कोजागरा की रात लक्ष्मी पूजा

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 04 अक्टूबर, 2017 10:20 PM
  • 04 अक्टूबर, 2017 10:20 PM
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कोजागरा पर्व को मनाने के तरीके अलग- अलग हैं लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है. जीएसटी और नोटबंदी से हलकान देश में पूरे देश को कोजागरा मनाना चाहिए, क्या पता जीडीपी की विकास दर संभल ही जाए.

आइए कि लक्ष्मी की पूजा करें. गुरुवार की रात शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी को पूजना जरूरी है.

आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर चांद की निहारिए. आप चलेंगे तो चांद चलेगा. आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा. इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः 

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.

थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.' 

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी. मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

मिथिला का महत्वपूर्ण पर्व है कोजागरा

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं. दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे...

आइए कि लक्ष्मी की पूजा करें. गुरुवार की रात शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी को पूजना जरूरी है.

आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर चांद की निहारिए. आप चलेंगे तो चांद चलेगा. आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा. इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः 

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.

थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.' 

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी. मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

मिथिला का महत्वपूर्ण पर्व है कोजागरा

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं. दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं. जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है. जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं. शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सवेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है.

असल में शरद पूर्णिमा या कोजारगी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है.

दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है.

अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं.

बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र हर जगह मनाया जाता है ये त्योहार

वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ - 'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनों से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है.

यह कैसा अभिशाप, चांद तक

सागर का मनुहार न पहुंचे,

नदी-तीर एकाकी चकवे का

क्रन्दन उस पार न पहुंचे.

समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगमाता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा. शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है. लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी

गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:

नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥

कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).

नाम अलग त्योहार एक

कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है.

गुजरात में यह शरद पूनम है. जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं. तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था.

ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं. क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद (जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं) देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसके बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है. कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.

इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है.

जीएसटी और नोटबंदी से हलकान देश में पूरे देश को कोजागरा मनाना चाहिए, क्या पता जीडीपी की विकास दर संभल ही जाए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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