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संस्कृति

संस्कृत को बचाने की सोच ही मनुवादी है

    • सिद्धार्थ झा
    • Updated: 29 अप्रिल, 2016 06:58 PM
  • 29 अप्रिल, 2016 06:58 PM
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क्यों नहीं हमारे जन प्रतिनिधि संस्कृत को बचाने की मुहिम की शुरुआत पहले अपने घर और परिवार से करते हैं और समाज के लिए आदर्श स्थापित करें. इसे स्कूल, कॉलेज और आईआईटी जैसी संस्थओं पर थोपना महज एक मनुवादी सोच का नतीजा है.

कुछ दिन पहले मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का बयान सुना, आईआईटी मे संस्कृत मे पढ़ाने को लेकर. थोड़ा डर भी लगा और आश्चर्य भी हुआ. डर इसलिये क्योंकि जिस सरकारी स्कूल में मैं पढ़ता था वहाँ छठी कक्षा से लेकर आठवीं तक अंग्रेजी और हिन्दी के साथ संस्कृत पढ़ना अनिवार्य था. सच कहूँ तो इस विषय से बहुत डर लगता था क्योंकि कभी भी 5-6 नंबर से ज्यादा नहीं मिले थे. जैसे तैसे संस्कृत के अध्यापक लतियाते-जुतियाते पास कर देते थे. सिर्फ मैं ही नहीं, ऐसे बहुत से विद्यार्थी थे जो हिन्दी और अंग्रेजी में अच्छे थे लेकिन संस्कृत में लाचार थे. इस माह जब मेरी बेटी पाँचवी कक्षा में गई तब उसको फ्रेंच या संस्कृत में से कोई एक विषय चुनना था. उसने खुद फ्रेंच को चुना. मैंने पूछा फ्रेंच क्यो, संस्कृत क्यों नहीं? उसका सीधा सा जवाब था कि क्या मुझे मंदिर में पंडितजी बनना है या संस्कृत का टीचर. वह साइंटिस्ट या एस्ट्रोनॉट बनना चाहती है.

संस्कृत को आईआईटी पर थोपने जा रही हैं स्मृति ईरानी

खैर मुद्दे पर आते हैं. एक जमाने मे पाली भाषा की तूती बोलती थी. भारत में ये विद्वानो की भाषा थी लेकिन इतनी क्लिष्ट थी और आम लोगों से इतनी दूर थी कि इस भाषा ने खुद बख़ुद दम तोड़ दिया. कोई भी भाषा हो, वो सिर्फ लोगों के बीच संवाद कायम करती है लेकिन अगर उसे खुद को विद्वान साबित करने का माध्यम बना दिया जाये तो वो आत्ममुग्धा की अवस्था होती है. दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी भी कालेज में एक जमाने में किसी को कहीं दाखिला नहीं मिलता था, तब संस्कृत की सुरक्षित सीट बचती थी. आज भी हालात ऐसे ही हैं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. बिहार में दर्जनों संस्कृत महाविध्यालय हैं, जो 1 या 2 कमरों में चलते है. विद्यार्थी सिर्फ रजिस्टरों पर उपस्थित मिलते हैं या अगर कभी औचक निरीक्षण हो तो आसपास के लोगों को बैठा दिया जाता है. यहाँ तक कि वहाँ के प्राध्यापक प्रथमा-मध्यमा करने के लिए छात्रों की मान मुन्नवल करते हैं.

कुछ दिन पहले मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का बयान सुना, आईआईटी मे संस्कृत मे पढ़ाने को लेकर. थोड़ा डर भी लगा और आश्चर्य भी हुआ. डर इसलिये क्योंकि जिस सरकारी स्कूल में मैं पढ़ता था वहाँ छठी कक्षा से लेकर आठवीं तक अंग्रेजी और हिन्दी के साथ संस्कृत पढ़ना अनिवार्य था. सच कहूँ तो इस विषय से बहुत डर लगता था क्योंकि कभी भी 5-6 नंबर से ज्यादा नहीं मिले थे. जैसे तैसे संस्कृत के अध्यापक लतियाते-जुतियाते पास कर देते थे. सिर्फ मैं ही नहीं, ऐसे बहुत से विद्यार्थी थे जो हिन्दी और अंग्रेजी में अच्छे थे लेकिन संस्कृत में लाचार थे. इस माह जब मेरी बेटी पाँचवी कक्षा में गई तब उसको फ्रेंच या संस्कृत में से कोई एक विषय चुनना था. उसने खुद फ्रेंच को चुना. मैंने पूछा फ्रेंच क्यो, संस्कृत क्यों नहीं? उसका सीधा सा जवाब था कि क्या मुझे मंदिर में पंडितजी बनना है या संस्कृत का टीचर. वह साइंटिस्ट या एस्ट्रोनॉट बनना चाहती है.

संस्कृत को आईआईटी पर थोपने जा रही हैं स्मृति ईरानी

खैर मुद्दे पर आते हैं. एक जमाने मे पाली भाषा की तूती बोलती थी. भारत में ये विद्वानो की भाषा थी लेकिन इतनी क्लिष्ट थी और आम लोगों से इतनी दूर थी कि इस भाषा ने खुद बख़ुद दम तोड़ दिया. कोई भी भाषा हो, वो सिर्फ लोगों के बीच संवाद कायम करती है लेकिन अगर उसे खुद को विद्वान साबित करने का माध्यम बना दिया जाये तो वो आत्ममुग्धा की अवस्था होती है. दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी भी कालेज में एक जमाने में किसी को कहीं दाखिला नहीं मिलता था, तब संस्कृत की सुरक्षित सीट बचती थी. आज भी हालात ऐसे ही हैं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. बिहार में दर्जनों संस्कृत महाविध्यालय हैं, जो 1 या 2 कमरों में चलते है. विद्यार्थी सिर्फ रजिस्टरों पर उपस्थित मिलते हैं या अगर कभी औचक निरीक्षण हो तो आसपास के लोगों को बैठा दिया जाता है. यहाँ तक कि वहाँ के प्राध्यापक प्रथमा-मध्यमा करने के लिए छात्रों की मान मुन्नवल करते हैं.

लालू के राज में ऐसे महाविद्यालयों को कई बार परेशान भी किया गया. आज संस्कृत देश भर के मंदिरों, विवाह संस्कारों और अन्य धार्मिक कार्यों की भाषा बनकर रह गई है.

भले ही लोग समझें या न समझें. संस्कृत को कभी देव तो कभी ब्रह्म भाषा का दर्जा दिया जाता है. लेकिन जो सच में संस्कृत के विद्वान है वे ऐसे पंडितो की भाषा पर अपना माथा पीट लेते हैं. लेकिन क्या करें वो जानते हैं कि संस्कृत कितनी क्लिस्ट है.

संस्कृत को आप अगर मुख्यधारा में लाना चाहते हैं तो इसे जन सामान्य की भाषा बनानी होगी. तो क्यों नहीं ये शुरुआत हमारे जन प्रतिनिधि खुद से और अपने घरों से करते हैं. और समाज के लिए एक आदर्श स्थापित करते हैं. बजाय इसको कभी स्कूलों तो कभी आईआईटी पर थोपने के मंसूबे के. संस्कृत को जब तक रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक ये पंडे और पंडितो की भाषा ही बनी रहेगी. किसी भी भाषा का खत्म होना दुखद है लेकिन संस्कृत के खत्म होने का एक लंबा सिलसिला रहा है. या यूं कहें कि ब्राह्मणों ने इसको जाति विशेष की भाषा बनाकर रखने का षड्यंत्र किया. सरकार का फर्ज़ है कि वो भाषा संस्कृति की चिंता करे, लेकिन ऐसे ऊल जलूल कोशिशें इसकी साख को और खराब करती है. भारत मे हर वर्ष सैकड़ों जातीय संस्कृति और भाषाएं समाप्त हो रही हैं. बेहतर होगा कि सरकार उनको भी बचाने का प्रयत्न करे क्योंकि सिर्फ संस्कृत को बचाने की सोच मनुवादी मानसिकता की तरफ इशारा करती हैं. आज भी हम एक राष्ट्र एक भाषा यानी हिन्दी का प्रचार प्रसार सब जगह नहीं कर पाये हैं. शायद सरकारी कामकाज की भाषा भी ठीक से नहीं बना पाये हैं, वर्ना क्यों हिन्दी पखवाड़ा मनाने की नौबत आती. सरल भाषा हमेशा ज़िंदा रहेगी आम लोगों के बीच किसी नदी की तरह बहती रहेगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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